Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy
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अपभ्रंश-भारती
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में ह्रस्व ऍ और ह्रस्व ओं का जन्म हुआ जो ह्रस्व प्रकार, इकार में प्रौर उकार की भांति अपना पृथक् अस्तित्व रखने लगे और मात्रा में भी एक मात्रिक बने रहे । पालोच्य कवि की भाषा भी इस प्रवृत्ति से अछूती नहीं रह सकी । यथा
मोक्ख <मोक्ष,1 जोहु <योधा,12 रज्ज <राज्य,18 तिण्णि <तीन, चुक्क <चूक, ऋका प्रयोग
'ऋ' लिपि-चिह्न तथा 'ऋ' के मात्रिक लिपि-चिह्न [ऋ] का प्रयोग पालोच्य कवि के ग्रन्थों में कहीं नहीं हुआ है किन्तु 'ऋ' का वर्णविकार कतिपय स्थलों पर अवश्य हुमा है जो इस प्रकार है'ऋ' का वर्णविकार
प्र-णच्च <नृत्य,16 मय <मृत," गहवइ <गृहपति,18 करवाल <कृपाण, कुलहर< कुलगृह2 ।
इ-हिय <हृदय, विहप्पइ <वृहस्पति,22 अमिय <अमृत, घि8 <धृष्ट, कियन्त <कृतान्त,25 दिढ <दृढ़ ।
उ-पुहई <पृथ्वी, मुउ<मृत,28 ए-गेहिणि <गृहिणि रि-रिद्धि <ऋद्धि,30 रित्ती <नैऋति:1
उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि 'ऋ' का सर्वाधिक वर्णविकार मालोच्य कवि की भाषा में प्र तथा इ में ही प्राप्त है । मूलस्वरों का प्रयोग
आलोच्य कवि की भाषा में प्रयुक्त सभी मूल स्वर पद के प्रादि, मध्य प्रौर अन्त तीनों स्थानों में प्रयुक्त हुए हैं किन्तु ह्रस्व एँ और प्रों पद के अन्त में न प्रयुक्त होकर आदि और मध्य में ही प्रयुक्त हुए हैं । यथा
मध्य
अन्त म - अभरिस मा -- प्राउ ६ - इच्छमि ई - ईसाएविध उ- उरू ॐ- ऊणउ47 ऐ - एत्तिउ60
मुएप्पिणु
संसारए ऐं - ऍहु मो- जोक्करेवि
तइलोक्क57 प्रो- प्रोसारिय58
विनोए50
आदि
मुम्र मुत्रा
करइ40
जुअलु हुमासणिय36 लइ739 मईउ42 भउडु45 भऊह
इन्दई43
पडिढऊ40
धएंण54
राएँ
सामिग्रो००