Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 26
________________ 11 अपभ्रंश भारती - 9-10 गुणभद्र द्वारा वर्णित रामकथा मात्र दिगम्बर संप्रदाय तक प्रचलित रही। यत: जैनाचार्यों द्वारा रचित साहित्य का मुख्य उद्देश्य जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करना था अतः कथा के मुख्य पात्रों को अंत में जैनधर्म में दीक्षित होते दिखाया गया है। गुणभद्र कृत 'उत्तरपुराण' में सीता के आठ पुत्रों का उल्लेख किया गया है परन्तु उनमें लवकुश का नाम नहीं मिलता है । दशानन इस कथा में विनमि विद्याधर वंश के पुलस्त्य का पुत्र था। शत्रुओं को रुलाने के कारण वह रावण कहलाया।" इस रामकथा में सीता निर्वासन तथा लव-कुश जन्म का उल्लेख नहीं है। परवर्ती रचनाओं में महाकवि पुष्पंदत के 'उत्तरपुराण' तथा चामुण्डराय पुराण में गुणभद्र की कथा का अनुकरण द्रष्टव्य होता है। जैन रामकथात्मक साहित्य में असम्भव को सम्भव बनाने की प्रवत्ति रही है। इसमें तथा राक्षसों को विद्याधर वंश की भिन्न-भिन्न शाखायें माना गया है। जैनियों ने विद्याधरों को मनुष्य माना है तथा विद्याधर इन्हें इसलिए कहा जाता था क्योंकि ये अनेक विद्याओं में सिद्धहस्त होते थे। . वानरवंशी विद्याधरों की ध्वजा, महल तथा छत के शिखरों पर वानरचिह्न होते थे इसलिए उन्हें वानर कहा जाता था। अपभ्रंश साहित्य में जिन रचनाकरों ने रामकाव्य का सृजन किया, उन्होंने विमलसूरि, रविषेणाचार्य तथा गुणभद्राचार्य की रामकथाओं का ही आधार लिया है । इसलिए पूर्ण मौलिकता इन काव्यों में भी नहीं प्राप्त होती है क्योंकि कई प्रसंगों को परम्परागत ढंग से वर्णित किया गया है। कतिपय प्रसंगों के संदर्भ में नवीन स्थापनायें की गयी हैं। स्वयंभू अपभ्रंश रामकाव्य परम्परा के प्रथम कवि हैं। इनका समय 8वीं शताब्दी ई. है। इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि भी कहा जाता है। पउमचरिउ की रचना धनंजय के आश्रय में हुई थी। इस ग्रंथ में पाँच काण्ड, बारह हजार श्लोक तथा नब्बे संधियाँ हैं । इसमें तिरासी संधियों की रचना स्वयंभू ने तथा शेष सात संधियों की रचना उनके पुत्र त्रिभुवन ने की थी। संधियों को प्रत्येक काण्ड में विभक्त कर दिया गया है, यह वर्गीकरण इस प्रकार है - विद्याधर काण्ड : 20 संधि , अयोध्या काण्ड : 22 संधि, सुंदर काण्ड : 14 संधि, - युद्ध काण्ड : 21 संधि, - उत्तर काण्ड : 13 संधि। संधियाँ कडवकों में विभक्त हैं, पउमचरिउ में कुल 1269 कडवक हैं। स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' संस्कृत 'पद्मचरित' का अपभ्रंश रूप है। जैन परम्परा में 'पद्म' को राम का पर्यायवाची माना जाता है। यद्यपि स्वयंभू ने अपनी इस रामकथा को 'पउमचरिउ' शीर्षक से

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