Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
सुकवि की रसवर्धित कथा की भांति वे तीनों कन्याएं दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगीं।
तिण्णि वि कण्णउ परिवढिढयउ । णं सुक्कइ-कहउ रस-वढियउ ।
47.2.4
सीता के लिए संदेश भेजते हुए राम कहते हैं
तुम्हारे वियोग में उसी तरह क्षीण हो गया हूं जिस तरह चुगलखोरों की बातों से सज्जन पुरुष, .............मनुष्यों से वजित सुपंथ क्षीण हो जाता है । ......................."झोरण सु-पुरिसु व पिसुणालावे ॥
......... झोणु सुपंथ व जण-परिचत्तउ । ......"
45.15 आग उसी प्रकार भड़क उठी जिस प्रकार दुष्टजनों के वचन । निर्धन के शरीर में जैसे क्लेश फैलने लगता है, वैसे ही आग फैलने लगी ।
धगधगमाणु....................."गाइ खल-जण-बउ ॥
......"पाइँ किलेसु णिहीरण-सरीरहो ॥ 47.5,6 निशाचरी के तीर, गदा,प्रशनि, शिला सभी उसी प्रकार असफल हुए जिस प्रकार कृषक के घर से याचक असफल लौट जाते हैं ।
तं सयलु वि जाइ णिरत्थु किह घरे किविणहों तक्कुव-विन्दु जिह। 48.12.9
पारिवारिक क्षेत्र के भी कई बिंब स्वयंभू के काव्य में पाये जाते हैं । सीता राम से कहती है- "तुम शीघ्र नहीं लौटोगे, क्या पता कहीं तुम युद्धरूपी ससुराल में चमक-दमकवाली कीर्ति-वधु से विवाह न कर लो।"
मइ मेल्ले वि भासुरएँ रण-सासुरए मा कित्ति-बहुभ परिणेसहि ।। 30.3.9
प्राध्यात्मिक क्षेत्र के बिंब के भी कई उदाहरण दिये जा सकते हैं । कवि की कल्पना है कि यतियों को देखकर मानो वृक्ष श्रावकों की भांति नत हो गये ।
भयभीत-हरिन इस प्रकार खड़े थे मानो संसार से भीत संन्यासी ही हों । नारी संबंधी बिब के उदाहरण
रचना और प्राकार-प्रकार में वह नगरी नारी की तरह प्रतीत होती थी । लंबे-लंबे पथ उसके पैर थे । फूलों के ही उसके वस्त्र और अलंकार थे। खाई की तरंगित त्रिवली से विभूषित थी। उसके गोपुर स्तनों के अग्रभाग की तरह जान पड़ते थे, विशाल उद्यानों के रोमों से पुलकित और सैकड़ों वीरवधूटियों के केशर से अचिंत थीं । पहाड़ और सरिताएं मानो उस नगरी रूपी नारी की फैली हुई भुजाएं थीं। जल और फेनावलि उसकी चूड़ियाँ और नाभि थीं। सरोवर नेत्र थे, मेघ काजल थे और इंद्रधनुष भौहें । मानो वह नगरीरूपी नव-वधू चंद्रमा का तिलक लगा कर दिनकररूपी दर्पण में मुख देख रही थी।