Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती
को 'पउमचरिउ' के शब्द और रूप दोनों ही में निरखा-परखा गया है जिसका चंचूग्राही प्रयत्न विद्वानों के सामने है।
शब्द संधि
+
नियम-1
यदि प्र (स्वर) के परे प्र (स्वर) हो तो पूर्ववर्ती प्र का लोप हो जाता है और परवर्ती प्र अपने मूलरूप में सुरक्षित रहता है, अर्थात्
प्र+प्रअ, यथाकम्मट्ठ कम्म-+अट्ठ
अअअ 1.1.4 वामद्ध वाम+अद्ध
अ---अ-अ 1.6.8 गयणगण गयण+प्रङ्गण
अ+अ अ 1.6.9 मोहन्धार मोह-अन्धार
अ+अ ग्र 1.16.9 वामकरगुट्ठउ वामकर+अगु?उ
प्र+अ= 2.7.4 णीलजण णील+अञ्जण
प्र+ = 2.9.5 भरियञ्जलि भरिय+अञ्जलि
अ+अ अ 2.16.9 कुसुमञ्जलि कुसुम+अञ्जलि
अ+अग्र 2.17.5 झारणग्गि झाण+-अग्गि
प्र+ = 3.2.3 वत्तीसट्ठारह वत्तीस+अट्ठारह
अ+प्रअ 2.17.7 गोट्ठङ्गणे गोट्ठ+अङ्गणे
अ+अ-अ 4.1.2 अवुहन्भन्तरे अवुह +अब्भन्तरे
अ+ = 4.1.1 सव्वगु सव्व + अगु
अ+प्र= 4.14.2 मउलञ्जलि मउल+अञ्जलि
अ+ = 3.7.8 महण्णव मह-अण्णव
अ- प्र-अ 5.16.3 पय--अई
अ+ = 1.8.2 वयण वयण+प्रई
अ+ = 1.8.1
+
पयई
अपवाद
प्रमा
नीचे दिये हुए शब्दों में प्र+प्रपा संधि का स्वरूप दीख पड़ता है। इसका कारण यह है कि ये अपभ्रंश के मूल और प्रचुरप्रयुक्त शब्द नहीं हैं। इन्हें संस्कृत से ज्यों का त्यों आदत्त किया गया है केवल ध्वनिसादृश्य से अपभ्रंश की ध्वनि में परिवर्तित भर किया गया है । अतः इन उदाहरणों से पहला नियम खण्डित नहीं होता, यथा
कल्पामर कप्पामर पंचाणुव्रत पंचाणुव्वय धर्माधर्म धम्माहम्म
कप्प+अमर पंच+अणुव्यय धम्म+अहम्म
अ+ग्र=मा 2.1 अ-अप्रा 2.10 अ---ग्र=पा 3.11