Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10
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के समान समस्त भूमण्डल (कु-वलय) को प्रिय थी। सुलक्षणा और अलंकारवती वह सेठानी उसी प्रकार जन-मन को आकृष्ट करती थी जिस प्रकार सुकवि-कृत लक्षणा आदि काव्यगुणों से युक्त अलंकारभूयिष्ठ कथा पाठकों के मन को आवर्जित करती है। कुंकुम (केसर) और कपूर से प्रसाधित तथा तिलक और अंजन से अलंकृत वह सेठानी उस वनराजि के समान सुशोभित थी जो कुंकुम, कपूर, तिलक और अंजन-वृक्षों से व्याप्त हो।
कवि श्री मुनि नयनन्दी के प्रस्तुत अवतरण में सेठानी के सौन्दर्य-वर्णन के व्याज से श्लेषगर्भ काव्य-सौन्दर्य का चमत्कार उत्पन्न किया गया है । 'रयणावली' शब्द के प्रयोग से 'रदनावली' और 'रत्नावली' दोनों की अर्थच्छाया की प्रतीति होती है और फिर, कुंकुम, कपूर, तिलक और अंजन से वृक्षराजि का अर्थ भी धोतित होता है। ___ काव्यकार मुनिश्री नारी-सौन्दर्य के समानान्तर पुरुष-सौन्दर्य का भी उदात्त चित्र आँकने में कुशल हैं । यहाँ पुरुष-सौन्दर्य का एक मनोरम चित्र दर्शनीय है, जो सेठ सुदर्शन की शारीरिक संरचना के रूप में उपन्यस्त किया गया है -
जस्स णीलनिद्ध केसु, आयवत्तवित्तु सीसु। दिव्वउण्णयं विसालु, अद्धयंदतुल्ल भालु। सुंदराउ भूलयाउ, णं दुहंडु-कामचाउ। चंचलच्छिदंयु रम्मु, कीलरं व मच्छजुम्मु। कुँडलेहिं जुत्त कण्ण, सोह दिति का वि अण्ण। चंपहुल्लणासवंसु, मच्चलोयमज्झि संसु। सद्ध णिद्ध दंतपंति, मोत्तियाण दिण्णभंति। पक्काबिंब्ववण्ण होछ, किं ण होति लच्छिइट्ठ। आणणं विहाड रुंद. णं निरब्भपण्णमिंद। कंठमझु सु१ भाइ, तिण्णिरेह संखुणाइ। सुप्पयंड बाहुदंड, णं सुरिंदहत्थि सुंड। जित्तसोयवत्त हत्थ, वज्जचूरणे समत्थ। वच्छु चक्कलं विहाइ, लच्छिकीलहम्मु णाइ। मज्झएसु मुट्ठिगेज्यु, णाइँ वजदंडमज्झु। सुग्गहीरु णाहिवेहु, णं अणंगसप्पगेहु। सण्णियंबु सोहगीढु, णाइँ कामरायपीढु। दो विपीण जंघियाउ, ऊवमाविवज्जियाउ। गूढगुप्फया सहंति, णाइँ कामरायमंति। कुम्मयार हेमछाय, दीहअंगुलिल्ल पाय।
भासए णहाण पंक्ति, छंदओ समाणियंति। (3.10) अर्थात्, युवक सुदर्शन के बाल काले और चिकने थे। सिर छत्र के समान गोलाकार था। अर्द्धचन्द्र के समान उनका भाल दिव्य, उन्नत और विशाल था। भ्रू-लताएँ कामधनु के दो खण्ड