Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
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9-10
अक्टूबर अक्टूबर
1997, - 1998
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पउमचरिउ की लोक-दृष्टि
( विद्याधर काण्ड के सन्दर्भ में )
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डॉ. शैलेन्द्रकुमार त्रिपाठी
साधारण जन की मनोभावना, रुचि, स्वभाव एवं आकांक्षा को जितनी सहजता से कवि ग्रहण करता है अगर उसी सहजता से उसे वह कविता में व्यक्त कर देता है तो निश्चित ही, वह शास्त्र का निर्माण करने में सक्षम है। हमारी परम्परा के प्राचीन सर्जकों का आभिजात्य सही मायने में इसी रूप में देखा जा सकता है। साहित्य के 'सहित' का भाव यदि मनुष्य के रूप में जी रहे निर्धनतम की आशा का विध्वंस करने में है तो एक साथ अनेक प्रश्नवाचक खड़े हो सकते हैं ?
हिन्दी साहित्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखने पर यह पता चलता है कि हिन्दी जाति की सोचने-विचारने और सृजन क्षमता की समृद्धि का काल 'आदि काल' अपभ्रंश के दायरे में बंधा है। रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य द्विवेदी, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, डॉ. राम विलास शर्मा से लेकर डॉ. रामकृपाल पाण्डेय तक इसे स्वीकार करने में संकोच नहीं करते, अब एक दूसरा अहम मुद्दा है। अपभ्रंश किस तरह की भाषा थी? भाषा थी, इसमें किसी भी विद्वान को कोई आपत्ति नहीं है- विवाद में पड़ना अपना अभीष्ट नहीं है, अतः- हजारीप्रसादजी के परस्पर विरोधी विचारों के आलोक में रामविलासजी की मान्यताएँ और उन मान्यताओं से प्रेरित होकर डॉ. रामकृपाल पाण्डेय के प्रेरक और वैचारिक सुझाव कहाँ तक और कितने ग्राह्य हो सकते हैं यह अलग लेख का विषय हो सकता है। यहाँ हम अपभ्रंश की एक विख्यात कृति 'पउम चरिउ' जो महाकवि स्वयंभू की प्रबन्ध कृति है और पाँच काण्डों में विभक्त है- विद्याधर काण्ड - 1-20 संधियाँ,