Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 55
________________ अपभ्रंश भारती 2. विण्णि वि तण-ते याहय-तिमिर, विण्णि वि जिण-चरण-कमल-ण मिर ।104 3. णिल्लोणु मुमइ सलोणु सरइ णिय सहाउ ऍउ तियमइहे ।105 2.2.61 नित्यता और प्रावृत्ति 1- अहि प्रसइ तो वि सिहि महरवाणि 1106 2. मणु जुज्झहों उप्परि तासु णिरारिउ अच्छहइ ।107 3. खल खुद्दई दुक्कियकाराई, णारइय णरय-पइसाराई ।108 4. अच्चंत सहंत चिंततिहि मि, पहुसेव सुदुक्कर सब्वहम्मि । 100 2.2.7 प्रगति द्योतक पक्ष-इससे व्यापार के निरन्तर विकास की प्रक्रिया सूचित होती है अर्थात् ब्यापार पूर्ण नहीं हुआ है, बल्कि उसके विकास की प्रक्रिया प्रगति पर है। 2.2.70 भूतकालिक कृदंत+धातु+इज्ज+वर्तमान कलिक तिङ्तरूप पत्तिय एवहि रावणु जिज्जइ, णिय मणे सयल संकवज्जिज्जइ । मिलिउ विहीसणु सुलंक पईसहो, लग्गउ करयले सीयहलीसहो ।110 2.2.71 भूतकालिक कृदन्तों को विकसनशीलता _.......... परिउली दिवसु अत्थमिउ मित्तु । अणुरत्त सज्ज ण वेस अाय, णं रक्खसिरत्तारत्तजाय । बहलन्षयार पुणु ढुक्कु राइ, मसि खप्परु विहिउ समत्थ णाई।11 2.2.72 वर्तमानकालिक विकसनशील क्रियाभ्यास 1. भीसण रयणि हिं भीसण अडइ, खाइ व गिलइ व उवरि व पडइ ।112 2. वइरई ण कुहन्ति जज्जरई, हउ हणई णिरुत्त सत्तमवन्तरइं ।113 2.2.8 समाप्ति घोतक पक्ष-इसमें कार्य की पूर्णता प्रांतरिक काल क्षेत्र के भीतर से तथा प्रारंभ, मध्य और अन्त प्रादि विभिन्न चरणों से बनी एक प्रक्रिया की समाप्ति के रूप में देखी जाती है। /हो, लग्गा, /ग्रासी, कर आदि रंजक क्रियाएं इसकी द्योतक हैं। 2.2.80 विशेषण+रंजक क्रिया हो । 1. कि दुव्वलि हूयउ कुमार तुहुँ ।14 2. मुहली हूयउ कम जुयलु किं रणेउर सदें ।115 3. गउ वन्दणं उत्तिएँ जिणवरासु, पासण्णी हूउ महीहरासु । 4. गय पाएं बुड्ढी हूयएँ ण मऍण जि कह व ण मारियइं ।117 2.2.81 विशेषण+रंजक क्रिया कर् 1. जेण णिरत्थी किउ णलकुव्वर ।18

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