Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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9-10
अपभ्रंश भारती भवदेव के पिता अपनी व्याधि से व्याकुल हो, जीने के आशा छूट जाने से स्वयं चिता रच कर में प्रविष्ट होकर मरण को प्राप्त होते हैं। यह देख उनकी माता भी उसी चिताग्नि में प्रवेश कर अपनी देह त्याग कर देती है। दोनों का मरण देखकर वे बालक हा कष्ट हुए जोर-जोर से छाती पीट-पीट कर रोते हैं । 2
हा कष्ट ! कहते
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माता-पिता के एकसाथ वियोग से दुःखी होकर बालकों का बार- बार छाती पीटना, करुणाजनक रुदन करना, करुण रस के सशक्त अनुभाव हैं। ये शोक स्थायी भाव को जगाकर सह्रदय को मर्मस्पर्शी करुण रस के सागर में निमग्न कर देते हैं ।
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शान्त रस का अनुभाव
जंबूसामि चरिउ का अंगीरस शान्त रस है । भरत मुनि ने शान्त रस का लक्षण इसे प्रकार बतलाया है
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अथ शान्तो नाम शम स्थायिभावात्मको मोक्षप्रवर्तकः ।
अर्थात् आस्वाद्य अवस्था को प्राप्त शम स्थायी भाव शान्त रस कहलाता है। इसको और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं
यत्र न दुःखं न सुखं द्वेषो समः सर्वेषु भूतेषु स शान्तः
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नापि मत्सरः । प्रथितो रसः ॥
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सहृदय सामाजिक के मन में उबुद्ध ' शम' स्थायी भाव का प्रकाशन निम्नलिखित अनुभावों के द्वारा होता है विषयों में अरुचि, शत्रु मित्र, सुख-दुःख आदि में समभाव, सांसारिक व्यापारों से निवृत्ति, देव - शास्त्र - गुरु में भक्ति, धर्म श्रवण, स्वाध्याय, अनित्यत्व आदि में प्रवृत्ति 33
(नाट्य शास्त्र, षष्ठ अध्याय)
आद्योपांत शान्त रस से ओत-प्रोत है जंबूसामि चरिउ । महाकवि वीर ने विभिन्न अनुभावों के प्रयोग द्वारा शान्त रस की हृदयस्पर्शी व्यंजना की है।
माता-पिता के मरण-वियोग से संतप्तहृदय भवदत्त सुधर्म मुनि से धर्म श्रवण करता है
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'यह सम्पूर्ण जगत इन्द्रियों के समान चंचल है, मिथ्यात्व और मोहरूपी अंधकार से अंधा है । जीवन के असि, मसि आदि व्यापार, आहारादि संज्ञाओं में लिप्त, कामातुर तथा सुख की तृष्णा से युक्त है। यह सांसारिक कार्यों में दिन और रात सोकर व्यतीत कर देता है। मरणभय से बचने का असफल प्रयास करता है। मोक्ष सुख की कामना करता है, पर पाता नहीं। यह मनुष्य रूपी पशु भय और काम के वशीभूत हो, संतप्त हुआ तन को जलाता है। 34
'परिग्रह को एकत्र करने में कष्ट होता है और अत्यन्त दुःख से छोड़ा जाता है । दुःख का विनाश करनेवाली निःसंग वृत्ति इसे भारी एवं दुष्कर लगती है। मन को संतोष नही होता । यह लोक विपरीत विवेक से जीता है। यदि देह के भीतर देखता भी है तो भी अभिलाषायुक्त मन