Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ 24 अपभ्रंश भारती निविभक्तिक अथवा शून्य विभक्ति मालोच्य विभक्ति में कोई-कोई शब्द अपने मूल रूप में ही प्रयुक्त होकर कर्ता व कर्म तथा सम्बोधन का पूर्णरूपेण कार्य करते हैं। कभी-कभी प्रत्ययविहीन शब्द भी वाक्य एवं अर्थ की समीचीनता में बाधक सिद्ध नहीं होते । उत्तर-पश्चिमी अपभ्रंश में निविभक्तिक प्रयोग प्रल्प हैं । पउमचरिउ में सर्वत्र प्रकारान्त के स्थान पर उकारान्त प्रयोग मिलता है। फिर भी गहन अध्ययन से प्रकारान्त शब्द शून्य-विभक्त्यन्त मिले हैं। प्राच्य अपभ्रंश में निविभक्तिक के रूप बहुल हैं। पउमचरिउ काव्य में कतिपय शब्द प्रयोलिखित हैं किह वाणर गिरिवर उबहन्दि । बन्धेवि मयरहरु समुचरन्ति ॥ पुरिष पवल समन किउकलयलु । केहि मि घोसिउ बउबिहुमस्तु ।। सबमर बि कुवेर पहिहाणे । अट्ठमु कलसु लहउ ईसाणे ॥ मग्ण कलस उच्चाहय प्रणेहिं । लक्स-कोरि-प्रसोहिनिगहि ॥ 2. तिर्यक या विकारी कारक और प्रधिकरण एकवचन के विभक्ति रूप करण और अधिकरण अर्थ में समान प्रत्ययों का प्रयोग। एण पयाव-गवेसणेण, पेस-णेण, कन्दुम-सणेण, प्रत्याण-गिरवन्धणेण, अवलोयणेण, डोयण, पविहारणेण, मन्तणेण । बासु महा बसेपरेण प्रणबसेरण अवलोमतिहुवषु । एक एण का विधान मार्कण्डेय ने किया है । यथासोहेणं विलहेलं बोहम्रो गहन्यो । प्रमरम्परणेणं, संवरणेणं । एं-.-सोएं, खन्धाबारें स्वयंभुदेव ने पउमचरिउ में अधिकरण एकवचन में ऐं, ए, हिं, हों, ऍ, एं, उ, ए, इ प्रत्यय का प्रयोग किया है । किसी-किसी स्थल पर 'शून्य' प्रत्यय प्रयुक्त है। जबकि अपभ्रंश के अन्य ग्रन्थों में उपर्युक्त प्रत्यय के अतिरिक्त हि, अँ, अ, म्मि भी प्रयोग किया गया है । यथा एसीसे सि ऍ-वर-पलकें, पहु-पंगणएँ, अकें, परें, भवराइएँ, हिउत्सरसेड्ढिहिं, दाहिणसेड्ढिहिं, दिलिहि एंस-हत्थे, थवन्ते, कण्डे, खग्नें ऍ=लय-मण्डपे, खग्गे, सिरें इ=सूलपाणि, म्मिलक्खणम्मि निविभक्तिक अथवा शून्य प्रयोग पायाललङ्क बहुवचन विभक्तिरूप ... . मालोच्य कारक में हि और हिं प्रयुक्त हुआ है । संस्कृत का 'प' प्राकृत में 'ह' हो गया है। यही रूप अपभ्रंश में भी प्रचलित है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128