Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
- 9-10
अक्टूबर 1997, अक्टूबर - 1998
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जंबूसामिचरिउ में अनुभाव योजना
- डॉ. (कु.) आराधना जैन 'स्वतंत्र'
रसात्मकता काव्य का प्राण है। रसानुभूति के माध्यम से ही सामाजिकों को कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का उपदेश हृदयंगम कराया जा सकता है। इसलिए कान्तासम्मित उपदेश को काव्य का प्रमुख प्रयोजन माना गया है। महाकवि वीर इस तथ्य से पूरी तरह अवगत थे । उन्होंने अपने काव्य में शृंगार से शान्त तक सभी रसों की मनोहारी व्यंजना की है ।
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रस को व्यंजित करने की कला कवि के काव्य-कौशल की कसौटी है । रससिद्ध कवि वही माना जाता है जिसका रस-सामग्री-संयोजन अर्थात् विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भावों का विन्यास सटीक, स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक हो । इसके लिए कवि को विभावादि का सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक है और आवश्यक है उचित पात्र में उचित स्थान तथा उचित समय पर इन्हें प्रयुक्त करने की सूझबूझ ।' वीर कवि में ये सभी गुण उपलब्ध होते हैं ।
विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव रस के उपादान हैं। क्योंकि इन तीनों के दर्शन होने पर सहृदय सामाजिक को पात्रों में जागे रति, हास, शोक आदि स्थायी भावों का बोध होता है और उससे उसका स्वकीय रति आदि स्थायी भाव उबुद्ध होकर रसानुभूति में परिणत हो जाता है।
वास्तविक जीवन में जिन पदार्थों के निमित्त से मनुष्य के मन में सोये काम, क्रोध, भय, शोक आदि भाव जाग उठते हैं वे काव्य-नाट्य में प्रदर्शित होने पर विभाव कहलाते हैं और जिन