Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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आचार्यो ने भौम भेद को निम्न रूप में व्यक्त किया है
(1) जाति, (2) द्रव्य, (3) गुण, (4) क्रिया ।
प्रत्येक को तीन रूपों में और विभक्त किया गया है ।" यथा
(1) असत्, (2) सत्, (3) नियमन ।
इस प्रकार कुलभेद बारह हो जाते हैं।
अपभ्रंश भारती
- 9-10
काव्य में कवि - समय की उपयोगिता असंदिग्ध है। इससे काव्याभिव्यक्ति में सौन्दर्य की सर्जना होती है। सौन्दर्य का मूलाधार वस्तु-जगत हैं फिर चाहे वह प्रस्तुत हो अथवा अप्रस्तुत । उसमें सौन्दर्य का होना आवश्यक है। सौन्दर्य की भावना शास्त्र से जुड़ी नहीं होती, वह देश और काल की सीमा का अतिक्रमण कर मनुष्य मात्र के हृदय को प्रभावित करती है। 7
कविसमय का मुख्य उद्देश्य काव्य में सौन्दर्य भाव की स्थापना करना है। काव्य में कविसमय का प्रयोग कवि की कल्पना शक्ति पर आधारित होता है। मानसरोवर को न देखनेवाला कवि भी मानसरोवर में हंस का वर्णन करता है। यह उसकी कल्पना-शक्ति का ही परिचायक है ।
लोक में प्रचलित धारणाओं को बनाये रखने के लिए भी सम्भवत: कवियों द्वारा कवि समय का प्रयोग किया जाता रहा है । यथा
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(1) चक्रवाक युगल का रात्रि-वियोग,
(2) चातक - मेघ- प्रेम,
(3) चातक द्वारा स्वाति नक्षत्र का जल पीना,
(4) चकोर का चन्द्रिका - पान,
(5) चकोर का अंगार भक्षण करना आदि ।
वृत्तिपरक कविसमयों का प्रयोग वृत्ति विशेष को प्रयोग करने के लिए निश्चित रूप से किया जाता है, यथा
हंस अपनी उदात्त और शुद्ध वृत्ति के लिए प्रसिद्ध है ।
वस्तु विशेष की व्यञ्जना के लिए प्रतीक रूप में कविसमयों का प्रयोग आवश्यक होता है । प्रेमी युगल के लिए चक्रवाल, चकोर, चातक को अनन्य प्रेमी के रूप में उल्लिखित किया जाता है। हंस तथा कमल आध्यात्मिक प्रतीक माने गये 1
इस प्रकार काव्याभिव्यक्ति में भाव, सौन्दर्य और सहजता उत्पन्न करने के लिए कविसमयों का उपयोग अपना महत्त्व रखता है ।