Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश भारती
निविभक्तिक अथवा शून्य विभक्ति
मालोच्य विभक्ति में कोई-कोई शब्द अपने मूल रूप में ही प्रयुक्त होकर कर्ता व कर्म तथा सम्बोधन का पूर्णरूपेण कार्य करते हैं। कभी-कभी प्रत्ययविहीन शब्द भी वाक्य एवं अर्थ की समीचीनता में बाधक सिद्ध नहीं होते । उत्तर-पश्चिमी अपभ्रंश में निविभक्तिक प्रयोग प्रल्प हैं । पउमचरिउ में सर्वत्र प्रकारान्त के स्थान पर उकारान्त प्रयोग मिलता है। फिर भी गहन अध्ययन से प्रकारान्त शब्द शून्य-विभक्त्यन्त मिले हैं। प्राच्य अपभ्रंश में निविभक्तिक के रूप बहुल हैं। पउमचरिउ काव्य में कतिपय शब्द प्रयोलिखित हैं
किह वाणर गिरिवर उबहन्दि । बन्धेवि मयरहरु समुचरन्ति ॥ पुरिष पवल समन किउकलयलु । केहि मि घोसिउ बउबिहुमस्तु ।। सबमर बि कुवेर पहिहाणे । अट्ठमु कलसु लहउ ईसाणे ॥
मग्ण कलस उच्चाहय प्रणेहिं । लक्स-कोरि-प्रसोहिनिगहि ॥ 2. तिर्यक या विकारी कारक और प्रधिकरण एकवचन के विभक्ति रूप
करण और अधिकरण अर्थ में समान प्रत्ययों का प्रयोग।
एण
पयाव-गवेसणेण, पेस-णेण, कन्दुम-सणेण, प्रत्याण-गिरवन्धणेण, अवलोयणेण, डोयण, पविहारणेण, मन्तणेण । बासु महा बसेपरेण प्रणबसेरण अवलोमतिहुवषु । एक एण का विधान मार्कण्डेय ने किया है । यथासोहेणं विलहेलं बोहम्रो गहन्यो । प्रमरम्परणेणं, संवरणेणं । एं-.-सोएं, खन्धाबारें
स्वयंभुदेव ने पउमचरिउ में अधिकरण एकवचन में ऐं, ए, हिं, हों, ऍ, एं, उ, ए, इ प्रत्यय का प्रयोग किया है । किसी-किसी स्थल पर 'शून्य' प्रत्यय प्रयुक्त है। जबकि अपभ्रंश के अन्य ग्रन्थों में उपर्युक्त प्रत्यय के अतिरिक्त हि, अँ, अ, म्मि भी प्रयोग किया गया है । यथा
एसीसे
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ऍ-वर-पलकें, पहु-पंगणएँ, अकें, परें, भवराइएँ, हिउत्सरसेड्ढिहिं, दाहिणसेड्ढिहिं, दिलिहि एंस-हत्थे, थवन्ते, कण्डे, खग्नें ऍ=लय-मण्डपे, खग्गे, सिरें इ=सूलपाणि,
म्मिलक्खणम्मि निविभक्तिक अथवा शून्य प्रयोग
पायाललङ्क बहुवचन विभक्तिरूप
... . मालोच्य कारक में हि और हिं प्रयुक्त हुआ है । संस्कृत का 'प' प्राकृत में 'ह' हो गया है। यही रूप अपभ्रंश में भी प्रचलित है।