Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
9-10
से बताते हैं, जो युक्ति-संगत नहीं । प्राकृत 'उव्वाओ' से 'ऊबना' या 'उबाना' की भाषिक विकास-यात्रा कहीं ज्यादा सहज प्रतीत होती है। द्वित्व 'व' का लोप, 'वा' में से 'T' (आ) का लोप (उबाना में नहीं), फिर 'ओ' के स्थान पर 'ना' का आगम होने से हिन्दी का देशज शब्द 'ऊबना' बनता है ।
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ओड्ढणं (प्रा.) > ओढ़ना / नी (हि.)
इसके लिए संस्कृत में 'उत्तरीय' शब्द चलता है, जबकि अंगरेजी में रैपर (Wrapper)। यह क्रिया के साथ-साथ संज्ञा भी है। 'नी' लगाकर इसे ऊनार्थक (Diminutive) स्त्रीलिंग रूप दिया गया है। जो हो, 'उत्तरीय' और 'ओढ़ना/नी' के बीच कहीं कोई भाषिक तारतम्य नहीं मिलता। इसके विपरीत 'ओढ़ना', 'ओड्ढणं' के काफी करीब ठहरता है। इसका विकास-क्रम यों बनता है – ‘ड' का लोप, मुख-सुख के कारण 'ढ' का बिन्दु-युक्त होकर महाप्राण घोष मूर्द्धन्य उत्क्षिप्त स्पर्शी ध्वनि 'ढ़' में तब्दील हो जाना, 'णं' की अनुनासिक्यता की जगह विवृत स्वर 'आ' का आगम या अनुस्वार की 'आ' में अज्ञातरूपेण परिणति । अंत में मूर्धन्य ध्वनि 'ण' का उच्चारण- सौकर्य के आधार पर 'दंत्य' 'न' में परिवर्तन ।
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प्रो. रामसरूप शास्त्री द्वारा 'ओढ़ना' के लिए ' आ + ऊढ़' शब्द की दूरारूढ़ कल्पना से कोई अंतर पड़नेवाला नहीं है ।
लगे हाथ, ज्ञातव्य है कि डॉ. धीरेन्द्र वर्मा उत्क्षिप्त (ध्वनि) 'ढ़' को हिन्दी की अपनी नई ध्वनि मानते हैं, जबकि डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार, इसका विकास ईसा की पहली सदी, अर्थात्, प्राकृत-काल में हो गया था ।
ओज्झर (प्रा.) > ओज्झर / ओझराहा (हि.)
संस्कृत में इसके लिए 'अंत्रावरणम्' शब्द मिलता है। लेकिन, इससे 'ओज्झर' या 'ओझराहा' का कोई संबंध-सूत्र जुड़ता नजर नहीं आता। हिन्दी में 'ओज्झर' या 'ओझराहा' शब्द का अर्थ 'उलझा हुआ' (Confused/intermingled/intricate) या 'उलझाने वाला' ( व्यक्ति या काम के अर्थ में) होता है । 'ओज्झर' से, 'ओज्झर' के विकास में तो नहीं, हाँ 'ओझराहा' के विकास में 'ज्' का लोप 'रा' में 'T' (आ) के आगम के साथ-साथ अंत्य व्यंजन 'हा' (प्रत्ययमूलक) का आगम हुआ है, जो स्वाभाविक है ।
काहारो (प्रा.)> कहार (हि.)
हिन्दी का जातिवाचक शब्द ( पानी आदि ढोनेवाली जाति) 'कहार' प्राकृत के 'काहारो' का सहज सरलीकृत रूप है। इसके विपरीत जहाँ डॉ. भोलानाथ तिवारी ने इसका संबंध संस्कृत शब्द 'स्कंधभार' से जोड़ा है, वहाँ प्रो. रामसरूप शास्त्री ने 'कंहार' से। दोनों ने ही दूर क
ड़ी लाने का प्रयास किया है। डॉ. तिवारी ने 'स्कंधभार' से 'कहार' बनने की भाषिक प्रक्रिया का बिलकुल संक्षेप में उल्लेख किया है - सिर्फ तीन अवस्थाएँ। मेरे अनुसार संभावित क्रम यों हो सकता है - स्कंधभार कंधभार कन्हहार>काहार कहार । और भी, लंबी प्रक्रिया हो