Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती
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यह स्वयंभू के 'पक्ष' विचार का चंचुग्राही प्रयास है । जब आधुनिक भारतीय भाषात्रों में 'पक्ष' संबन्धी अनेक रूप अन्वेष्य हैं तो उसके प्रारंभिक रूप में भी वे बीज विद्यमान होने चाहिए जो प्रागे जाकर वृक्ष बने हैं। हिन्दी के अनेक रूप तो वैसे के वैसे ही हैं । अतः यह प्रारंभिक होते हुए भी विचारोत्तेजक होगा और हिन्दी प्रभृति आधुनिक भारतीय भाषाभों का अपभ्रंश से द्रवीभूत रूप में सम्बन्ध जोड़ने में दिशा-निर्देशक भी, प्रभाव का संकेत बहिरत्व का सूचक होता है, न कि अपनत्व और प्रान्तरिकता का ।
जहँ चन्दकन्तिमणि चंदियउ ससि मरणेवि प्रनदियेहे जे वंदियउ ।
जहँ सुरकन्तिमरिण विप्रियउ, रवि मरणेवि जलाई मुमन्ति दिय । 137 ऐत्तडउ जाम जंपइ वयणु, गउताम दिवायरु प्रत्थवणु ।
पडवण्णु रयणि वित्थरिउ तमु, कउहंतर कसणि करण खमु 138 छुडु जे छुडु जे सरहो आगमणे, सच्छाय महादुमजायवरणे | 139
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हाकेट, ए कोर्स इन मार्डन लिंग्विस्टिक्स, न्यूयार्क, 1958, पृ. 273 । 2. ल्योन्स, इंट्रोडक्शन टु थ्यॉरीटीकल लिंग्विस्टिक्स, 1968 पृ. 313 ।
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4.
रमानाथ सहाय, हिन्दीकाल, वृत्ति और पक्ष, गवेषणा, 1978 अंक 31, पृ. 20-33 । (अ) पालित्तणरइया वित्थरो तस्सदेसी वयहि, पदालिप्त सूरि, याकोबी, सनकुमार चरित की भूमिका, 1921 पृ. 178 ৷
( आ ) पाययभासा रइया भाहट्ठयदेसी वयणणिबद्धा, उद्योतन सूरि, लीलावई की भूमिका, भा. वि. भ. पृ. 178 ।
(इ) भारिणीयं च पिययभाए रइयं मरहट्ठ देसी भासाए, कोऊहल लीलावईगाहा, 13/30 1
(ई) सक्कयपायय पुलिरणालंकियदेसी भासा उभयतडुज्जल । स्वंयभू पउमचरिउ, भयारणी, 1953, 1.2.3-4 ।
( उ ) ण हउं होमि वियव खणु ण मुररामि लक्खणु छंद देसिण वियारणमि । पुष्पदन्त, महापुराणु, डॉ. हीरालाल जैन, भा. दि. जैन ग्रंथमाला बंबई, 1941 1.8.10 ।
(ऊ) ततो देशे देशे प्रति विषयं लोक: पामर जनो यया यया गिरा भ्रष्ट्या । पं. दामोदर, उक्ति व्यक्ति प्रकरण श्लोक 37, विवृति ।
(ए) देसिल वचना सवजन मिट्ठा, विद्यापति, कीर्तिलता, 1.21-22
डॉ. भयाणी, पउमचरिउ, भाग-1, भा. वि. भ., 1953, भूमिका पृ. 68.69.71 ।
डॉ. बाबूराम सक्सेना, सामान्य भाषा विज्ञान, हि. सा. स. प्रयाग, 1965, पृ. 142 ।
वेन्द्रियेज, अनु. बलवीर, भाषा इतिहास की भाषा वैज्ञानिक भूमिका, सूचना विभाग उत्तरप्रदेश, लखनऊ 1966, पृ. 120 ।
डॉ. राजगोपालन, हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक व्याकरण, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान प्रागरा, 1971, q. 74 1