Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 10
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 29
________________ a सूनाशुगास्तुरङ्गास्तु दन्त्यतालव्ययोरपि । कोटिशश्चाप्यदन्त(न्त्य)स्तु ऋभृक्षः स्वर्गवज्रयोः ॥१२९।। कि(किं)नराश्वमुखौ भिन्ना भिन्नौ दैत्यासुरादिवत् । रिष्टारिष्टे अभिन्नार्थे भिन्नार्थे च क्वचिन्मते ॥१३०॥ वाग्मी वाल्मीकमित्रोल्का-सत्रछत्रपतत्रिणः । संस्कर्तेत्यादिसंयोगि शब्देष्वनुपयोगिषु ॥१३१॥ इदं तुल्याक्षरद्वन्द्वं स्यान्न चेद् भेदकं क्वचित् । यमकादावपीत्येषा चिन्ताऽस्माभिरुपेक्षिता ॥१३२।। तथा ह्यपश्यदद्राक्षी-दित्यत्रार्थे क्रियापदम् । आपः पयस्तनूकूर्व-दित्यन्यत्र पदद्वयम् ॥१३३॥ इति शब्दप्रभेदनिर्देशः समाप्तः ॥ __ अथाद्यदन्तौष्ठ्यवकारभेदः ॥ वृन्दारक व्रज वराटक वंदि वंदा वन्दारु वैर बदरी विटपान्वितं च । विद्वद् व्रणौ वरण बृंहण बोध बेधबन्धूर बन्धु बधिरान् वध बन्ध वृद्धान् ॥ १३४॥ १ वेलावलौ बहुल बाहुलक व्यलीकबोलं बिलं बलज बालक वालुकाश्च । बेहद् बृहद् बहल वाहन बाहु बभ्रुवस्तं बलिं वन बलाहक वंक वीथी: ॥१३५॥ २ वालेय वंजू(जु)ल वराह बका बलाका वालूकिका वकुल बुक्क बकेसकाश्च । बारुंड बाढ वरटानपि बावटीरवारुंड बंडक वरंडक वर्वटीश्च ।।१३६॥ ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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