Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 77
________________ अपभ्रंश-भारती रेखीय चित्र मुखरित गतिशील स्थिर गतिशील स्थिर 4 नाद चित्र स्थिर गतिशील मिश्रित स्थिर गतिशील 1. रंग चित्र प्र-व्यतिरेकी रंगीय गतिशील चित्र चित्रों में व्यतिरेकी रंगों की संयोजना का महत्त्व यह है कि एक रंग दूसरे रंग की चटक को उभारता है । ऐसे ही कुछ रंग चित्र यहां प्रस्तुत हैं दोसइ णासइ विप्फुरइ परिभइ धउद्दिसु कुंजरहों। चलु लक्खिज्जइ गयण-यले णं विज्जु-पुंजु णव जलहरहों ।। यह एक ऐसा चित्र है जिसकी रेखाएँ गति-चक्र में विलीन हो गई हैं और गति की तीव्रता के कारण रह गए हैं केवल रंग । आकाश के नीचे काला हाथी गोल घेरे में चक्कर काट रहा है और उसके चारों ओर रावण घूम रहा है। इस गति से तीन रंग उभरते हैंअाकाश का नीलापन लिये हुए सफेद रंग, उसमें घुमड़ते काले बादल और काले बादलों के बीच और कभी पास-पास बिजली की सुनहली कौंध । सब कुछ गतिमय है। इसी से कभी कहीं काला रंग चमकता है और कभी उसके बीच में और कभी इधर-उधर सुनहला प्रकाश कौंध जाता है । सफेद फलक पर काला रंग और काले की पृष्ठभूमि में सुनहला रंग सभी एक दूसरे की चटक को उभार रहे हैं और गति इनको एक विशेष चमक और झिलमिलाहट दे देती है। इसी प्रकार व्यतिरेकी रंगों की चटक लिये एक भव्य चित्र उस समय उभरता है जब रेवा नदी में सहस्रकिरण और उसके अन्तःपुर की जलक्रीड़ा का दृश्य सामने आता है....." अवरोप्परु जल-कोल करन्तहुं । धण - पाणालि-पहर मेल्लन्तहुँ । कहि मि चन्द-कुन्दुज्जल-तारेंहिं । धवलिउ जलु तुट्टन्तते हि हारेहि ॥ कहि मि रसिउ उहि रसन्तेहिं । कहि मि फुरिउ कुण्डले हि फुरन्तेहि ॥

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