Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 85
________________ 70 अपभ्रंश भारती - 9-10 तुम जैसा समझो वैसा करो (क्योंकि) सिंह तभी तक दहाड़ते हैं, जब तक कि शरभ को नहीं देखते। पत्नी के सामने बहादुरी का बखान करनेवाले लोग अधिक हैं पर सुभट के कार्य को सम्पन्न करनेवाले निश्चय ही विरल हैं। दूसरे के कार्य-भार को निज कंधों पर धारण करनेवाले तो इस जगत में दो-तीन या आप अकेले ही हैं ।24 गगनगति का उक्त कथन युद्ध के लिए उद्यत वीर जंबूकुमार के उत्साहवर्धन के लिए पूर्णरूपेण सक्षम है। गगनगति के उक्त कथन को सुनकर जंबूकुमार रोषपूर्वक हाथ में तलवार उठाकर उसे यह कहते हुए धैर्य बंधाता है- काल के ग्रास (मुख) में आने पर कौन जा सकता है? देवताओं के हाथी (ऐरावत) के दाँतों से कौन झूल सकता है? यम के तुलादंड में अपने को कौन तौल सकता है? आक्रमण किये हुए सिंह के साथ कौन क्रीड़ा कर सकता है? विषफल को अपने मुँह में कौन चबा सकता है? हरि के नाभिकमल को कौन तोड़ सकता है? (और) मृगांक को बंदीगृह में रखकर मुझसे युद्ध करके निमेषमात्र भी कौन जी सकता है ? जंबूकुमार के जोशीले वचनों की गर्जना और पराक्रम का प्रभाव ऐसे सशक्त अनुभाव हैं जो एक ओर तो गगनगति की छिन्न-भिन्न सेना को एकत्र करते हैं, उसके निष्प्राण उत्साह को उदीप्त और पुनरूज्जीवित करते हैं तथा दूसरी ओर अपने विपक्षी रत्नशेखर को पुनः युद्धस्थल में वापिस लौटाते हैं। ___ इस प्रकार यहाँ दृढ़ता, धैर्य, शौर्य, गर्व, पराक्रम, प्रभाव, निर्भयता आदि अनुभाव सामाजिक के उत्साह स्थायी भाव को उबुद्ध कर उन्हें वीररस के सागर में निमग्न कर देते हैं। रौद्ररस के अनुभाव ___ काव्य/नाट्यगत पात्रों को क्रोध से प्रज्वलित देखकर सामाजिक का क्रोध उद्वेलित हो जाता है, तब उसे रौद्ररस की अनुभूति होती है। पात्रों का क्रोध नेत्रों के लाल होने, भ्रकुटी चढ़ाने, दाँतों को पीसने, होठों को चबाने, गालों को फड़काने, मुट्ठियाँ बाँधने, आक्षेप वचन कहने तथा क्रोध के कारणभूत व्यक्ति को मारने-पीटने, प्रहार करने आदि से दिखाई देता है। अत: ये रौद्र रस के अनुभाव हैं। रत्नशेखर की क्रोधोतप्त दशा की सफल अभिव्यंजना के लिए कवि ने इन अनुभावों का प्रयोग किया है। जंबूकुमार रत्नशेखर की सभा में दूत बनकर जाते हैं और उससे पहले न्यायोचित हित की बात कहते हैं फिर दर्पपूर्ण वचन। उसे सुनकर रत्नशेखर की मन:स्थिति रोषपूर्ण हो जाती है- 'जंबूकुमार के वचन सुनते ही खेचर अधिकाधिक रोष से काँपने लगा, (क्रोध के आवेग से) उसका कंठ स्तब्ध हो गया, शिरा-जाल प्रदीप्त हो उठा, विशाल कपोल प्रस्वेद से सिक्त हो गये। ओठों को काटते हुए गुंजा के समान उज्ज्वल (चमकीले) दाँत तथा फड़कते हुए नासापुट से भयानक दिखने लगा। 27 यहाँ पर शरीर का काँपना, कंठ का स्तब्ध होना, शिराजाल का प्रदीप्त होना, दाँतों से अधर काटना, आरक्त नेत्र आदि से ऐसे सटीक अनुभाव हैं जो रत्नशेखर के क्रोध की बर्बरता प्रदर्शित करते हैं । ये सामाजिक के क्रोध-भाव को उबुद्ध कर रौद्र रस की हृदयस्पर्शी अनुभूति कराते हैं।

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