Book Title: Apbhramsa Bharti 1990 01
Author(s): Kamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Chhotelal Sharma
Publisher: Apbhramsa Sahitya Academy

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Page 12
________________ अपभ्रंश के आदि कवि स्वयंभू -डॉ. त्रिलोकीनाथ 'प्रेमी भारतीय-वाङ्मय में पौराणिक काव्य-परम्परा समग्र भारतीय भाषामों के साहित्य के लिए महत्त्वपूर्ण उपजीव्य रही है । कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से परवर्ती काव्य उसका ऋणी है । शास्त्र और प्रागमों की विचारधारा को जन-जीवन में उतारने तथा सहज, रुचिकर एवम् बोधगम्य बनाने के लिए पौराणिक साहित्य के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता । यही कारण है कि प्र-वैदिक बौद्ध और जैन-धर्मावलंबी संप्रदायों में भी ऐसे साहित्य की संरचना का स्रोत स्फुरित हुमा मिलता है। बौद्ध तथा जैनों का अपरिमित कथा-साहित्य इसका निदर्शन है । बौद्ध-सिद्धों की तो वाणी का माध्यम जन-जीवन की भाषा से इतर हो जाने के कारण अपनी पृथक् लीक बना लेता है। किन्तु जैन मुनियों और कवियों ने धर्म के प्रचारार्थ जन-भाषा को अपनाकर अपने कृतित्व को अमर बना दिया। यह जन-भाषा अपभ्रंश है जो 8 वीं से 13 वीं शताब्दी तक समूचे उत्तर भारत में साहित्यिक अभिव्यक्ति का सबल माध्यम बनी रही । संस्कृत की तुलना में अपनी सरलता, सरसता, व्याकरणिक कठोरता से से दूर, परसगों की प्रयोगबहुलता और वाक्य-विन्यास की सहजता के कारण इसने न जाने कितने जैन-अजैन कवियों को काव्य-रचना के लिए आकर्षित किया। बंगाल के सरहपा प्रादि सिद्धों ने अपने 'दोहा-कोश' के लिए इसे चुना, तो मिथिला के विद्यापति ने स्थानीय बोली का पुट देकर इसे अपने गीतों का माध्यम बनाया-'देसिल बमना सब जन मिट्ठा । मुल्तान मुसलमान कवि अब्दुल रहमान के कंठ से भी 'संदेश रासक' विरह-काव्य की संरचना में

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