Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 47
________________ 36 अपभ्रंश-भारती 'पतंजलि' द्वारा 'अभ्यावृत्ति' शीर्षक के अन्तर्गत की गई चर्चाएं वैसे 'एस्पेक्ट' तो नहीं कही जा सकतीं, लेकिन बहत दूर भी नहीं हैं। 'अभिमुखीवृत्ति' ही 'अभ्यावृत्ति' है19 जो भिन्नकाल की क्रियाओं में होती है-'अभ्यावृत्तिहिभिन्नकालानां क्रियाणां भवति ।'20 'क्रियाभ्यावृत्ति' की तरह नित्य और 'पाभीक्ष्ण्य' भी क्रिया मे संबंद्ध हैं। बार-बार क्रिया की प्रवृत्ति 'अाभीक्ष्ण्य' है और जिस क्रिया को कर्ता प्रधानरूप से लगातार करता है, उसे 'नित्य' कहते हैं । इनमें अन्तर भी है-'पाभीक्ष्ण्य' में क्रिया की प्रावृत्ति प्रतीत होती है और 'नित्य' में क्रिया का अविच्छेद जान पड़ता है। इसी प्रकार “क्रिया समभिहार' शब्द भी क्रिया के बार-बार होने अथवा उसके तीव्र स्वरूप को व्यक्त करता है-'पौनः पुन्यभृशार्थो वा क्रियासमभिहारः' ।21 इस तरह 'धात्वर्थनिर्णय' में क्रमिक व्यापारयुक्त 'साध्यावस्था' भी निहित है और 'फल' रूप 'सिद्धावस्था' भी क्योंकि प्रत्येक क्रिया में 'व्यापार' के साथ 'फल' का योग होता है। फल और व्यापार के बीच जन्य-जनक संबंध है-फल जन्य है और व्यापार जनक । इस प्रकार अवयवभूत गौण क्रियाओं की क्रमिक अवस्था से जो व्यापार होता है उससे फल की निष्पत्ति होती है। इस तरह यहां 'पक्ष' का वैज्ञानिक विश्लेषण अछुता रह गया है और 'काल', 'वृत्ति' तथा 'पक्ष' तीनों को लकार से अभिहित कर दिया गया है। 1.5 'काल', 'पक्ष' और 'वृत्ति' भिन्न-भिन्न व्याकरणीक कोटियाँ हैं । 'काल' और 'पक्ष' का व्यापार के भौतिक अंग से संबंध है। इनकी सत्ता भी भापामात्र में निहित होती है। भाषा के बाहर का काल समय कहलाता है जो अनादि, अनन्त और अविभाज्य भी है और अविच्छिन्न रूप से निरंतर एक दिशा में गतिमान भी। काम चलाने के लिए इसको विभाजित कर लिया जाता है-क्षण इसकी सबसे छोटी इकाई है ज्यामितीय बिन्दु के सदृश जो सर्वथा पायामविहीन है । इसके तीन संघटक हैं-कोई एक संदर्भ बिन्दु या निर्देशांक, अवधि की कोई न कोई धारणा और आगे-पीछे का क्रम । समाज की दृष्टि से सार्वजनीन निर्देशांक ही महत्वपूर्ण है, इसलिए सामान्य और नियत घटना ईस्वी, विक्रमीय, संवत्, शती जैसे पायामों में की जाती है, साल, महीना, दिन, घंटा आदि अवधि के अवयव हैं। लेकिन भाषा में प्रोक्ति और प्रकथन में एकजनीन निर्देशांक और अवधि के दर्शन होते हैं क्योंकि वह वक्ताकेन्द्रित होता है। सामान्यत: जगत् का प्रत्येक कार्य व्यापार इस लौकिक समय के धरातल के किसी न किसी बिन्दु पर ही घटित होता है। जब यह व्यापार भाषा में समय-संदर्भ के प्रस्तुत होता है तो सामान्यतः प्रोक्ति का समय ही निर्देशांक का काम करता है जो उसे भूत, वर्तमान या भविष्यत् जैसे कृत्रिम खंडों में बांट देता है । यह कृत्रिम इसलिए कहा जाता है कि प्रवाह का कोई बिन्दु रोककर स्थिर नहीं किया जा सकता। यह संदर्भ बिन्दु ही उक्ति का शुन्य बिन्दु कहलाता है22 और इसके परिप्रेक्ष्य में विभाजित कालखंड व्याकरणिक काल । 1.6 'काल' समय नहीं है, समयबोध है-वक्तानिष्ठ, वक्ता का मनोभाषिक जगत् । यह लौकिक घटना संदर्भ की तरह निरपेक्ष और स्थिर नहीं है बल्कि गतिमान और सापेक्ष । अत: समयवाची क्रियाविशेषणों और परसर्गों का मूल्य भी सापेक्षिक है क्योंकि ये उक्ति समय पर नहीं, उसमें वर्णित या निहित किसी अन्य समय-बिन्दु पर आश्रित रहते हैं इस प्रकार 'काल' कार्य व्यापार के समय को किसी अन्य संदर्भ समय से जोड देता है जो उक्ति समय भी

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