Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 69
________________ 54 अपभ्रंश भारती - 9-10 साहित्य का यह अंग सामान्य लोक-जीवन के गहरे संपर्क में रहा है और, सच बात तो यह है कि सामान्य जन-जीवन की बात को लोक-भाषा में कहने और खुलकर अभिव्यक्त करने का यह प्रथम अवसर था। इस विचार से अपभ्रंश के इन जैन-कवियों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। ___ 'करकण्डचरिउ' में लोक-जीवन और संस्कृति का पूरा पुट देखा जाता है और लगता है यह किसी विख्यात लोक-नायक की कथा है । बौद्ध-साहित्य के कुंभकार-जातक में भी करंड नामक राजा की कथा मिलती है। और फिर अपभ्रंश का समचा कथा-साहित्य तो लोक-भावभूमि पर ही खड़ा है। लोक-कथा या गाथाओं में रोचकता की सृष्टि के लिए प्रयुक्त हुए विविध कला-तन्तु जब पुन:-पुनः प्रयोग में आने से रूढ हो जाते हैं. तब उन्हें कथानक-रूढि या अभिप्राय कहा जाता है। अति प्राकृत एवं अलौकिक होने पर भी ये जीवनगत संभाव्य या यथार्थ तः विच्छिन्न नहीं होते और हमारे लोक-विश्वास, आस्था तथा साहित्यिक-परम्परा में इस प्रकार संपृक्त हो जाते हैं कि एक बार अपने मृदुल प्रभाव से अवश्य अभिभूत करते हैं।' पश्चिम में इनके लिए 'मोटिफ' (Motif) शब्द का प्रयोग होता है । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में -'हमारे देश के साहित्य में कथानक को गति और घुमाव देने के लिए कुछ ऐसे अभिप्राय बहुत दीर्घकाल से व्यहत होते आये हैं जो बहुत थोड़ी दूर तक यथार्थ होते हैं और जो आगे चलकर कथानक-रूढ़ियों में बदल गये हैं।' मूल-स्रोत की दृष्टि से इन कथानक-रूढ़ियों को दो वर्गों में रखा जा सकता है - (1) लोक-विश्वास पर आधारित और (2) कवि-कल्पित। प्रथम अधिकतर असंभव प्रतीत होनेवाली, अवैज्ञानिक और भ्रम पर आधारित होती हैं ; पर लोक-जीवन में उनकी प्रतिष्ठा कभीन-कभी सत्य के रूप में रहती अवश्य है। लेकिन, कवि-कलिप्त रूढ़ियाँ केवल अलौकिकता और चमत्कार उत्पन्न करने के लिए होती हैं । पुनः इनको अनेक भेदों में विभक्त किया जा सकता है, यथा-धर्म-गाथाओं से संबद्ध, वीर गीतों में प्रयुक्त, निजधरी कथाओं में परिबद्ध, लोककथाओं और लौकिक प्रेमाख्यानों में निरूपित। इन कथानक-रूढ़ियों का न्यूनाधिक प्रयोग यों तो अपभ्रंश की ऐसी सभी प्रबंधात्मक कृतियों में मिलता है; परन्तु मुनि कनकामर-रचित करकण्डचरिउ' इस दृष्टि से सर्वाधिक समृद्ध रचना है। करकंड की कथा इस प्रबंध में दस संधियों में निबद्ध है। प्रत्येक संधि अनेक कड़वकों से मिलकर बनती है। प्रथम संधि के कुछेक कड़वकों को छोड़कर प्रत्येक संधि के कड़वकों में कोई-न-कोई कथानक-रूढ़ि गुंथी हुई है और इस प्रकार मूल कथा को गति मिलती है । नौंवीदसवीं संधियों में निबद्ध अनेक अवान्तर कथाएँ भी इन्हीं कथानक-रूढ़ियों के सहारे चलती हैं और कथा की मख्य धारा से मिलती हैं। इस प्रकार इसका कथानक इन कथा-रूढियों के अतिशय प्रयोग से बड़ा बोझिल तथा पेचीदा हो गया है । यह ठीक है कि इनसे करकण्ड किसीन-किसी प्रकार अवश्य प्रभावित होता है और उससे चरित्र का अवश्य कोई रहस्य उद्घाटित होता है तथा उसमें निखार एवं उन्नयन होता है। परन्तु, कथानक की सहजता-सरसता में व्याघात तो होता ही है। पाठक एक बार अवश्य मूलकथा से कटकर कथानक-रूढ़ियों के ही भँवर में फँस जाता है और बड़ी कठिनाई से कथा के पूर्व-प्रसंग से जुड़कर उसके अगले संबंध को

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