Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 75
________________ सील जे मण्डणउ ................."दोच्छिउ रावण राहव-भज्जएँ। 'केत्तिउ रिणयय-रिद्धिमह दावहि, अप्पउ जगहों मझे दरिसावहि । एउ जं रावण रज्जु तुहारउ, तं महु तिण-समाणु हलुभारउ । एउ जं पट्टणु सोमु सुदंसण, तं महु. मणहो पाइं जमसासणु । एउ जं राउलु रगयण-सुहंकर, तं महु णाई मसाणु भयंकरु । एउ जं वावहि खणे जोव्वणु, तं महु मणहों णाई विस-भोयण । एउ जं कण्ठउ कडउ स-मेहलु, सील - विहूणहं तं मलु केवलु। रहवर-तुरय-गइन्द-सयाइ मि, प्रायहि मसु पुणु गण्णु ण काइ मि । घत्ता-सग्गेण वि काइँ जहिँ चारित्तहों खण्डणउ । ... किं समलहणेण महु पुणु सोलु जे मण्डणउ ॥ -रामपत्नी (सीता) ने रावण की भर्त्सना की-तुम अपनी कितनी ऋद्धि मुझे दिखाते हो ? इसे (तो) अपने लोगों के बीच दिखायो । हे रावण ! तुम्हारा यह राज्य मेरे लिए तिनके के समान तुच्छ है । तुम्हारा यह सौम्य-सुदर्शन नगर है वह मेरे लिए यमशासन के समान है। यह नेत्रों के लिए प्रानन्दकर राजकूल वह मेरे लिए भयंकर श्मशान के समान है। (तुम) जो क्षण-क्षण में अपना यौवन दिखाते हो वह मानो मेरे मन के लिए विष-भोजन है । ये कण्ठा, कड़ा, मेखला आदि प्राभूषण हैं ये शील-प्राभूषणवालों के लिए केवल मल है। सैंकड़ों रथ, घोड़े, हाथी (ये सब तुम्हारा वैभव) मेरे लिए मान्य (गिना-माना जाने योग्य) नहीं है। उस स्वर्ग से भी क्या (लाभ) जहां चारित्र का खण्डन हो । मेरे पास शील का मण्डन (आभूषण) है फिर कुछ (अन्य) प्राप्त करने से क्या (लाभ) ? पउमचरिउ 42.7

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