Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 14
________________ अपभ्रंश-भारती तथा समकालीन महापुरुषों के चरित्र को ही गूंथा गया है । पुष्पदंत के महापुराण के दो भाग हैं- प्रादिपुराण और उत्तरपुराण । उत्तरपुराण के एक अंश में कृष्ण की कथा 'हरिवंशपुराण' के रूप में निबंधित है और दूसरे अंश में राम कथा का वर्णन है । लेकिन अपभ्रंश में रामकथा का आरंभ महाकवि स्वयंभू के 'पउमचरिउ' से ही होता है । 3 अपभ्रंश के इन चरिउ काव्यों का काव्य रूप तथा शिल्प-विधान पूर्ववर्ती प्राकृत और संस्कृत के प्रबन्ध-काव्यों से सर्वथा भिन्न और मौलिक है; वैसे वाल्मीकि रामायण की भांति 'पउमचरिउ' का कथ्य पाँच काण्डों में विभक्त है— विद्याधरकाण्ड, प्रयोध्याकाण्ड सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड और उत्तरकाण्ड | इनमें कुल 90 संधियां हैं। कहीं-कहीं 'प्राश्वास' शब्द का प्रयोग भी प्राकृत के अनुकरण का द्योतक है। ये संधियां कड़वकों में विभक्त मिलती हैं, जिनका समापन 'घत्ता छन्द' से होता है। साथ ही प्रत्येक कड़वक में श्रद्धलियों की संख्या सर्वत्र समान नहीं पाई जाती । काव्यारंभ में स्वयंभू ने बड़ी विनम्रता के साथ अपनी अनभिज्ञता, काव्य शास्त्रहीनता पूर्व - कवियों के प्रति पूज्य भाव आदि काव्य- रूढ़ियों का परंपरानुसार निवेदन करते हुए भी कविता करने की अडिग आस्था और दुष्ट जनों के रोष के लिए उन्हें आड़े हाथों लेने की बात बड़े आत्मा-विश्वास के साथ कही है बुहयण संयभु पई विण्णवइ । मई सरिसउ प्रष्णु णाहिं कुकइ || वायरण कयावि र जागियउ । णउ वित्त-सुत्तु वक्खाणियउ || रगउ णिसुणिउ पंच महाय कव्वु । णउ भरहु गेउ लक्ख वि सब्बु ॥ उ बुज्झिड पिंगल- पत्थारु । णउ भम्मह - दंडि अलंकार ॥ ववसाउ तो विउ परिहरति । वरि रड्डाबद्दु कठवु करमि ॥ ऍह सज्जण लोयहीँ किउं विरणउ । जं प्रवहु पदरिसिउ श्रप्पणउ ॥ जइ एम विरूस को वि खलु । तहीँ हत्थुत्थल्लिउ लेउ छलु ॥ अपभ्रंश के इस आदिकवि की यह विशेषता सचमुच अनूठी और बेजोड़ है । अन्य जैन - काव्यों की भांति पउमचरिउ का वर्ण्य विषय भी धार्मिक भावना से अनुरंजित है तथा सभी प्रधान- पात्र जिनभक्त हैं । जैन अपभ्रंश परम्परा में धार्मिक भावना विरहित काव्य की कल्पना संभव नहीं । संसार की अनित्यता, जीवन की क्षरण भंगुरता प्रौर दुःख - बहुलता दिखाकर विराग उत्पन्न करना, शान्त रस में काव्य तथा जीवन का पर्यवसान ही इन कवियों का मूल प्रयोजन रहा है । । वाल्मीकि न तो उसे मानव-रूप स्वयंभू के 'पउमचरिउ' में राम का मानवीय रूप ही मुखरित हुआ है के राम की भाँति वह सभी मानवीय शक्तियों तथा दुर्बलताओं का प्रतिनिधि है । कोई महान् आदर्श चरित बनाया गया है और न अलौकिक शक्ति-पुंज । बल्कि में उसे जैसा होना चाहिए, उसी रूप में बिना किसी आवरण के चित्रित कर दिया गया है । न कहीं राम की चारित्रिक कमजोरियों पर पर्दा डालने का प्रयास है और न गुणों को प्रत्यधिक उजागर करने की दृष्टि का प्राचुर्य । सामान्य मानव को प्रबन्ध-काव्य का प्रतिपाद्य बनाने का यह सर्वप्रथम प्रयास स्वयंभू की उदात्तता का परिचायक है । यही कारण है कि

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