Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 73
________________ 62 अपभ्रंश-भारती विकसित करने का श्रेय स्वयंभू को है। डॉ. भायाणी ने भी स्वयंभू की भाषा की व्याकरणिक संरचना का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया । शब्दों के रूपों में तत्कालीन ध्वनि प्रक्रिया का प्रभाव पड़ा है, जैसेन के स्थान पर ण - नारायण - णारायण के स्थान पर - ज्ञान - गाण म के स्थान पर व - हरिदमन -- हरिववण -- प्रणाम - पणवेप्पिणु इसका विपरीत भी व के स्थान पर म - परिवृत्त - परिमिय - सिविर -सिमिर . इस प्रकार 'रणकार' युक्त शब्दों की भरमार मिलती हैआदि णर, णारायण, णीसरन्त मध्य विण्णि, भिण्ण, पहाणेहि अन्त - संघारण, भिण्ण । संधि होकर भी नये शब्दरूप बन गये हैंण + पायउ = णायउ (न आया) जड पुणु कहवि तुल लग्गें णायउ । ण + प्रावमि णावमि (न पाऊँ), जइ एम वि णावमि । . ण + आणमि णाणमि (न लाऊँ), जइ णाणमि तो सत्त मए दिणे। इस प्रकार न (नकारात्मक) युक्त शब्दरूप पर्याप्तरूप में प्रचलित हो गये। पर यह प्रवृत्ति अन्य शब्दरूपों में भी मिलती है, जैसेपडल + प्रोवरे पडलोवरे (पटल के ऊपर) चामीयर-पडलोवरे अवर + एक्कु प्रवरेक्कु (ऊपर एक) अवरेक्कु रणंगणे दुज्जयासु । पर + पाइउ (व) पराइउ (व) (पर आये) सिद्धत्थु पराइउ । किंचित् + उठ्ठियो किंचिदुट्ठिो (किंचित् उठा हुआ) विहि वि किंचिदुट्ठियो । कत् + दिवसु कदिवसु (किसी न किसी दिन) कद्दिवसु वि अवस पयाणउ । संधि की इस वृत्ति से तथा प्रांतरिक स्वरों की संधि से नये-नये शब्दों का विकास हुआ।

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