Book Title: Apbhramsa Bharti 1997 09 10
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती - 9-10
पत्ति तोडि म जोइया फलहिं जि हत्थु म वाहि।
जसु कारणि तोडेहि तुहं सो सिउ एत्थु चढहि॥ 160॥पा. दो. कबीर ने भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि मनुष्यों में ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों, वृक्षोंवनस्पतियों आदि में भी समान जीव की कल्पना की है। वे कहते हैं कि जो आत्मा परमात्मा में है, वहीं संसार के सभी जीवधारियों में है। अत: न कोई बड़ा है न कोई छोटा - सभी समान
नहीं को ऊंचा नहीं को नीचा जाका पयण्ड- ताही को सींचा। जो तू बांभन वंभनी जाया तो आन वाढ है क्यों नहिं आया। जो तू तुरक तुरकनी जाया तो भीतरि खतना क्यों न कराया।
कहै कबीर मधिम नहिं कोई सो मधिम जा मुख राम न होई। जैसे विभिन्न वर्णवाली अनेक गाय का दूध एक-सा ही होता है वैसे ही विभिन्न शरीर में स्थित आत्मा ही परमात्मा है -
सोऽहं हंसा एक समान, काया के गुन आनहिं आन। माटी एक सकल संसारा बहुविध भांडै गढ़े कुंभारा॥ गंध वरन दस दुहिए गाय एक दूध देखौ पतियाय।
कहै कबीर संसा करि दूरि त्रिभुवन नाथ रह्या भरिपूर॥53॥ अतः किसी भी जीव का वध करना अथवा उसे कष्ट देना घोर महान अधर्म है । वे कहते हैं कि जो सब जीवों को समान भाव से देखता है और दया धर्म का पालन करता है उसे ही सच्चे सुख की प्राप्ति होती है। कबीर जीव हिंसा करनेवाले को सबसे बड़ा अधर्मी समझते हैं। वे उसे फटकारते हुए कहते हैं -
जीव बधत अरु धरम कहत हौ अधरम कहां है भाई। __ आपुनि तौ मुनिजन है बैठे कासनि कहौ कसाइ। कबीर देवी-देवताओं के सामने बलि चढ़ानेवाले की भर्त्सना करते हुए कहते हैं कि जो लोग निर्जीव प्रतिमा की पूजा के लिए सजीव का बलिदान करते हैं उनका अन्तिम काल बड़ा भयानक होता है -
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहिं अन्तकाल कउ भारी। राम नाम की गति नहिं जानी लै डूबै संसारी। देवी देवा पूजहिं डोलहिं पारब्रह्म नहिं जाना।
कहत कबीर अकुल नहि चेतिया विखिआ सिउ लपटाना। इस प्रकार अपभ्रंश के जैन कवियों ने तथा कबीर ने ऐहिक सुख तथा पारमार्थिक सुख के साथ-साथ सामाजिक अभ्युत्थान के लिए संयम को सर्वाधिक महत्व दिया है। यदि आज मानव