Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 10
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
47
आवश्यकनियुक्तिनें अनुसारिं सुविहित वृद्ध गीतार्थने योगि पाक्खी चोमासी संवत्सरीखामणां करवा ज । अन्यथा सामान्य शुद्धि न थाइं पडिकमणुं पिण अप्रमाण थाइं। जे माटि व्यवहारसूत्रादिकनें अनुसारि आचार्यादिकने अयोगि स्थापनाचार्य आगलि आलोचना प्रमाण होइ ।।११ ॥
अष्टकवृत्ति विशेषावश्यकभाष्यादिकने अनुसार वर्तमान पंचाचार्यमांहि थापनाचार्यनइ विषई मुख्यवृत्तिं गछाचार्यनी स्थापना संभविइ छइ पछे गीतार्थ कहे ते प्रमाण ॥१२ ।।
श्रीसोमसुंदरसूरि प्रसादित सामाचारी कुलकने अनुसारि तपागछीय सुविहित साधुइ ४६ नियम गीतार्थ शाखि पडवजवा ॥१३ ॥
श्रुतव्यवहारई जीतव्यवहारइं लिहा पासिं संयतें उत्सर्गथी पुस्तक लिखावq नहीं ! कारणे लिखावें तो श्रीसोमसुंदरसूरि श्रीहीरविजयप्रसादित जल्पनें अनुसारि ५०० अथवा १००० गाथा लगइं गुरु आदिक आज्ञाई अन्यथा गुरुगच्छनिश्रित थाइं ते पुस्तक गुर्वादिकनी आज्ञा विना वांचq भणवू न कल्पे ॥१४॥
श्रुत जीत ऽगीतार्थसंयत पुस्तक क्रय विक्रे न ल्ये कारणि लेवू पडे तो गुरुनी आज्ञाइं गृहस्थ पासि लेवरावइ ॥१५ ॥
तथा श्रुतव्य. गुरुनी आज्ञा विना ऽगीतार्थ अपवाद सेवे नहीं ॥१७॥
जीतकल्पादिकनई अनुसारि ऋण आपी विशुद्ध न थाई तिहां सूधी देवाधि द्रव्य भक्षक साथि --- आहारादिक परिचय धर्मार्थी साधुइं श्रावकें न करवो। अनें ते दोषनी विपरीत [था]पना न करवी ॥१७॥
आवश्यकभाष्यादिकनें अनुसारि पोतानी टोलीना गृहस्थोने -- आवर्जवा निमित्ते पूर्वोक्त दोष सेवी जे गीतार्थ शाखि आलोयणा न ल्ये आप सुद्ध परुपक करी माने ते भूमीगत मिथ्यात्वी जाणिवा। तेह- उ----दर्शन न करवू ॥१८॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126