Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10
अक्टूबर - 1997, अक्टूबर - 1998
'सुदंसणचरिउ' में सौन्दर्य और बिम्ब
- डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव
प्राकृतोत्तर अपभ्रंश-चरितकाव्यों की सांगोपांग विकास-परम्परा में 'सुदंसणचरिउ' का पार्यन्तिक महत्त्व है। इसके प्रणेता अपभ्रंश के रस सिद्ध कवीश्वर मुनि नयनन्दी (ग्यारहवीं शती की अन्तिमावधि) हैं । अन्तः साक्ष्य के अनुसार, 'सुदंसणचरिउ' एक ऐसा चरितकाव्य है, जिसमें रस-बहुल आख्यान परिगुम्फित हुआ है। इसकी कथावस्तु में समाहित कलाभूयिष्ठ काव्य-वैभव के तत्त्वों की वरेण्यता के कारण ही इस कृति की रचनागत रमणीयता का अपना विशिष्ट मूल्य है। साहित्यिक या काव्यात्मक वैभव के विधायक मूल तत्त्वों ने हृदयहारी सौन्दर्य और मनोहारी बिम्ब प्रमुख हैं । 'सुदंसणचरिउ' इन दोनों ही तत्त्वों की व्यावर्त्तक विशेषताओं से विमण्डित है। चित्ताकर्षक सौन्दर्य के सुष्ठु समायोजन और हृदयावर्जक बिम्बों के रम्य-रुचिर विनियोग की दृष्टि से 'सुदंसणचरिउ' एक आपातरमणीय काव्य है। __ आचार्य अभिनवगुप्त ने सौन्दर्यानुभूति को 'वीतविघ्ना प्रतीतिः' कहा है, जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अन्तस्सत्ता की तदाकार-परिणति (इम्पैथी) के रूप में स्वीकार किया है। मुनिश्री नयनन्दी द्वारा प्रस्तुत सेठ सुदर्शन की चरित-कथा की भी यही विशेषता है कि इसमें सौन्दर्य की निर्विघ्न प्रतीति होती है, इसलिए इसकी कथा को पढ़ते समय इसके पात्र-पात्रियों के साथ पाठकों की अन्तस्सत्ता की तदाकार-परिणति हो जाती है। सामान्यतः 'सुदंसणचरिउ' की काव्यभाषा इतनी प्रांजल है कि मूल के अर्थ या भाव समझ पाने में प्रवाहावरोध की स्थिति । कहीं भी कथमपि नहीं आती।