Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती
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एहि तिह करेमि पुणु रहुवइ, जिह ण होमि पडिवारी तियमइ 112 इसी शम-भाव में 'पउमचरिउ' का पर्यवसान हो जाता है।
'मानव-मन की गहराई में उतरकर उसमें निहित सत्य को उभारने और चित्रित करने की अपभ्रंश के इस महाकवि में अनूठी क्षमता है, वे सच्चे संवेदनशील कवि हैं। काव्यगत विषय-विस्तार के बने रहने पर भी अनेक हृदयस्पर्शी अनछुए प्रसंगों की उद्भावना यहां देखे ही बनती है। जलक्रीड़ा, रनिवास आदि के इतिवृत्तात्मक प्रसंगों में भी कवि-कल्पना का माधु और चातुर्य दर्शनीय है । किन्तु श्रृंगार और करुण से परिसिंचित कोमल प्रसंगों की परिकल्पना ने तो कवि-हृदय की भाव-प्रवणता को जैसे सहृदय की अक्षुण्ण निधि ही बना दिया है ।
सैनिक-पति की पत्नी युद्ध के लिए जाते समय उसे विदाई देती हुई गजमुक्ताओं की मांग कर रही है, मुख राग लगाकर दर्पण दिखाती है, नेत्रों में अंजन लगाकर मस्तक पर तिलक करती है, पान का बीड़ा देती है, कभी उसके साथ आलिंगनबद्ध होती है, कभी सुरति के लिए श्रृंगार करती है, फूलों का सेहरा बांधती है, नए-नए वस्त्र धारण करती है ।13 श्रृंगारभावना के इस उतावलेपन में न जाने कितने घुले-मिले साहचर्य-स्वप्नों का साकार मूर्त विधान है । और अंत में युद्ध-भूमि की भावी आशंका से पत्नी का अन्तःकरण किस प्रकार भयाक्रांत है, शायद इसीलिए उसके भीतर का समचा समर्पित भाव एक साथ अभिव्यक्त होने के लिए व्यग्र हो उठा है। इससे भी आगे सच्ची वीरांगना के रूप में पति को कर्म-च्युत न होने सन्देश बड़ा ही करुणापूरित है- पत्ता-कहे वि अंगे रसोज्जेरण माइय, पिय रणबहुयएं सहुं ईसाइउ ।
जर तुहं तहे अणुराइउ वट्टहि, तो महु गहवय देवि पयहि ॥14 इसी प्रकार शक्ति-माहत लक्ष्मण के लिए भरत का विलाप बड़ा ही मार्मिक और करुणाप्लावित है । राम का विसाप तो सर्वत्र मिलता है, लेकिन भरत का अंतःकरण तो जैसे टूट-टूटकर खंडित होने लगता है
घत्ता-हा पई सोमित्ति मरंतएण मरइ णिस्तर वासरहि । -
भत्तार-विहूणिय पारि जिह, प्रज्जु प्रणाही हूय महि ।115 हा भायर ! वरहिण-महुर वाणि । महु णिवरिमोऽसि बाहिणउपानि ॥ हा । किं समुद्दे जल णिवहु खुट्ट । हा! किह बिटु कुंभकगहु फुटु । हा ! किह दिणयर कर-णियर चत्तु । हा.! किह प्रणंगु बोहग्गु पत्तु ॥ धत्ता-हा ! णिन्विसु किह परणिदु थिउ, णिप्पड ससि-सिहि सीयलउ ॥
टलरलिहूई केम महि, केम समीरणु णिच्चलर 116 गए-मोत्तिउ सिंघल बीवे मणि, बइरागरहों वज्जु पउह ।
मायइ सम्वइ लभंति जऍ, गवर ण लम्भइ भाइवर ॥ प्रज्जु प्रणाही हय महि में सचमुच अनभिव्यक्त वेदना का पारावार निहित है। रावण के लिए मंदोदरी का विनाप तो हृदयविदारक है ही-उठे भगारा केत्तिउ सुप्पइ ।18