Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10 परिवर्द्धन के साथ बौद्धों तथा जैनाचार्यों ने भी अपनाया। यद्यपि वाल्मीकि रामायण से यह ज्ञात होता है कि रामकथा उनके समय से पूर्व भी प्रचलित थी। पालिभाषा में रामकथा जातक साहित्य में प्राप्त होती है । दशरथ जातक में रामकथा का सर्वाधिक प्राचीन बौद्ध रूप मिलता है । इसी तरह 'अनामकं जातकम्' और 'दशरथ कथानकम्' में भी राम की कथायें मिलती हैं । इनका मूल पालि रूप बाद में अप्राप्य हो गया। चीनी अनुवाद के रूप में इन कथाओं की संरक्षा हो सकी और वहीं से ये पुनः प्राप्त हुई हैं।
प्राकृत में विमलसूरि कृत 'पउमचरिउ' सर्वाधिक प्राचीन रामकथा है
अपभ्रंश साहित्य में भी संस्कृत तथा प्राकृत की परम्परा के अनुसार ही किसी महापुरुष - या तीर्थंकर को काव्य विषय बनाने की प्रवृत्ति रही। अपभ्रंश साहित्य में महापुराणों का विषय चौबीस तीर्थंकर, बारह चक्रवर्ती, नौ वासुदेव, नौ बलदेव तथा नौ प्रतिवासुदेव को बनाया गया है। अतः तिरेसठ महापुरुषों के वर्णन के कारण ऐसे ग्रंथों को 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित' या 'तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार' कहा गया है । रामकथा के पात्रों को जैनधर्म में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। राम, लक्ष्मण तथा रावण की गणना जैनियों ने त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों में की है। जैन मान्यता के अनुसार प्रत्येक कल्प के त्रिषष्ठि महापुरुषों में से नौ बलदेव, नौ वासुदेव तथा नौ प्रतिवासुदेव माने जाते हैं। राम, लक्ष्मण तथा रावण क्रमश: आठवें बलदेव, वासुदेव तथा प्रतिवासुदेव माने गये हैं । जैन धर्मानुसार बलदेव तथा वासुदेव किसी राजा की भिन्न-भिन्न रानियों के पुत्र होते हैं । वासुदेव अपने बड़े भाई बलदेव के साथ प्रतिवासुदेव से युद्ध करते हैं और अंततः उसे मार देते हैं। परिणामतः मृत्योपरांत वासुदेव नरक में जाते हैं । बलदेव अपने भाई की मृत्यु के कारण दु:खाकुल होकर जैनधर्म में दीक्षित हो जाते हैं और अंत में मोक्ष प्राप्त करते हैं। कथा का यह स्वरूप सदैव स्थिर रहता है। जैन धर्म में रामकथा की दो परम्पराएँ. दृष्टिगत होती हैं -
- विमलसूरि की परम्परा (संवत् 530, वि.सं. 60), - गुणभद्राचार्य की परम्परा (955 वि.सं.)
स्वयंभू की रामकथा का मूलस्रोत प्राकृत भाषा में निबद्ध विमलसूरि कृत 'पउमचरिठ' है। 'पउमचरिउ' के विस्तार विवेचन से पूर्व स्वयंभू पूर्व जैन रामकाव्य का विवेचन आवश्यक है। साहित्यिक दृष्टि से विमलसूरि का 'पउमचरिउ' ने सामान्यलोक तथा काव्यजगत् दोनों में ही ख्याति प्राप्त की। 'पउमचरिउ' का अभिव्यंजना पक्ष अत्यन्त सशक्त है, इसके प्रारम्भ में कवि एक उक्ति कहता है -
णामावलियनिबद्धं आयरिय परागयं सव्वं ।
वोच्छामि पउमचरियं अहाणुपुव्विं समासेण॥ - 1.8 पउमचरिउ अर्थात् 'उस पद्मचरित को मैं आनुपूर्वी के अनुसार संक्षेप में कहता हूँ जो आचार्यों की परम्परा से चला आ रहा है तथा नामावली निबद्ध है।' इस उक्ति में 'णामावलियनिबद्धं' शब्द के संदर्भ में पं. प्रेमी कहते हैं - "विमलसूरि से पूर्व राम का चरित्र केवल नामावली के रूप