Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
View full book text
________________
अपभ्रश-भारती
35
रहता है जिसका संदर्भ प्रोक्ति है। इसमें समय की सूचना मात्र क्रिया के अर्थ पर निर्भर नहीं करती, बल्कि पूरे वाक्यार्थ को अपना आधार बनाती है। क्रियार्थ की प्रक्रिया में निहित समय और प्रोक्ति के विषय में निहित समय एक नहीं होता और वास्तविकता तो यह है कि इस दो प्रकार के समय का परस्पर संबंध ही सही अर्थों में 'पक्ष' की प्रकृति को निर्धारित करता है। अतः 'पक्ष' के दो युग्म हैं-1. पूर्णकालिक बनाम अपूर्णकालिक तथा 2. पूर्ण बनाम अपूर्ण । 'पूर्णकालिक पक्ष' में विधेयवाची प्रक्रिया का समय अनिवार्यतः प्रोक्ति के विषय के दायरे के भीतर होता है और 'अपूर्णकालिक पक्ष' में विषय का समय विधेयवाची प्रक्रिया के समय के दायरे के भीतर । 'पूर्ण पक्ष' में पूरी प्रक्रिया वक्ता के दृष्टिकोण में रहती है और क्रिया अंतिम परिणति तक पहुंच चुकती है इसलिए आगे और होने की संभावना समाप्त हो जाती है, 'अपूर्णपक्ष' में काम शेप होने का भाव बना रहता है ।'13 कुछ विद्वान् 'पूर्णकालिक', 'अपूर्णकालिक' तथा 'पूर्ण', 'अपूर्ण' में भेद न कर इन्हें 'व्यापार' 'फल' से समीकृत करते हैं ।14 लेकिन बात बारीकी में नहीं उतर पाती।
1.4 आर्य भाषाओं में ही नहीं विश्व भाषाओं के व्याकरणों में भी 'पक्ष' का विवेचन बहुत स्पष्ट नहीं है, यद्यपि यह 'काल' की अपेक्षा अधिक प्राचीन, मूलभूत एवं व्यापक रहा है। 'संस्कृत' आर्य परिवार की सर्वाधिक प्राचीन भाषा है। उसके व्याकरणों में न 'पक्ष' या 'तात्पर्याय' शब्द ही है और न अंग्रेजी के 'एस्पेक्ट' अर्थ में विवेचन ही, हाँ 'धात्वर्थनिर्णय में प्रकारान्तर से संकेत अवश्य है। 'भर्तृहरि' ने क्रिया में क्रियातत्व के अस्तित्व के लिए क्रमिकता का निर्देश किया है
यावत्सिद्धमसिद्धम् वा साध्यत्वेनाभिधीयते । माश्रितक्रमरूपत्वात् तत क्रियेत्यभिधीयते ।15
इसके छह भाव विकार हैं प्राविर्भाव, तिरोभाव, जन्म, नाश आदि । यही बात भर्तृहरि ने भी अपने वाक्यपदीय (1.3 ) में कही है
आध्याहितकलां यस्य कालशक्तिमुपाश्रितः । जन्मादयो विकाराः षड्भावभेदस्ययोनयः ॥ प्राविर्भाव तिरोभाव जन्मनाशोतथापरे ।
षटसु भावविकारेषु कल्पितोव्यावहारिको 116 यास्क ने व्यापार की छह अवस्थानों-जन्म, नाश, वृद्धि, क्षय, परिवर्तन और स्थिति का निर्देश किया है जो 'पक्ष' के निकट हैं
षडभाव विकाराः भवन्तीति वाायरिणः ।
जायतेऽस्ति विपरिणमतो वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यतीति ।17 ये क्रम से उत्पन्न होनेवाले अनेक अवयवीभूत व्यापार ही हैं जिन्हें संकल्पनात्मक प्रखंडबुद्धि से समग्ररूप में ग्रहण करना आवश्यक है।
गुणाभूतैरवयवः समूहः क्रमजन्मनाम् । बुद्ध या प्रकल्पिताभेदः क्रियेतिव्यपदिश्यते ।18