Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 131
________________ 116 अपभ्रंश भारती - 9-10 इसी संधि में एक योद्धा व्याकरणिक ढंग से अपना परिचय देता है - यदि तुम 'च' शब्द हो तो मैं उसके लिए समास हूँ।18 इसी संधि में अंगद वापस आकर राम-लक्ष्मण से कहता है कि रावण उसी प्रकार संधि नहीं करना चाहता जिस प्रकार 'अभी' शब्द के ईकार की स्वर के साथ संधि नहीं होती। इसी काण्ड में चौसठवीं संधि में भी युद्धस्थल तथा सैनिकों को व्याकरणिक प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया है, द्रष्टव्य है - अपने-अपने वाहनों के साथ, वे सेनायें ऐसे भिड़ गयीं मानों व्याकरण के साध्यमान पद ही आपस में भिड़ गये हों। जैसे व्याकरण के साध्यमान पदों में क ख ग आदि व्यजनों का संग्रह होता है उसी प्रकार सेनाओं के पास लांगूल आदि अस्त्र थे। जैसे व्याकरण में क्रिया और पदच्छेद आदि होते हैं उसी प्रकार सेनाओं में युद्ध हो रहा था। जैसे व्याकरण में संधि तथा स्वर होते हैं उसी प्रकार सेना में स्वरसंधान हो रहा था। जैसे व्याकरण में प्रत्यय विधान होता है उसी प्रकार उन सेनाओं में युद्धानुष्ठान हो रहा था। जैसे व्याकरण में, 'प्र-परा' आदि उपसर्ग होते हैं उसी प्रकार सेनाओं में घोर बाधायें आ रहीं थीं। जैसे व्याकरण में जश् आदि प्रत्यय होते हैं उसी प्रकार उन दोनों सेनाओं में 'यश' (जश्) की इच्छा थी। जिस प्रकार व्याकरण में पद-पद पर लोप होता है उसी प्रकार सेनाओं में शत्रुलोप की होड़ मची हुई थी। जैसे व्याकरण में एकवचन-बहुवचन होता है वैसे ही उन सेनाओं में बहुत-सी ध्वनियाँ हो रही थीं। जिस प्रकार व्याकरण अर्थ से उज्ज्वल होता है उसी प्रकार सेनायें शस्त्रों से उज्ज्वल थीं तथा एक-दूसरे के बल-अबल को जानती थीं। जिस प्रकार व्याकरण में 'न्यास' की व्यवस्था होती है उसी प्रकार सेना में भी थी। जिस प्रकार व्याकरण में बहुत सी भाषाओं का अस्तित्व है उसी प्रकार सेनाओं में तरह-तरह की भाषायें बोली जा रहीं थीं। जैसे व्याकरण में शब्दों का नाश होता है वैसे ही सेनाओं में विनाशलीला मची हुई थी। उन सेनाओं का लगभग व्याकरण के समान आचरण था। दोनों के चरित में निपात था. व्याकरण में आदि निपात था। सेना में योद्धा अंत में धराशायी हो रहे थे।120 'पउमचरिउ' में वर्णित द्यूतक्रीड़ा सुंदरकाण्ड की पैंतालीसवीं संधि में किष्किंध नगर का वर्णन करते हुए उसी संदर्भ में कहा गया है- उसी नगर में कहीं जुए के पासे पड़े हुये थे जो नाट्यगृह और तमाशे के समान थे। युद्धकाण्ड - बासठवीं संधि में मंदोदरी का पिता मय अपने अगले दिन की रणयोजना को द्यूत प्रतीकों के रूप में अपनी पत्नी से कहता है - कल मैं बहुत बड़ा जुआ (स्फरद्यूत) खेलूँगा। भयंकर रणद्यूत (कडित्त) रचाऊँगा और उसमें अपने अमूल्य जीवन की बाजी लगा दूँगा। चार दिशाओं में चतुरंग सेना को लगा दूँगा, खड़िया मिट्टी से लकीर खीचूँगा (खडिया जुत्ति), मैं शत्रु के श्रेष्ठ रथों को आहत कर दूंगा, तलवार रूपी पासा (कत्ति) अपने हाथ में लेकर जयश्री की एक लंबी लकीर खींच दूंगा। सुभटों के धड़ों को इकट्ठा करूँगा तथा शत्रुओं को इस प्रकार खीचूँगा कि उनके पांव ही न रह जायें। मैं दण्डसहित साक्षात् यमराज हूँ।122

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