Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश - भारती
हुए
गए (और) हाथी की तरह घने वन में चले गये ( 2 ) । ज्योंही विशाल वन में प्रवेश करते (वे ) ( श्रागे बढ़े ), त्योंही ( उनके द्वारा ) बरगद का महावृक्ष देखा गया ( 3 ) । ( वह वृक्ष ऐसा था) मानो शिक्षक के रूप को धारण करके सुन्दर स्वर व अक्षर पक्षियों को पढ़ाता हो ( 4 ) । कौए नये कोमल पत्तों (वाली टहनी) पर (बैठे हुए) क - क्का, कक्का बोलते थे (और) बाउलि पक्षी कि क्की, किक्की, कहते थे ( 5 ) । जलमुर्गे कुक्कू, कुक्कू कहते थे, और भी मोर (तथा) के-क्कई, के-क्कई बोलते थे ( 6 ) । कोयले को - क्कऊ, को-क्कऊ बोलती थीं (तथा) पपीहा कंका, कंका बोलते थे ( 7 ) । इस तरह से ) वह श्रेष्ठ वृक्ष फल-पत्तों वाला था (और) गुरु गणधर के समान अक्षरों का भण्डार था ( 8 ) ।
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असुरों का नाश करनेवाले दशरथ के पुत्र, राम-लक्ष्मण द्वारा वन में प्रवेश करते ही ( बरगद का ) वृक्ष मुनि की तरह नमन किया गया और ( उसकी ) परिक्रमा करके (उनके द्वारा ) स्वयं अपनी भुजाओं से ( उसका ) अभिनन्दन किया गया ।
सीय स-लक्खणु दासरहि पसरइ सु-कइहे कव्वु जिह
28.1
तरुवर-मूलें परिट्ठिय जावे हिं । मेह-जालु गयणङ्गणें ताबें हिं ॥
सीय (सीया ) 1 / 1 स - लक्खणु ( स - लक्खण ) 1 / 1 वि दास रहि ( दास रहि ) 1 / 1 तरुवर - मूले [ (तरु) - (वर) वि- (मूल) 7 / 1 ] परिट्ठिय (परिट्ठिय) भूकृ 1 / 1 अनि जावेहि= जाहि (प्र) = ज्योंही पसरइ 1 ( पसर) व 3 / 1 अक सु-कइहे 2 ( सु-कइ ) 6 / 1 कव्वु ( कव्व ) 1 / 1 जिह ( अ ) = की भाँति मेह-जालु [ ( मेह) - ( जाल ) 1 / 1 ] गयणङ्गणे [ ( गयण) +(अङ्गणे ) ] [ ( गयण ) - ( अङ्गण ) 7 / 1] तावेहिं तावहिं ( अ ) = त्योंही ।
1. वर्तमान काल का प्रयोग कभी कभी अतीत काल के लिए होता है ।
2. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 156 ।
ज्योंही दशरथ - पुत्र (राम) और सीता लक्ष्मण के साथ ( उस ) श्रेष्ठ वृक्ष के नीचे के भाग में टिके त्योंही सुकवि के काव्य की भाँति बादलों के सघन समूह प्रकाश के प्रांगन में चारों ओर फैल गए ।
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पसरइ मेह-विन्दु गयणङ्गणे । पसरइ जेम सेण्णु समरङ्गणें ॥ 1 ॥ पसरइ जेम तिमिरु अण्णा हो पसरइ जेम बुद्धि बहु - जागहों ॥ 2 ॥ पसरइ जेम पाउ पाविट्ठहों । पसरइ जेम धम्मु षम्मिट्टहों ॥। 3 11 पसरइ जेम जोन्ह मयवाहहों । पसरइ जेम कित्ति जगरगाहहों ॥ 4 ॥ पसरइ जेम चिन्त धण होणहो । पसरइ जेम कित्ति सुकुलीणहों ॥ 5 ॥ पसरइ जेम सदु सुर-तूरहों । पसरइ जेम रासि हे सूरहों ॥ 6 ॥ पसरइ जेम दवग्गि वरणन्तरे । पसरइ मेह-जालु तिह अम्बरे ॥ 7 ॥ afsasuss uss घणु गज्जड । जारगइ रामहो सरण पवज्जइ ॥ 8 ॥