Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10
अक्खि
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा प्राकृत - अपभ्रंश
संस्कृत कौड़ी कवड्डिआ
कपर्दिका मोती मोत्तिय
मौक्तिक भीत भित्त
भित्ति ओठ/होठ ओट्ठ
ओष्ठ आँख
अक्षि जहाँ तक हिन्दी के देशी/देशज शब्द-भंडार का प्रश्न है, उसका विकास-सूत्र संस्कृत से नहीं जोड़ा जा सकता। आदतन हम उसका संबंध संस्कृत से स्थापित करने का असफल प्रयास करते रहते हैं। ऐसे शब्द या तो किसी और स्रोत से या फिर हिन्दी में ही किसी तरह 'नदी के द्वीप' की तरह उभर आये हैं।'
सचाई तो यह है कि देशी/देशज शब्द, देश-सापेक्ष के साथ-साथ काल-सापेक्ष भी है। कभी यह नाम 'देशी भाषा''प्राकृत' को मिला तो कभी अपभ्रंश को, कहीं और कभी अवधी, ब्रजभाषा, मगही, भोजपुरी और अंगिका को भी। ज्ञातव्य है कि अंगजनपद के भोजपुरी-भाषी इस जनपद की स्थानीय भाषा/बोली 'अंगिका' को 'देशी' ही कहते हैं । इस धारणा के विपरीत संस्कृत और प्राकृत के विद्वान् आचार्य हेमचंद्र के मतानुसार, "अनादि काल से प्रचलित प्राकृत भाषा ही देशी है। उनके अनुसार, जो शब्द न तो व्याकरण से व्युत्पन्न हैं और न संस्कृत-कोशों में निबद्ध हैं तथा लक्षणा-शक्ति के द्वारा भी जिनका अर्थ प्रसिद्ध नहीं है, देशी कहलाते हैं। डॉ. भोलानाथ तिवारी इसे देशी/देशज कहने के बजाय 'अज्ञात व्युत्पतिक' कहना उचित समझते हैं..." । देशज माने जानेवाले शब्द देशज हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं। वास्तविक स्थिति यह है कि ये अज्ञात व्युत्पति के हैं। अतः इन्हें अज्ञातव्युत्पतिक कहना ही मेरे विचार में वैज्ञानिक है, क्योंकि यह असंभव नहीं कि इनमें अनुकरणात्मक, दूसरी भाषाओं से गृहीत तद्भव या यहाँ तक कि यद्यपि बहुत ही कम तत्सम शब्द छिपे हों। हम जानते हैं कि हेमचंद्र द्वारा स्वीकृत देशज शब्दों में अनेक तद्भव या विदेशी सिद्ध हो चुके हैं।
हिन्दी में कुछ ऐसे देशज शब्द प्रचलित हैं जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत के आधार पर सिद्ध नहीं की जा सकती। ऐसे शब्दों का सीधा संबंध मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा, विशेषतः प्राकृत से प्रमाणित होता है। ये शब्द हैं - उथल-पुथल, उलटा, उड़ीस, उड़द, ऊबना, ओढ़ना/नी, ओजदार/ओझराहा, कहार, कोयला, कोल्हू, खिड़की, चावल, झमेला, झाड़, झूठ, ठल्ला (निठल्ला), डाली, डौआ, ढेकी, ढकनी, तागा इत्यादि। उत्थल्ल-पत्थल्ल (प्रा.) > उथल-पुथल (हि.)
संस्कृत में इसके लिए विपर्ययः, विपर्यासः, पार्श्वद्वयेन, परिवर्तनम् इत्यादि शब्द चलते हैं; और जाहिर है, इनमें से एक भी उथल-पुथल' से संबद्ध प्रतीत नहीं होता। इसके विपरीत, प्राकृत से इसका सीधा और सहज संबंध ठहरता है।