Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10
115 सुमन्द, चंदन, वंदन, साहार, कनेर, वृक्षों का नामोल्लेख किया गया है। इक्यावनवीं संधि में इलायची ताड़, सप्तवर्ण, निध्यात, नाग, विडंग, समुत्तुंग, सप्तच्छद, रक्तचंदन, हल्दी, अतिमुक्त, तालेल, शाल, विशालांजन, वंजुल, निंब, मंदार, कुंदेंद, ससर्ज, अर्जुन, सुरतरु, कदलीकदंब, जम्बीर, जम्बूम्बर, लिम्ब, कोशम्भ, खजूर, कयूर, तारूर, न्यग्रोध, तिलक, नागचेल्ली, वया, पुफ्फली, केतकी, माधवी, सफनस, लवली, श्रीखण्ड, मंदागुरु, इत्थिक, सिहिलका, पुवजीव, अरिष्ट, कोजय, नारिकेल, वई, हरड, हरिताल, कच्चाल, लावंजय, पिक्क, बंधूर, कोरष्ट, वाणिक्ष, वेणु, तिसंझा, मिरी, अल्लका, चिंचा, मधू, कणियारी, सेल्लू, करीर, करंज, अमली, कंगुनी, कंचना, पारिजात, का उल्लेख आया है।
युद्धकाण्ड - सत्तरवीं संधि में कुंद, शतपत्र, हरसिंगार, बेल, वरतिलक, दमण, मरुअ, पिक्का पुष्पों का उल्लेख हुआ है।
उत्तरकाण्ड - इक्यासीवीं संधि में ताली, मौलश्री, तिलक, सज्जन, अर्जुन, धाय, धव, धामन, हिंताल, अंजन, चिंचणी, चपि, बाँस, विष, बेंत, वंदन, तिमिर, ताम्राक्ष, सिंभली, सल्लकी, सेल,
मालिय, कक्कोलय, समी, सामरी, शनि, शीशा, पाडली, पोउली, वाहव, मडवा, मालूर, बहुमोक्ष, सिंदी, बहुवृक्ष, कोसम, जामुन, खिंखणी, राइणी, तोरिणी, तुम्बर, नारियल, करंजाल, दामिणी, कृतवासन, पइउल्ल टेसू, वृक्षों का वर्णन किया गया है। 'पउभचरिउ' में वर्णित पशु तथा पक्षी
विद्याधरकाण्ड - तीसरी संधि में मेष, महिष, वृषभ, हाथी, तक्षक, रीछ, मृग, शम्बर, करभ, वराह, अश्व, हंस, मयूर, शशक, हरिण, वानर, बाघ, गज, गेंडा, गरुड़, क्रौंच, कारण्डवपर, शुंशुमार, मत्स्य का उल्लेख हुआ है । 'आठवीं संधि में सियार तथा कौआ का नाम आया है। तेरहवीं संधि में मेंढक तथा चौदहवीं में कोयल का उल्लेख हुआ है।
उत्तरकाण्ड - इक्यासीवीं संधि में डाँस, मच्छर, सिंह, शरभ, मगर, सुअर, हाथी, उल्लू, अजगर, चींटी, दीमक, शृगाल, अलियल्लि; तिरासीवीं संधि में भेड़िया, नवासीवीं संधि में तोते का उल्लेख हुआ है। 'पउमचरिउ' में वर्णित व्याकरण शास्त्र
अयोध्याकाण्ड, सत्ताईसवीं संधि में प्रकृति को प्रतीक बनाकर व्याकरणिक प्रयोग किया गया है, द्रष्टव्य है - राम, लक्ष्मण वन में प्रवेश करते हैं, उन्हें वट वृक्ष दिखाई देता है जो मानो गुरु (उपाध्याय) का रूप धारणकर पक्षियों को सुंदर स्वर-अक्षर पढ़ा रहा हो। कौआ और किसलय 'क-का' उच्चारण करते हैं । वाउली विहंग 'कि-की' कहते हैं । वनमुर्गा 'कु-कू' का उच्चारण करते हैं और भी मयूर 'के-कै' कहता है। कोयल 'को-कौ' पुकारती है। चातक 'कं-कः' उच्चारण करते हैं।16
युद्धकाण्ड - अट्ठावनवीं संधि में एक उक्ति है जो व्याकरण से भी संबंधित है, द्रष्टव्य है - ओजहीन बातों से मैं उतना ही दूर हूँ जिस प्रकार व्याकरण सुननेवाले और संधि करनेवालों से ऊदन्तादि निपात दूर रहते हैं।"