Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10 विजय यात्रा के बाद भरत ने आयोध्या में प्रवेश किया पर उनका तीक्ष्ण धारवाला नया युद्ध प्रिय चक्र किसी भी तरह नगर के भीतर प्रवेश नहीं कर पा रहा था-किस तरह से -
जिह वम्भयारि-मुहें काम-सत्थु।
जिह किविण-णिहे लण पणइ-विन्दु॥4.1 ॥ अर्थात् जिस तरह से ब्रह्मचारी के मुख में काम शास्त्र का प्रवचन/जिस तरह से कंजूस के घर याचक जन/उसी तरह से भरत का युद्ध प्रिय चक्र सीमा पर ही रुक गया। यही भरत जब अपने प्रतिद्वन्द्वी राजा से पराजित हो जाते हैं तब उनकी स्थिति क्या होती है
अवरा मुह-हेट्टा मुह-मुहाइँ। णं वर-वहु-वयण-सरोरुहाइँ उवरिल्लियएँ विसालएँ भिउडि-करालएँ हेट्ठिम दिछि परज्जिय। णं णव-जो व्वण इत्ती चञ्चल-चित्ती कुल वहु इज्जएँ तज्जिय॥ 4.9॥
पराजित भरत का मुख ऊँचे खानदान की कुल वधू की तरह अचानक नीचे झुक गया। बाहुबलि की विशाल भौहों वाली दृष्टि से भरत की दृष्टि ऐसी नीची हो गई जैसे सास से ताड़ित, चंचल चित्त नवयौवना कुल-वधू नम्र हो जाती है। कवि अपने पात्रों अपने चरित्रों की आवाज में बोलता है, लोक को देखता है, उसकी नियति को देखता है और पाता है कि संसार में उत्पन्न हर एक व्यक्ति की नियति नियत है। नहीं तो दिन के पूर्वभाग में ज्वलन्त और जीवन्त सूर्य दिन के आखिर में अंगारों का समूह मात्र रह जाता है । जिस शासक या जिस स्वामी को लाखों व्यक्ति और श्रेष्ठ व्यक्ति प्रणाम करते हैं वही शासक या स्वामी असहाय और असमय मर जाता है। - बीता हुआ समय और दिन वापस नहीं होता/जो नदी के प्रवाह में डूब गया उसका चिन्तन कौन करे, शायद अज्ञानी ही करते होंगे। अर्थ का अनर्थ भी कवि की दृष्टि में रहा है, वह सोचता रहा है कि लक्ष्मी न जाने कितनों को लड़वा देती है, न जाने कितनों को पाहुना बना लेती है! जो कोई भी युवक होता है यह उसी की कुल पुत्री बन बैठती है
आयएँ लच्छिएँ बहु जुज्झाविय। पाहुणया इव वहु वोलाविय॥
जो-जो को वि जुवाणु तासु-तासु कुल उत्तीइतना बड़ा कवि लोक की प्रवंचनाओं को ज्यों का त्यों रख देता है यानी जो भी लोक प्रवाद हैं, वे हैं इतनी सारी कथात्मक भिन्नता के बाद भी लोक की मानसिकता में कहीं परिवर्तन नहीं है। जब वह यह कहता है कि
कण्णा दाणु कहिं (?) तणाउ चइणा दिण्णु तो तुडि हि चडावइ। ____ होइ सहावें मइलणिय छेयका-लें दीवय-सिह णावइ॥
अर्थात् कन्यादान किसके लिए-? (इसमें छिपा हुआ है निश्चित ही दूसरे के लिए, क्योंकि बेटी बराबर बाप के घर में रहने के लिए नहीं होती) यदि कन्याएँ उचित समय पर उचित पात्र को न दी गयी अर्थात् उनकी शादी न की गयी तो वे दोष लगा देती है क्योंकि बुझने के समय की दीपशिखा की तरह वे स्वभावतः मलिन होती हैं।