Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
View full book text
________________
40
अपभ्रंश भारती
___2.2 अपूर्णत्व बोधक पक्ष-यह व्यापार के स्वभावतः पूर्ण होने की प्रक्रिया है जिसकी परिणति मुख्यतः सहायक पद चिह्नक' रचना के द्वारा होती है। यह किसी न किसी रूप में मूल 'पक्ष' प्रत्ययों के प्राशय को गुणात्मक रूप में प्रभावित करती है। इससे कार्य व्यापार की पूर्णता या अपूर्णता से सम्बद्ध किसी विशिष्ट ‘पक्ष' का उद्घाटन भी होता है । 'वृत्ति' सूचक रचनाएं प्राय: ‘पक्ष' निरपेक्ष होती हैं और 'पक्ष सापेक्ष' रचनाएं 'काल' निरपेक्ष । केलान ने सामान्य अवस्था को ही काल निरपेक्ष रचना माना है और उसे फिर पूर्ण-अपूर्ण क्रिया से जोड़ा है। उसके अनुसार सामान्य अपूर्ण क्रिया 'पक्ष' वह क्रिया-रूप है जो 'काल' निरपेक्ष है और क्रिया 'पक्ष' के अनुसार अपूर्ण । इसके अनेक प्रकार बताए जाते हैं जिनका विवरण नीचे दिया गया है।
2.2 10 प्रारंभत्वद्योतक पक्ष-इसके द्योतन में स्वयंभू ने प्रमुखतः 'लग्ग' रंजक क्रिया का प्रयोग किया है, कुछ स्थल संदर्भाश्रित भी हैं जिनमें क्रिया का क्रमिक अन्वय मौर वर्तमानकालिक कृदन्त की पुनरूक्ति प्रमुख है2.2.11 धातु+-क्रियार्थक प्रत्यय+रंजक क्रिया लग्ग
1. ................."णासेवि सलिल पिएवऍ लग्गा । 2. .................."चिन्तेवएँ लग्गु विसण्ण मणु । 3. मउडेण मउडु तु वि लग्गु................... 145 4. दददुर रडेवि लग्ग णं सज्जण ।46 5. वेतालऍ महि कंपणहे लग्ग 147
6. मगहाहिउ पुणु वेदणहं लग्गु 148 2.2.12 धातु + वर्तमान तिङतरूप+रंजक क्रिया लग्ग 1. अवरोप्परु मुहई णिएह लग्ग 149
.........."लग्ग वियारेहिं दुग्णयसामिरिण । 2.2.13 धातु+इज्ज+वर्तमान तिङतरूप-रंजक क्रिया लग्ग
1. सो विहि छन्देण सामण्णहि मि तुलिज्जइ लग्गउ ।।। 2.2.14 वर्तमानकालिक कृदन्तीय क्रमिकता एवं पुनरूक्ति
1. छिज्जन्तमहग्गयगरु अगत्त, णिवडन्त समुदय धवल छत्तु ।।2 2. तणुतावइ लावइ पेम्म जरु, पायल्लइ सहुई कुसुमसरु ।
विधति काम उक्कोवई, रोवइ उज्जंगल लोयगई।53
2.2.2 प्रारंभपूर्वत्व बोधक पक्ष-प्रारंभ से पूर्व की स्थिति में उक्ति के शुन्य बिन्दु तथा कार्यारंभ बिन्दु के बीच के अन्तर को क्षीण करने या न करने का वक्ता का मानसिक प्रयास रहता है जिसे मानसिक घटना या वृत्ति के रूप में नही बल्कि कार्यारंभ की पूर्व सूचना या कार्यारंभ के एकदम पूर्व के व्यापार के रूप में लिया जा सकता है इसमें कार्यारंभ की तात्कालिकता का बोध निहित रहता है।
2.
....