Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 17
________________ अपभ्रंश-भारती किन्तु, घर के भेदी विभीषण का विलाप अछूता होने के साथ भाव-विभोर करने तथा अंतस् को उद्वेलित करने में पूर्ण सक्षम है चरण धरेवि रुएवए लग्गउ । हा भायर ! मह मुएवि कहिं गउ । हा भायर !. दुण्णिद्दए भुत्तउ । सेज्ज मुएवि किं महियले सुत्तउ ॥ तुहुं ण निमोऽसि सयलु जिउ तिहुमणु । तुहं ण मुमोऽसि मुप्रउ वंदिय जणु ॥ विढि ण णट्ठ रण लंकाउरि । वाय रण गट्ठ गट्ठ मंदोयरि ।। हार ण तुटु तुटु तारायणु । हियउ ग भिण्ण भिष्णु गयणंगणु ॥ चक्कु ण दुक्कु ढुक्कु एक्कतरु। प्राउ रण खुट्ट खुट्ट रयणायर ॥ जीउ ग गउ गउ मासा-पोट्टलु । तुहुं ग सुत्त सुत्तउ महिमंडलु ॥30 . यहां पाउ ण खुटटु खुटु रयणायरु, तथा जीउ ण गउ गउ अासा पोट्टलु, में न केवल रावण के महान्तम व्यक्तित्व का संकेत होने से प्रात्मपीड़ा की व्यापकता है बल्कि शेष जीवन की आशा की इति की भी व्यंजना है। ऐसे और भी अनेक करुणा-पूरित प्रसंग उक्त महाकाव्य में द्रष्टव्य हैं। इसका एक ही मनोवैज्ञानिक कारण है-हदय का परिष्करण और उदात्तीकरण । इस स्थिति के उपरान्त ही व्यक्ति धर्मोन्मुख हो पाता है। इन प्रसंगों की उभावना में कवि का भावूक-हृदय अपनी पूर्णता और समग्रता के साथ सर्वत्र डुबा और भीगा है। इस प्रकार स्ययंभू सच्चे भाव-प्रवण कवि हैं। उनके 'पउमचरिउ' का फलक बड़ा व्यापक और विस्तृत है। मानव और मानवेतर प्रकृति के अनगिनत चित्र इसमें अंकित हैं । भाव और चिंतन, मन और बुद्धि का ऐसा मणि-कांचन संतुलन सामंजस्य अन्यत्र . दुर्लभ है। अपभ्रंश भाषा पर उनका अद्वितीय अधिकार है। लोक-प्रचलित अपभ्रंश । को काव्यात्मक लोच और व्यंजना के साथ 'प्रवाह-संयुक्त बनाए रखने की उनकी सामर्थ्य बेजोड़ है। बिखरे लोक-जीवन की बहुमूल्य अनुभूतियों और संवेदनात्रों ने उनके काव्यत्व में चार चांद लगा दिये हैं। साथ ही लोकाभिव्यक्ति के न जाने कितने-पुरातन मात्रिक छन्दों के नैसर्गिक प्रयोग ने उनकी कविता को कला के सौन्दर्य से अभिमंडित कर दिया है । शिल्प और काव्य रूप की दृष्टि से अपभ्रंश की कड़वक-शैली का ऐसा पुष्ट तथा सहृदय-ग्राह्य प्रयोग उनके इस काव्य का अद्भुत आकर्षण है। वे सचमुच अपभ्रंश के प्रतिष्ठित प्रादिकवि वाल्मीकि हैं । उन्होंने काव्य-क्षेत्र में नये भाव और नये सृजन को प्रेरणा दी है। जो भूमिका संस्कृत-काव्य के उन्नयन और समृद्धि में प्रादिकवि वाल्मीकि ने निभाई, उसी का निर्वाह स्वयंभू ने अपने 'पउमचरिउ' के माध्यम से अपभ्रंश साहित्य को प्रतिष्ठित करने में किया है। दोनों का सृजन अपने युग की लोक-संपत्ति है। अंतर मात्र इतना है कि चरितनायक कहीं इतिहास पुरुष है और कहीं धर्मपुरुष । महापंडित राहुल सांकृत्यायन के शब्दों में-'स्वयंभू आदि कवि अपनी पांच शताब्दियों में पास नहीं छीलते रहे। उन्होंने काव्य-निधि को और समृद्ध भाषा को और परिपुष्ट करने का जो महान् काम किया है वह हमारे साहित्य को उनकी ऐतिहासिक देन है । 1 1. कीर्तिलता, 1.13.35

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