Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 82
________________ अपभ्रंश भारती पशुओं मे पदार्थभाव के आयामों के प्राभास ने उन्हें एक बना दिया है- प्रविभाजित और पूर्ण । हाथियों की गुलगुलाहट, सुअरों की घुरघुराहट, बन्दरों की किलकिलाहट, झरनों की झरझराहट, मोरों की केका और सिंहों की पूंछों की फटकार ने समूचे पर्वत को भयंकर ध्वनि से भर दिया है कि पर्वत का हर भाग बोलता, दहाड़ता, डराता प्रतीत होता है । चित्र के उपसंहार में हिरन की अप्रस्तुत दौड़ को दो रेखानों में समेट लिया गया है उनके कान खड़े हैं, मुंह लटका है मानो वे भी भीत- त्रस्त । अंश की गति सम्पूर्ण को गतिशील बना देती है जिसमें फिर रेखा और शब्द अलग नहीं रह जाते । रेखीय मूक स्थिर चित्र हिसिंचिय सीयल-चन्दर रेग पड वाइय वर कामिणिजणेण । श्रासासिय सुन्दरि पवण - पिय । णं थिय तुहिणाहय कमल सिय || जलतत्त्व यह एक ऐसा चित्र है जिसमें कमल का पुष्प हिम से आहत है । उसका निकल चुका है, इसलिए उसका रंग भी विवर्ण हो गया है । उसकी ऊर्जा भी समाप्त हो गई है । वह बेबस हो कर शव की तरह लटक गया है और जिसके सहारे लटका है उसे भी अपने बोझ से झुका रहा है अर्थात् शव की तरह विवर्ण और बोझिल । इसी प्रकार अनेक रेखीय स्थिर और मूक चित्र 'पउमचरिउ' में मिल जाते हैं । 71 एक और उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है वेलन्धर - घरे - मुक्क पयाणउ । थिउ वलु सरयब्भ-उल समारगउ |111 रेखाओं से निर्मित इस चित्र में कवि ने शरद ऋतु के आकाश का दृश्य प्रस्तुत किया है । शरद ऋतु के मेघ पावस ऋतु की तरह घने और गतिशील नहीं होते ग्रपितु वे दूर-दूर छितरे और ठहरे हुए होते हैं । निर्मल नीला खुला आकाश है और उसमें यहां-वहां कुछ-कुछ दूरी पर रुई जैसे सफेद बादल जमे हुए हैं। यह स्थिर चित्र उस समय उभरता है जब रावण की सेना की टुकड़ियाँ वेलंधर पर्वत पर यहाँ-वहाँ जगह-जगह डेरा डालकर जम जाती हैं । 4. छाया चित्र छाया-प्रकाश गतिशील चित्र विहि मि निरन्तर वावरणे सर-जालु पहावइ । fare सो मज्झे थिउ घण डम्बरु णावइ || 12 प्रस्तुत चित्र शत्रुघ्न और मधु राजा के बीच संग्राम - व्यापार में उभरा है। दोनों निरन्तर तीक्ष्ण तीव्र बारण छोड़ रहे हैं । बारण विविध दूरी पर गिर रहे हैं और विविध गति से ऊँचाई को पार कर रहे हैं । वे ऐसे दीखते हैं मानो विन्ध्याचल और सह्य पर्वत के बीच आतिशबाजी छूट रही हो । इन में दोनों पर्वत हरे और काले हैं । प्रातिशबाजी रात्रि के काले अन्धेरे में ही निखरती है, दिन के प्रकाश में तो ग्राहट ही प्राहट रह जाती है, रंग नहीं दिखलाई पड़ते । मालूम ऐसा पड़ता है कि बाण एक-दूसरे से टकराकर चिंगारियां छोड़ रहे हैं ।

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