Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
जल-बिन्दु जेम जीविउ प्र-थिरु ।। संपत्ति समुद्ध-तरंग णिह । सिय चंचल जव गिरि-इ-पवाद- सरिसु ।
विज्जुल - लेह जिह ॥
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54.5.5-7
जलीय पुष्प कमल का अधिकांश प्रयोग उपमान और रूपक के रूप में ही हुआ है । लक्ष्मण ने खर का सिर-कमल तोड़कर फेंक दिया । कोपाग्नि उसकी मृणाल थी । युद्ध से कटकटाते उसके दांत पराग थे और अधर पत्ते ।
कोवारणल - खालउ कटि-कण्टालउ दसण-सकेसरु प्रहर-दलु । महमहण-संरग्र्गे प्रसि णहरग्गे खुण्टे वि घत्तिउ सिर कमलु ।। 40.9.11 रावण के अंतःपुर के वर्णन में भ्रमर-कमल के बिंब का प्रयोग हुआ है
णं स भमरु माणस सरवरे कमलिणि-वणु पप्फुल्लियउ । 49.11.10 अठारह हजार युवतियाँ आकर सीतादेवी से इस तरह मिलीं मानो सौंदर्य के सरोवर में कमल ही खिल गये हों ।
णं सरवरें सियहे सिपाइँ सयवत्तइँ पप्फुल्लियइँ । 49.12.8
स्वयंभू के जलीय बिंब प्रभाव - साम्य तथा गुण - साम्य पर आधारित हैं । ये बिंबवि की निरीक्षण क्षमता एवं बिंब निर्माण सामर्थ्य के प्रमाण हैं ।
2. आकाशीय बिंब
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स्वयंभू के काव्य में आकाशीय बिंबों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है । इसके अंतर्गत सूर्य और चंद्र संबंधी बिंब अधिक हैं । इनके अतिरिक्त राहु, मंगल और शनि के बिंब भी पाये जाते हैं । घन, बिजली और नक्षत्रों से भी कवि ने बिब-निर्माण किया है ।
विमान में बैठा हुआ हनुमान ऐसा जान पड़ता था मानो आकाश में रथसहित सूर्य ही जा रहा हो, उसका विमान मणि-किरणों की कांति से चमक रहा था, वह निशा-चंद्र के समान चंद्रकांत मणियों से जड़ा हुआ था ।
मणि मऊह सच्छाएँ । णिच्चं देव- णिम्मिए ।
चंद कंति खचिए । रयणी चंदे व रिणम्मिए । 46.1.1
पसरइ सुकइहें कव्वु जिह पसरह मेह-विंदु गयरांगणें
राम और लक्ष्मण सीतादेवी के साथ वटवृक्ष के नीचे बैठे हैं । तब भी सुकवि के काव्य की तरह आकाश में मेघजाल फैलने लगा जैसे चंद्रमा की चांदनी फैलती है, जैसे सूर्य की किरणें फैलती हैं, वैसे ही आकाश में मेघजाल फैलने लगा । ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो पावस राजा यश की कामना से मेघ महागज पर बैठकर, इंद्रधनुष हाथ में लेकर ग्रीष्म नराधिप पर चढ़ाई करने के लिए सन्नद्ध हो रहा हो ।
मेह-जालु गयणांगणे तावेहिँ ।
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