Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 101
________________ 86 अपभ्रंश भारती - 9-10 फिर से उसकी प्रतिष्ठा व्याप्त हो गई थी। तत्पश्चात् महमूद गजनवी ने मुल्तान पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया और वहाँ के सूर्य-मंदिर को पूर्णतया नष्ट कर उसे जुम्मामसजिद में परिवर्तित करा दिया था। यह घटना सं. 1062 की है।" इस आक्रमण के अनन्तर उसकी वह समृद्धि और तीर्थरूप प्रसिद्धि सदैव के लिए मिट गई थी। इससे प्रतीत होती है कि संदेश-रासक की रचना सं. 1062 से पूर्व हो गई थी। कवि ने 'रासक' के आरम्भ में 'कवि-वन्दना' की है और इसी संदर्भ में आगे कवि ने अपभ्रंश के प्रसिद्ध 'चउमुह' (चतुर्मुख) का उल्लेख किया है। 'चउमुह' के साथ ही 'सेसा' का भी नाम आया है। यह 'सेसा' शब्द अपभ्रंश के महाकवि 'स्वयंभू' के लिए आया है, क्योंकि स्वयंभू का एक कीर्ति नाम 'शेष' पड़ गया था। इसीलिए लोक में स्वयंभू 'सेस' नाम से परिचित थे। कारण कि स्वयंभू का काव्य- 'विकट बंध-सुछंद-सरसता' के लिए प्रसिद्ध है और उक्त विशेषण स्वयंभू के काव्य के लिए ही व्यवहत हुए हैं। कवि के साथ ही 'तिहुयण' का नाम भी कौशलपूर्वक लिया है। 'त्रिभुवन' महाकवि स्वयंभू के पुत्र थे जो त्रिभुवन स्वयंभू के रूप में प्रसिद्ध हुए। कवि स्वयंभू का समय 840-920 ई. अनुमानित किया गया है और उनके पुत्र त्रिभुवन का समय बाह्य साक्ष्यों के आधार पर 893 से 943 ई. के आस-पास तक माना गया है। ___ आचार्य हजारीप्रसादजी द्विवेदी ने इस संबंध में पर्याप्त विचारणा की है। उनके विचारानुसार त्रिभुवन, अद्दहमाण के थोड़े ही पूर्ववर्ती थे या समसामयिक थे और स्वयंभू अधिक पूर्ववर्ती । इसीलिए उन्होंने त्रिभुवन के लिए तो 'दिट्ठ, (देखा है) का प्रयोग किया है और स्वयंभू के काव्य के लिए 'सुअ' (सुना हुआ) कहा है। चूँकि त्रिभुवन का समय विक्रम की 10वीं शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है, अत: अद्दहमाण का समय विक्रम की 11वीं शती का पूर्वार्द्ध मानने में कोई अड़चन नहीं है। इस प्रकार कवि का समय विक्रम की 11वीं शती का पूर्वार्द्ध ठहरता है और यही समय 'संदेश-रासक' के रचे जाने का है, जो सब प्रकार से संगतिमूलक है। 1. यद्यपि फारसी के तजकिरों में भाषा के प्रथम मुसलमान कवि के रूप में मसऊद सअद सलमान का उल्लेख मिलता है, किन्तु उसकी रचनाएँ अप्राप्य हैं। 2. उक्त प्रतियां इस प्रकार हैं- (1) पाटन-भण्डार की मूल पाठवाली प्रति (2) पूना स्थित भण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट की मूल पाठ एवं संस्कृत अवचूरिकावाली प्रति (3) मारवाड़ स्थित लोहावत की मूल पाठ सहित संस्कृत टिप्पणीवाली प्रति। यह संस्कृत टिप्पणी लक्ष्मीचन्द नामक जैन साधु ने सं. 1465 वि. में लिखी थी। 'संदेश-रासक' के मुद्रण कार्य की लगभग समाप्ति पर श्री अगरचन्द नाहटा ने इसकी एक अन्य अपूर्ण प्रति मुनिजी के पास भेजी थी; जिसमें संस्कृत-वर्तिका भी दी हुई है। यह बीकानेर की प्रति कहलाती है। इस प्रकार इस संस्करण के समय मुनिजी को इन्हीं चार प्रतियों का पता लग सका था। (4) इस संस्करण में जयपुर से प्राप्त संदेश-रासक' की एक अन्य महत्वपूर्ण प्रति का

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