Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
View full book text
________________
52
अपभ्रंश भारती - 9-10
छणससिवयणु कुसुमसरगुणहरु - वह पूर्णचन्द्रमुखी कामधनु की प्रत्यंचा थी (1.5);
णहसिरितियाहे पहावंतियाहे, रविकणय-कुंभु ल्हसियउ सुसुंभु - (सूर्यास्त के समय सूर्य ऐसा प्रतीत हो रहा है) मानों नभश्री-रूप स्त्री के स्नान करते समय उसका रवि-रूप मनोहर कनक-कुम्भ (स्तन) खिसक पड़ा हो (5.7);
कोसुमगुंछु व गयणासोयहो - (सूर्योदय के समय सूर्य ऐसा लगता है) जैसे वह आकाशरूप अशोक वृक्ष का पुष्पगुच्छ हो (5.10);
तरइ क वि तरुणि अइतरल सहरि व जलं - अतिशय चंचल शफरी (मछली) जैसी तरुणी (जलक्रीड़ा करते समय) जल में तैरती है (7.18);
जुण्ण-देवकुलिया-सरिस अभया - शोभाहीन जीर्ण देवकुटी जैसी रानी अभया (8.1) आदि।
उपर्युक्त समस्त प्रयोग पंचेन्द्रियग्राह्य बिम्बों में प्रमुख विशेषतः चाक्षुष बिम्बों के उत्तम निदर्शन हैं। इनमें काव्यकार की सूक्ष्म भावनाओं और रमणीय कल्पनाओं या फिर अमूर्तअप्रस्तुत सहजानुभूतियों को बिम्ब-विनियोग द्वारा मूर्त्तता या अभिव्यक्ति की चारुता प्राप्त हुई है। ये सभी बिम्ब सृष्टा की चिन्तानुकूलता से आश्लिष्ट हैं, इसलिए चित्रात्मक होने के साथ ही अतिशय भव्य और रसनीय हैं।
पी. एन. सिन्हा कॉलोनी भिखना पहाड़ी, पटना 800006