Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
प्रकाशीय चित्र
'पउमचरिउ' में कुछ ऐसे भी चित्र हैं जिनमें केवल प्रकाश ही प्रकाश है यथा
tories वारणें छिण्णु छत्तु णं खुडिउ मरालें सहसवत्तु । णं सूरहों जेमन्ते हों विसालु, वियलिउ कराउ कलहोय थालु ||
है
युद्ध क्षेत्र में छत्र कट कट कर गिर रहे हैं । बारण उनमें उलझे हुए हैं । कवि को वे हंसों द्वारा क्षुटित लालकमल पुष्प प्रतीत होते हैं या विशाल सूर्य जैसे दीखते हैं । लेकिन कवि को इसमें संतोष नहीं होता है । वह उस चित्र को पूरा-पूरा उतार नहीं पाया है । लालकमलों के टूटे पड़े होने पर भी उनमें संश्लेष नहीं और सूर्य की विशालता में बाण नहीं है । दोनों कल्पनाओं में चित्र में कुछ छूटा रह गया । श्राकांक्षा रह गई है । काले बाण भी सुनहरे छत्र के प्रकाश के परावर्तन से स्वर्णमय हो गए । इसलिए यहां कवि एक नया चित्र प्रस्तुत करता है कि सोने के थाल से किरणें निकल रही हैं, यहां कवि ने उन दोनों बिन्दुओं को मिला दिया है जहां स्वर्ण आभा जन्मती है और जहां से फूट-फूट कर बिखरती है । सर्वत्र प्रकाश ही प्रकोश है, इकट्ठा भी और छिटका भी ।
5. नाद चित्र
कवि ने एक विराट् शब्द-चित्र उस समय निर्मित किया है जब उसका एक पात्र रावण के वन को भंग करने में व्यस्त है—
वणु भंजमि रसमसकसमसन्तु । महिवीढ गाढ़ विरसोरसन्तु ॥ गायउल- विउल-चुम्भल-वलन्तु । रुक्खुक्खय-खर खोणियं खलन्तु || गोसेस - दियन्तर - परिमलन्तु । कङ केल्लि - वेल्लि - लवली - ललन्तु ॥ तुङ्गङ्ग-भिङग - गुमुगुमुगुमन्तु । तरु - लग्ग - भग्ग - दुमुदुमुदुमन्तु ।। एला कक्कोलय कडयडन्तु । वड - विडव - ताड-तडतडतडन्तु ॥ करमरकरीर करकरयरन्तु प्रासत्यागत्थिय - थरहरन्तु मड्डड्ड मड्डु सय-खण्ड जन्तु । सत्तच्छय - कुसुमामोय
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दिन्तु 1117
मिश्रित चित्र
ध्वनियाँ अनेक हैं, नाद एक है और ये ध्वनियां रसमस, कसमस पेड़ों के खींचने की, नागों के भागने की चुंभलता, पेड़ों के उखड़ने और भूमि में गड्ढा होने की खलखलाहट, लवली (लौंग) आदि का ललकना, भौंरों का गुमगुमाना, पेड़ों के आपस में टकराकर टूटने की दुमदुमाहट, ऐला [ इलायची ] की कड़कड़ाहट, और वह ताड़ों की तड़तड़ाहट, करमर [करील ] की करकराहट, अश्वत्थ [ पीपल ] की थरथराहट सर्वत्र सुनाई पड़ रही है और सब ध्वनियाँ मिलाकर विराट् नाद का निर्माण कर रही हैं जो विध्वंस के क्रिया व्यापार को मूर्त करता है ।
वरणमाल नियतेवि भग्गमारण । गय लक्खरण-राम सुपुज्जमारण || थोवेन्तरे मच्छुत्थल्ल देन्ति । गोला - णइ बिट्ठ समुव्वहन्ति ॥