Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
5. घ्राणबिंब
• गंध से संबंधित इने-गिने बिंब ही स्वयंभू के काव्य में मिलते हैं। शरद् ऋतु में पारिजाता कुसुमों के पराग से मिश्रित सुगंधित पवन का झोंका आया। उस सुगंधित पवन से भ्रमर की तरह आकृष्ट होकर कुमार लक्ष्मण दौड़े।
वणे ताम सुअंधु वाउ अइउ । जो पारियाय-कुसुमभहिउ ।। कड्ढिए भमरु जिह तें वाएँ सुठ्ठ सुअन्धे । धाइउ महुमहणु "
............ 36.2.8-9 नलकूबर की वधू उपरंभा, रावण का परोक्ष में यश सुनकर उसी प्रकार आसक्त हो उठती है जिस प्रकार मधुकरी कुसुमगंध से वशीभूत होकर ।
अणुरक्त परोक्खए जे जसे ण । जिह महुअरि कुसुम-गंध-वसेण ।। 15.11.6
स्वयंभू की दृश्य एवं श्रवण संवेदना अत्यंत तीव्र है। स्पर्श संवेदना में भी सूक्ष्मता है, किंतु रस एवं ब्राण संवेदना सामान्य है ।
प्रकृतिपरक बिंबों को पाठ वर्गों में बांटा जा सकता है । 1. जलीय बिंब
ये बिंब समुद्र, नदी, सरोवर, जलीय पुष्प कमल, जल-तरंग आदि से संबंधित हैं । जलीय बिंबों में स्वयंभू ने सागर संबंधी बिंबों का सर्वाधिक प्रयोग किया है। संसाररूपी समुद्र की चर्चा स्वयंभू ने बार-बार की है । सेना का वर्णन करते समय कवि समुद्र-बिंब का उपयोग करता है।
राम और लक्ष्मण सेना के साथ ऐसे चल पड़े मानो जलचरों से भरा हुआ महासमुद्र ही उछल पड़ा हो । शत्रु को क्षुब्ध करनेवाली अानंद की भेरी बज उठी, मानो समुद्र ही अपनी तरंग-ध्वनि से गरज पड़ा हो।
णा महा समुद्दु, जलयर-रउद्, उत्थल्लिउ ।। दिण्णाणंद - भेरि पडिवक्ख खेरि, खर-वज्जिय ॥
णं मयरहर वेल, कल्लोलवोलं, गलगज्जिय ॥ 40.16.2-3 लक्ष्मण ने सामने शत्रु-सेनारूपी भयंकर समुद्र को उछलते हुए देखा । सेना का प्रावर्त ही उसका गरजना था, हथियाररूपी जल और तुषार-कण छोड़ता हमा, ऊँचे ऊँचे अश्वों की लहरों से प्राकुल, मदमाते हाथियों के झुंडरूपी तटों से व्याप्त, ऊपर उठे हुए सफेद छत्रों के फेन से उज्ज्वल और ध्वजारूपी तरंगों से चंचल और जलचरों से सहित था।
............"पलय-समुद्दु णाई उत्थल्लिउ ॥ सेणावत्त नितु गज्जंतउ । पहरण-तोय-तुसार-मुअंतउ ॥ तंग-तुरंग-तरंग समाउलु । मत्त-महागय - घड वेलाउलु ।।