Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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निशा अब जा रही है
श्री मिश्रीलाल जैन
सूर्य के प्रहारों से आहत घटा से नष्ट होकर जा रहे प्रहर निशा के। निशाचरी की अश्व जैसी नासिका खंडित कलंकित सूर्य से भयभीत होकर छोड़ कर के जा रही रणक्षेत्र पट खोलकर प्रवेश करने निज नगर में।
अभय देते राम सीता की खोज में सूर्य दौड़ा रात के पीछे विश्वरूपी भवन में दीपक जलाया त्रिभुवनरूपी राक्षस की दिशारूपी वधू का मुख फाड़कर प्रवेश करता दिवाकर खोजने सीता।
शयन-कक्ष के दीप मुड़कर देखते हैं निशा अब जा रही है सूर्य जागा, लगा जैसे धरा रूपी कामनी का आईना हो, लगा संध्या ने प्रकाशित किया मंगल तिलक अपना या सुकवि का यश प्रकाशित हो रहा हो।
अश्रु जल से बुझाती थी विरह अग्नि स्नेह की दीवार पर जितने बने थे चित्र धुंधले पड़ गये विश्वास के मैले धुएँ से।
पुराना पोस्ट ऑफिस रोड,
गुना (म.प्र.) 473001