Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती
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संस्कृत में जिस प्रकार विशेषणों के रूप भी विशेष्य के अनुसार होते थे उसी प्रकार स्वयंभू के काव्य में रूप विकसित हुए, जैसे
प्रासंकिय-मणेण के अनुसार विहीसणेण इस प्रकार की नई शब्दावली के साथ-साथ सूक्तियाँ भी विकसित हुईं, जैसेजइ णासइ सियालु विवराणणु । तो कि तहों रूसई बंचारणणु॥ (यदि शृगाल गुफा का मुख नष्ट कर दे तो क्या इससे सिंह रुष्ट होता है ?)
अपभ्रंश के सुधी विद्वान् डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन के अनुसार 'लिखी गई भाषा से जब बोली गई भाषा दूर जा पड़ती है तो उसमें स्थिरता और गतिशीलता, मानक और देशी तत्त्वों का प्रश्न पैदा होता है। मानकीकरण के बावजूद भाषा आगे बढ़ती है और देशीकरण प्रदेशीकरण में बदलता है।'
. स्वयंभू के काव्य में कुछ ठेठ शब्दों का प्रयोग द्रष्टव्य हैढोर – 'ढोर' का प्रयोग तुलसी ने भी "ढोर पशु नारी" में स्पष्ट किया है । अच्छे बैल के
लिए 'धवल' का प्रयोग मिलता है । मराठी में 'ढवल' प्रयोग में आता है। स्वयंभू के दुब्बल ढोरई पंकेइव (पंक-कीचड़ में फंसे ढोर की तरह)। सफेद बैल को भी धौरधौरा कहते हैं । डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन ने इसकी व्युत्पत्ति स्वीकार की है
धवल >धउर >धोर >ढोर। ढोल - डोल तथा ढोल हिलने के अर्थ में आता है। हिन्दी में डोलना की जगह हिलना
प्रयोग में प्राता है।
झीना-झीना' कम घने के लिए प्रयोग में आता है । कबीर ने भी 'झीनी झीनी बीनी चद
रिया' लिखा है । स्वयंभू ने भी प्रयोग किया हैझीरगउ दुराउलेण वरदेसु व
(दुष्ट राजकुल से जैसे सुन्दर देश क्षीण हो जाता है वैसे ही सीता के वियोग में राम हैं ।)
इस प्रकार 'झीण' का ही दूसरा रूप 'झीना' मिलता है।
स्वयंभू के समक्ष अपभ्रंश का कोई आदर्श नमूना नहीं था । स्वयंभू ने भावप्रकाशन की क्षमता अपभ्रंश भाषा में बढ़ाई, उसे क्षमताभरी बनाया। युद्ध-वर्णन में भाषा का वेग प्रचंड बरसाती नदी की भांति तो श्रृंगारवर्णन में मंथर-मंथर गति से प्रवाहित धारा की भांति । अपभ्रंश की सरलता पर वह स्वयं मुग्ध है और सहज रूप में उसको गति प्रदान करता है। यह सहजता ही उसकी परम विशेषता है।