Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10
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करिकं भविम्भमं जइ तीसे वच्छत्थलं जंपामो। तो चम्मथारयाफा सफरुसया ठाविया होइ। विल्लहलकमलनालोवंमाउ बाहाउ तीएँ जो कहइ। तो तिक्खकंट चाहिट्ठियत्तदोसं पयासेइ। किंकिल्लिपल्लवेहिं तुल्ला करपल्लवि ति बिंतेहि।
नियमा निम्मलनहमणिमंडणयं होइ अंतरियं । अर्थात् यदि उसके मुख को चन्द्रमा के समान कहा जाए तो चन्द्रमा में कलंक रहता है। अत: मुख पर भी कलंक का आरोप हो जाएगा। यदि शंख के समान उसकी गर्दन कही जाए तो शंख वक्र होता है। अत: उसकी ग्रीवा में भी वक्रत्व आ जाएगा। यदि उसके वक्षस्थल को करिकुम्भ के समान कहा जो तो उसमें रुक्ष स्पर्श का दोष आ जाएगा। उसकी बाहुओं को कमलनाल कहा जाए तो तीक्ष्ण कण्टक कमलनाल में रहने से उसकी बाहुओं में दोष आ जाएगा। यदि हाथ की हथेलियों को अशोक-पल्लव कहा जाए तो भी उचित नहीं है। वस्तुतः नम्मयासुन्दरी (नर्मदासुन्दरी) संसार की समस्त सुन्दर वस्तुओं के सार भाग से निर्मित हुई थी।
इसी तरह, कविवर विद्यापति श्रीकृष्ण की उपमा ढूँढते-ढूँढ़ते थक जाते हैं । अन्त में, हारकर कह उठते हैं - "तोहर सरिस एक तोहें माधव मन होइछे अनुमाने"। तुलनीय पद द्रष्टव्य है -
माधव कत तोर करब बड़ाई। उपमा तोहर कहब ककरां हम, कहितहुँ अधिक लजाई। जओ सिरिखण्ड सौरभ अति दुरलभ, तओपुनिकाठ कठोरे । जओ जगदीश निसाकर तओ पुनि एकहि पच्छ उजोरे। मान-समान अओरे नहिं दोसर, ताकर पाथर नामे। कनक कदलि छोट लज्जित भए रहु की कहु ठामक डामे।
तोहर सरिस एक तोहें माधव मन होइछे अनुमाने। अर्थात् हे माधव! तुम्हारी कितनी बड़ाई करूँ। तुम्हारी उपमा जिससे दूँ ? कहते भी लज्जा आती है। यदि चन्दन की दुर्लभ सुगन्ध की बात करूँ तो फिर वह कठोर काठ मात्र है। यदि चन्द्रमा को जगत् का प्रभु माना जाय तो एक ही पक्ष में उजाला रहता है। मणि के समान बहुमूल्य पदार्थ कौन है? आखिर वह पत्थर ही है। स्वर्ण-कदली होने के कारण ठमक कर रह जाती है। मेरे मन में यह अनुमान होता है कि तुम्हारे समान एक तुम्ही हो।
उपर्युक्त उदाहरणों में प्रथम उदाहरण दसवीं शताब्दी के प्राकृत रचनाकार राजशेखर के सट्टक 'कपूरमञ्जरी' से उद्धृत है और द्वितीय बारहवीं शताब्दी के रचनाकार महेन्द्र सूरि की 'निम्मयासुन्दरी कहा' से। इन रचनाकारों से शताब्दियों के अन्तराल के पश्चात् आनेवाले हिन्दीभाषा के कवि विद्यापति (1460 विक्रम संवत्) की रचनाओं की शैली, भाव एवं उनका औपम्यविधान इत्यादि प्राकृत से प्रभावित ही नहीं, बल्कि कहीं-कहीं तो उसकी प्रतिछवि प्रतीत होती है।