Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10
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बाहर ही रह जाता है। हाथ में डंडा लेकर कौए उड़ाने जैसे व्यर्थ कामों में अपना जीवन नष्ट कर देता है।'35
यहाँ संसार की असारतारूप गुरु का धर्मोपदेश अनुभाव है । इस अनुभाव से भवदत्त का शम स्थायी भाव उबुद्ध हो जाता है असार संसार में अब तक बिताये गये अपने जीवन/समय पर पश्चाताप होता है । वह विषय-कषायों का त्याग कर गुरु से दीक्षा ग्रहण कर परम दिगम्बर मुनि बन जाता है। यही सहृदय के शम स्थायी भाव को जगाकर शान्त रस की अनुभूति कराता है।
तन से योगी पर मन से भोगी मुनि भवदेव जब अपने गृहस्थावस्था के नगर में जाते हैं तो अवसर पाकर घर की ओर प्रस्थान करते हैं । वहाँ एक नवनिर्मित चैत्यालय देखकर जिन प्रतिमा की वंदना कर वहीं स्थित तपस्विनी स्त्री से अपनी पत्नी नागवस व घर के बारे में पछते हैं. वह तपस्विनी स्त्री व्रत से विचलित अपने पति मुनि भवदेव को पहचानकर उनकी पापमति/दुर्भावना दूर करने हेतु तथा अपने धर्म में स्थिर करने के लिए अपना परिचय दिये बिना ही गंभीरतापूर्वक सविनय तत्त्वज्ञान प्रेरक प्रत्युत्तर देती है जो इस प्रकार है - 'हे त्रिभुवन-तिलक श्रमण! आप धन्य हैं जो सुख के धाम ऐसे जिन दर्शन को प्राप्त किया है। इस युवास्था में इन्द्रियों का दमन किया है। यदि परिगलित/वृद्धावस्था में विषयाभिलाषाएं शान्त हो जाती हैं (तो कोई आश्चर्य नहीं) ऐसा आपके अतिरिक्त और कौन दिखाई देता है? '36, रत्न देकर कांच कौन लेता है? पीतल के लिए स्वर्ण कौन बेचता है? स्वर्ग तथा अपवर्ग/मोक्ष-सुख को छोड़कर रौरव नरक में कौन प्रवेश करता है? कौन ऋषि अपने स्वाध्याय (चिंतन)की हानि करता है?'37
· आगे फिर कहा - 'आप जिस नागवसू की पूछ रहे हैं उसके लावण्य/सौन्दर्यस्वरूप को सुनिये, उसका सिर नारियल के समान मुड़ा हुआ है। मुख लारयुक्त हो गया है, वाणी घरघराती है, नेत्र जल के बुलबुले के समान हो गये हैं, तालु ने अपना स्थान छोड़ दिया है, चिबुक, ललाट, कपोल, त्वचा आदि वायु से आहत हो रण-रण शब्द करते हैं । (अर्थात् सारा शरीर झुर्रायुक्त शिथिल होकर काँपता रहता है) यह शरीररूपी घर मांस और रक्त से रहित होकर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया है। मेरे शरीर के प्रतिरूप को देखो और हृदय को निःशल्य करो।'38
गुरु की भक्ति, वन्दना, प्रशंसा, कर्त्तव्याकर्त्तव्य, हेय-उपादेय, योग्य-अयोग्य का बोध कराने के लिए तथा स्त्री के प्रति राग नष्ट करने हेतु वृद्धावस्था का यथार्थ चित्रण करनेवाली अनुभावों की शब्दसंरचना इतनी हृदयस्पर्शी है कि भवदेव मुनि अपने कृत पर लज्जित होता है उनका स्त्री आदि पर पदार्थों से मोह/विकल्पजाल शीघ्र ही टूट जाता है, सत्यस्वरूप का बोध होता है, इन्द्रिय विषय-भोगों के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है। वे आत्मनिंदा कर व प्रायश्चित्तादिपूर्वक पुनः दीक्षा लेकर सच्चे मुनि बनकर तपश्चरण करते हैं। इस प्रकार ये अनुभाव जहाँ भवदेव को समतारस का पान कराते हैं वहीं सामाजिक के 'शम' स्थायी भाव को उबुद्ध कर शान्त रस के सागर में निमग्न कर देते हैं।