Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10 त्रिजटा का स्वप्न प्रभृति प्रसंग स्वयंभू की मौलिक उद्भावनायें हैं जो विमल तथा रवि के काव्यों में प्राप्त नहीं होती हैं।
कथा का अंत स्वयंभू विमलसूरि तथा रविषेणाचार्य की ही भाँति करते हैं। यह पहले भी कहा जा चुका है कि अपभ्रंश साहित्य का सृजन मूलत: धर्मप्रचार की दृष्टि से ही किया गया है। जैनधर्म की प्रतिष्ठा करना रचनाकारों का मुख्य लक्ष्य रहा है। स्वयंभू ने भी अंत में मुख्य पात्रों को जैनधर्मानुयायी के रूप में दिखाया है। कथा के मुख्य पात्र जिनभक्ति में दीक्षा ले लेते हैं । जैनधर्म की व्यापकता तथा उसकी प्रतिष्ठा के अंकन के साथ ही कथा को अंतिम रूप दिया गया है।
स्वयंभू की पूर्ववर्ती रामकाव्य परम्परा तथा स्वयंभू के रामकाव्य 'पउमचरिउ' के विवेचन के उपरान्त भी अपभ्रंश में रामकाव्यों की रचना की गई। स्वयंभू के उपरान्त उनके पुत्र त्रिभुवन ने रामकाव्य परम्परा को आगे बढ़ाया। यद्यपि त्रिभुवन ने कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिखी परन्तु स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' की अंतिम सात संधियाँ उन्होंने ही लिखी थीं। स्वयंभू ने तिरासी संधि लिखकर काव्य को पूर्णता प्रदान कर दी थी परन्तु त्रिभुवन को ऐसा प्रतीत हुआ कि अभी यह सम्पूर्ण नहीं है। त्रिभुवन ने 'पउमचरिउ' की अंतिम सात संधियों में जिनधर्म की नीति उपदेशात्मक कथाओं तथा राम के परिनिर्वाण, राम की जैनधर्म में दीक्षा लेना प्रभृति प्रसंगों को सम्मिलित किया है। त्रिभुवन स्वयंभू के सबसे योग्य पुत्र थे। कवित्व प्रतिभा उनमें थी परन्तु स्वयंभू की भांति स्वाभाविकता तथा सादगी उनके काव्य में परिलक्षित नहीं होती है। त्रिभुवन के काव्य में कलात्मकता अधिक है तथा स्वाभाविकता कम। परन्तु अपभ्रंश रामकाव्य परम्परा को उन्होंने योगदान दिया तथा 'पउमचरिउ' की अन्तिम सात संधियों की रचना करके 'पउमचरिउ' को जैनमत के अनुसार पूर्ण किया। इस प्रकार उन्होंने अपने पिता के ग्रंथ को पूर्णता प्रदान करके अपभ्रंश साहित्य को अपना योगदान दिया।
त्रिभुवन के उपरान्त रामकाव्य के तीसरे कवि पुष्पदन्त थे। इनका समय 10वीं शताब्दी माना जाता है। पुष्पदन्त प्रारम्भ में शैव थे, कालांतर में ये जैन हो गये थे। पुष्पदंत ने रामकथा प्रारम्भ करने के पूर्व जो परम्परा उदधत की है उसमें उन्होंने स्वयंभ का स्मरण आदर के साथ किय है। पुष्पदंत ने रामकथा का वर्णन किसी स्वतंत्र पुस्तक के रूप में नहीं किया वरन् 'उत्तरपुराण' की ग्यारह संधियों (69-79) में किया है। पुष्पदंत ने अपनी रामकथा का स्वरूप विमलसूरि, रविषेण तथा स्वयंभू की रामकथाओं के आधार पर नहीं निर्मित किया है वरन् इन सभी से पृथक् श्वेताम्बर मतावलंबी गुणभद्राचार्य के 'उत्तरपुराण' में वर्णित रामकथा का अनुसरण किया है। गुणभद्राचार्य की रामकाव्य परम्परा का अनुसरण करने वाले पुष्पदंत की रामकथा का स्वरूप स्वयंभू की रामकथा से कई संदर्भो में भिन्न है । पुष्पदंत ने अपने ग्रंथों में अपना जो परिचय दिया है उससे यह ज्ञात होता है कि ये स्वभाव से स्पष्टवादी तथा अक्खड़ थे। - यह संघ उदार विचारधारा का था। ग्यारह संधियों में वृहदाकार रामकथा को समेटना असंभव सा लगता है परन्तु पुष्पदंत ने प्रयास किया लेकिन संधियाँ कम होने के कारण पुष्पदंत