Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 63
________________ 48 अपभ्रंश भारती सौन्दर्य-समायोजन महाकवि कालिदास की भाँति मुनिश्री नयनन्दी की भी सौन्दर्यमूलक मान्यता वस्तुनिष्ठ सौन्दर्य के समर्थक पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्रियों के समानान्तर है । पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्रियों का मत है कि सौन्दर्य वस्तु में होता है, दृष्टा के मन में नहीं । अतः जो वस्तु सुन्दर है, वह सर्वदा और सर्वत्र सुन्दर है। संस्कृत में कहावत भी है - 'सुन्दरे किं न सुन्दरम्' कालिदास ने भी आश्रमवासिनी शकुन्तला के सन्दर्भ में इस मत को, यानी वस्तुनिष्ठ सौन्दर्यवाद को स्वीकार किया है। उनका कथन है कि जिस प्रकार सेंवार से लिपटी रहने पर भी कमलिनी रमणीय प्रतीत होती है, चन्द्रमा का मलिन कलंक भी उसकी शोभा बढ़ाता है । उसी प्रकार तन्वंगी शकुन्तला भी केवल वल्कल पहने रहने पर भी अधिक मनोज्ञ लगती है, इसलिए कि मधुर या सुन्दर आकृतिवालों के लिए अलंकरण की आवश्यकता ही क्या है ? - 9-10 सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मीं इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ॥ (अभिज्ञानशाकुन्तलम्, 1.19 ) रम्यं तनोति । तन्वी मुनिश्री नयनन्दी ने भी सागरदत्त सेठ की पुत्री और सेठ सुदर्शन की पत्नी सर्वांग सुन्दरी मनोरमा के मोहक आंगिक सौन्दर्य का जो विस्तृत वर्णन किया है, उससे स्पष्ट है कि अनलंकृत होते हुए भी उस सुकुमारी बाला का सुन्दर रूप विस्मयकारी था । इसलिए, सुदर्शन सेठ उसे देखते ही विस्मित हो जिज्ञासा से भर उठा था सोमालियह तह बालियह रूउ णियच्छिवि सुहयरु । विंभियमणेण सुहदंसणेण पुणु आउच्छिउ सहयरु ॥ — 4.3.3 सौन्दर्य-विवेचन में, विशेषतः नख-शिख के सौन्दर्योद्भावन में कवि श्री मुनि नयनन्दी ने उदात्तता (सब्लाइमेशन) का भरपूर विनियोग किया । सेठ ऋषभदास की सेठानी अर्हद्दासी के सौन्दर्यांकन में कवि श्री ने उदात्तता से काम लिया है। उनके द्वारा प्रस्तुत सेठानी के अविनिन्दित और अलंकृत उदात्त सौन्दर्य की मनःप्रसादक झाँकी द्रष्टव्य है दीहरच्छि रयणावलि भासिय, णं धम्महँ णयरी आवासिय । अइपसण्ण कंतिल्ल सुहावह, ससिरेहा इव कुवलयवल्लह । लक्खणवंति य सालंकारिय, सुकइकहा इव जणमणहारिय । कुंकुमकप्पूरेण पसाहिय, वनराई व तिलयंजणसोहिय । (2.6) अर्थात्, बड़ी-बड़ी और लम्बी आँखोंवाली वह सेठानी अपनी रमणीय दन्तपंक्ति (रदनावली से इस प्रकार सुशोभित हो रही थी, मानो रत्नत्रय की पंक्ति (रत्नावली) से सुशोभित धर्म कं नगरी हो । अतिशय प्रसन्न, कान्तिमती और सुख देनेवाली शोभा से मण्डित सेठानी चन्द्रलेख I

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