Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10
यह समाचार मिलने पर माली आकर प्रसन्न होता है और उसे घर लिवा लाता है- 'तहो वयणु सुणेविणु सवणरम्मु, संचल्लिय कामिणि तासु हम्मु।' घर पर माली की पत्नी उसके रूपसौन्दर्य को देखती रह जाती है। इसी बीच कवि नख-शिख-वर्णन का सुन्दर अवसर पाता है (1.16, 1-10) । मुनि कनकामर के इस नख-शिख-निरूपण के देखकर बरबस आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है कि इनके कवि की रसिकता का मर्म निसंदेह बड़ा रहस्यमय है । नूतन उपमानों की नियोजना और उनके सहारे, गत्यात्मक सौन्दर्य की सृष्टि सचमुच इन वीतरागी महात्माओं की काव्य को अनूठी देन है । लोकानुभूतिका ऐसा मधुर संस्पर्श सचमुच अपभ्रंश-काल की अपनी अनूठी-अछूती विशेषता है । हेमचन्द्राचार्य के दोहों में भी यह लावण्य, बारीकी और चित्रात्मकता नहीं है। . बस, पद्मावती के इसी अप्रतिहत सौन्दर्य के कारण माली की पत्नी को ईर्ष्या हो जाती है'ता कलहु करेविणु मइँ मेल्लेविणु णिच्छउ माणइ एह; पुणु'। और दोष देकर उसे घर से निकाल देती है- 'दोसु देवि यल्लियाइँ'। सपत्नी-दाह की यह कथानक-रूढ़ि प्रेमाख्यानों और लौकिककहानियों में बहुधा प्रयुक्त होती है। लोक में वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है- 'सौत चून की भी बुरी'। परन्तु जिसके प्रति ईर्ष्या होती है, उस नारी में संयम और धैर्य देखा जाता है, जिससे उसका भविष्य उज्ज्वल ही निकलता है। हिन्दी के सूफी-प्रेमाख्यानों में इस कथा-रूढ़ि का बहुत प्रयोग हुआ है। अनेक पौराणिक कथाओं में भी इसका उल्लेख है। पदमावती इस प्रकार घर से निकलकर श्मशान में पहुँचती है । तुरंत कवि उसके नारीत्व की परीक्षा के लिए श्मशान के भयंकर
वेश का वर्णन करता है (1.17.5-9)। वहीं श्मशान में रानी एक पत्र को जन्म देती है और तत्काल एक मातंग आकर पुत्र को अपमी क्रोड में ले लेता है। रानी रुदन करती है, परंतु वह अपने शाप के निस्तारण के लिए ऐसा करता है और पूर्व-जन्म की कथा सुनाता है। रानी यह सनकर शांत होती है (2.2-4.10) । वही मातंग पत्र का पालन करता है और कथा आगे बढती है। कथाकार अनेक नीतिपरक कहानियों को कहकर उसे ढाँढस बँधाता है। ___ इस प्रकार कहीं कथा के प्रवाह में बाधा होने पर ये कथानक-रूढ़ियाँ उसे सहजता-सरसता के साथ गतिशील करती हैं, कहीं कथा में पूर्ण विराम आता हआ देखकर कथा को नतन प्रसंग की उद्भावना के साथ आगे बढ़ाती हैं. कहीं रोचकता की सृष्टिकर कथा को अधिक रम्य बना देती हैं । कहीं पूर्व-जन्म की कथाओं के सहारे मूल-कथा के प्रसंगों को जोड़कर उन्हें बल प्रदान करती हैं। कहीं मानवेतर जीवों की धार्मिक-भावना से मनुष्य को धर्म-परायण होने या बनने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। कहीं सत्संगति के लाभ से अवगत कराकर कुसंगति से बचने की प्रेरणा देती है। और कहीं लौकिक-अलौकिक जीवन के असाध्य रहस्यों को खोलती हैं ; कहीं कथा-संघटन में विशेष मोड़ देकर घटना को प्रयोजन-सिद्धि के लिए उपयुक्त बनाती है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है इन भिन्न-भिन्न कथानक-रूढ़ियों के प्रयोग से मुनि कनकामर के 'करकंडचरिउ' में उसके कथा-संगठन, वस्तु-निरूपण, मौलिक प्रसंगोद्भावना, शिल्प एवं