Book Title: Anusandhan 1997 00 SrNo 10
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ( ठाणंगसूत, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन,माहिती वगेरेनी पत्रिका १० संकलनकार : आचार्य विजयशीलचन्द्रसूरि. हरिवल्लभ भायाणी ooooo . - . શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृतिसंस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद १९९७ For Private & Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंगसूत्त, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे' अनुसंधान प्राकृतभाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका १० संपादको : विजयशीलचन्द्रसूरि हरिवल्लभ भायाणी શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि अहमदाबाद १९९७ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसंधान १० संपर्क : . हरिवल्लभ भायाणी २५/२, विमानगर, सेटेलाईट रोड, . अहमदाबाद - ३८० ०१५. प्रकाशक : कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अहमदाबाद , १९९७ किंमत : रू. ३५-०० प्राप्तिस्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद - ३८० ००१. मुद्रक : राकेश टाइपो-डुप्लिकेटींग व राकेशभाई हर्षदभाई शाह २७२, सेलर, बी.जी. यवर्स, दिल्ली दरवाजा बहार, अहमदाबाद - ३८० ००४. (फोन : ४६८९०९) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय निवेदन 'अनुसन्धान' मुख्यत्वे प्राकृत तथा जैन साहित्यना क्षेत्रे थतां सर्जन, संपादन, संशोधन आदिनी माहिती उपलब्ध करावी आपवा माटेनु एक माध्यम छे. तज्झोने तथा अभ्यासुओने आवी माहिती मळे, तो कोई कार्य बेवडातुं होय तो ख्याल आवे ; जाणकारो एक बीजा साथे पोतानी पासेनी माहिती, सामग्री के क्षमतानुं आदान-प्रदान करी शके इत्यादि घणा लाभो थाय, एवो आशय आनी पाछळ रह्यो छे. आम छतां, 'अनुसन्धान' मात्र माहितीपत्रिका न' बनी रहेतां एक शोध-पत्रिकाना स्वरूपमां पण निखरी रह्यं छे, ए तेना वाचकोथी हवे अजाण्यु नथी रह्यं. जे जे विद्वानो, मुनिराजो प्राकृत / जैन साहित्यना क्षेत्रमा कांई पण कार्य करतां होय, तेमने तेमना ते कार्यनी माहिती आपती नोंध मोकलतां रहेवानो अमारो अनुरोध छे. अनुसन्धानना स्वरूप तथा क्षेत्रनी मर्यादामां आवनारां आवां ज्ञान-कार्योनी नोंध लेतां आनन्द ज थशे. - संपादको Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 अनुक्रम वाचक-सिद्धिचन्द्रगणिकृतः मङ्गलवादः ॥ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि २. सोमतिलकसूरि-कृत : शत्रुजय- सं. विजयप्रद्युम्नसूरि १० यात्रा-वृतांतः महेश्वरकविरचिता संशयगरलजाङ्गुली- सं. विजयशीलचन्द्रसूरि नाममाला ४. आ.वर्धमानसूरि-शिष्य-श्रीसागरचंद्र सं. रमणीक शाह मुनिविरचित उत्तरकालीन अपभ्रंश भाषा-बद्ध नेमिनाथ-रास विजयमानसूरिकृत ‘पट्टक' सं. महाबोधिविजय श्रीपुण्यहर्षरचित लेखशृंगार सं. महाबोधिविजय ७. जगडूसाह - छंद सं. कांतिभाइ बी. शाह हस्तप्रतनी प्रशस्तिमा प्राप्त नगरो के डॉ. कनुभाई शेठ गामो अंगेनी ऐतिहासिक सामग्री : एक नोंध ९. ट्रंक नोंधो (१) 'व्यवहार भाष्य'नी एक गाथानी विजयशीलचंद्रसूरि पाठचर्चा (२) हेमचंद्राचार्यरचित कृष्णगोपीना ह. भायाणी प्रणयने लगतुं एक मुक्तक (३) शब्दप्रयोगो ह. भायाणी (४) बे परंपरानो एक समान पौराणिक विजयशीलचन्द्रसूरि ; कथाघटक ह. भायाणी १०. Desis Employed in Pradyum- Muni Rajhans Vijay navijaya's Samarāditya-Kevali-Ras ११. Notes on a few words H.C. Bhayani from Bollée's - Glossary to पिंडनिज्जुत्ति and ओहनिज्जुत्ति १२. Some sporadic notes on H. C. Bhayani the Bșhaddesi 33. Notes in some Prakrit wards 1С Зауат १४. संशोधन-समाचार : मेरु तुंग-- सं. डॉ. नारायण म. कंसारा १०८ बालावबोध- व्याकरण १५. वर्षानुं आगमन ह. भायाणी १६. प्रकीर्ण १०० १०५ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाचक-सिद्धिचन्द्रगणिकृतः मङ्गलवादः॥ - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि विक्रमना १६मा तथा १७मा शतको मां प्रभावशाली जैनाचार्य श्रीहीरविजयसूरिजीए तथा तेमना प्रतापी शिष्य-प्रशिष्योए ज्ञानाभ्यास अने साहित्यसर्जनना क्षेत्रे जे खेडाण कर्यु छे, तेनी तुलना तो मात्र ११-१२मा शतकमां, सोलंकीकाळमां थयेला साहित्यिक खेडाण साथे ज करी शकाय तेम छे. आ समयमां अनेक जैन मुनिवरोए काव्य, साहित्य, अलंकार, तर्क, व्याकरण, आगम वगेरे विषयो पर ग्रंथो तेमज टीकाग्रंथोनो मबलख फाल आप्यो छे, जेनी नोंध लीधा विना कोई इतिहासकार रही न शके. आ सर्जक वृन्दमांना ज एक समर्थ ग्रंथकार ते वाचक सिद्धिचन्द्र गणि. पोताना गुरु वाचक भानुचन्द्र गणिनी साथे, गुर्वाज्ञानुसार तथा बादशाहोनी विनंतिथी, शाह अकबर तेमज जहांगीरना दरबारोमां दायकाओ पर्यंत शाहमान्य पवित्र विद्वान धर्मोपदेशक साधु तरीकेनुं स्थान-मान भोगवनार, अकबरना हाथे "खुशफहम"नुं बिरुद प्राप्त करनार, १०८ अवधानो करनार, रूप, वाक्पटुता, विद्वत्ता अने फकीरीने कारणे बादशाहो तथा नूरजहां जेवी बेगमोने पण प्रभावित करनार वाचक सिद्धिचन्द्र गणिए रचेला ग्रंथोनी उपलब्ध यादी आ प्रमाणे छे: कादम्बरी-वृत्ति (उत्तरार्ध), वासवदत्ता-वृत्ति, विवेकविलास-वृत्ति, काव्यप्रकाशखण्डन, अनेकार्थनाममाला(अमरकोषनानार्थ)वृत्ति, भानुचन्द्रगणिचरित, प्राकृतसुभाषितसंग्रह, मंगलवाद इत्यादि. पोतानो अछडतो परिचय आपतां वासवदत्ता-वृत्तिना आरंभमां तेओए जे नोंध आपी छे, ते अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा अचंबो पमाडे तेवी छे : तत्पट्टपाथोनिधिवृद्धिचन्द्रः श्रीसिद्धिचन्द्राभिधवाचकेन्द्रः । बाल्येऽपि यं वीक्ष्य मनोज्ञरूप-मकब्बरः पुत्रपदं प्रपेदे ॥ पुनर्जहांगीरनरेन्द्रचन्द्र-प्रदीयमानामपि कामिनी यः । हठेन नोरीकृतवान् युवाऽपि, प्रत्यक्षमेतत् खलु चित्रमत्र । सिद्धिचन्द्र गणि पण, पोताना समयनी परंपरानुसार 'न्यायचिन्तामणि' ग्रंथना प्रकांड अध्येता हता. ते अध्ययनना परिणामे खीली उठेली तेमनी तार्किक प्रज्ञानो उन्मेष, तेमना काव्यप्रकाशखण्डन तथा प्रस्तुत 'मंगलवाद' जेवा ग्रंथोमां प्रगटतो जोवा मळे छे. . Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N 'मंगलवाद' ए तेमनी अप्रकट रचना तो छे ज, परंतु अज्ञात रचना पण छे. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास (मो.द.देसाई) तथा जैन परम्परानो इतिहास (दर्शनविजयजी त्रिपुटी) जेवा संदर्भ ग्रंथोमां एमनी विविध कृतिओनी उपलब्ध यादीओमां पण 'मंगलवाद'नुं नाम नथी. आ ग्रंथनी नकल पण अद्यावधि क्यांय जोवा मळी नथी. आनी एक मात्र प्रति, ते पण ग्रंथकार मुनिराजना पोताना ज हस्ताक्षरमां, भावनगरनी श्री जैन आत्मानन्द सभामांना पं. श्री भक्तिविजयजी ग्रंथसंग्रहमां मोजूद छे. तेनी झेरोक्स नकलना आधारे आ संपादन अहीं प्रस्तुत छे. नवीन न्यायना अभ्यासीओ मंगलवाद अने ईश्वरवादथी अवश्य परिचित होय ज. एमां ज एमनी तार्किकतानो पायो नंखातो होय छे. ए ज कारणे आ विषय एमने माटे रसप्रद पण बनी ज रहेवानो. आवा मजाना विषयने लईने रचाएली एक कृतिनो उद्धार आ स्वरूपे थई शके छे तेनो आनंद छे. आ ग्रंथनी झेरोक्स नकल करावी आपवा बदल, भावनगरनी श्रीजैन आत्मानन्द सभाना तंत्रवाहकोनो आभार मानुं छं. वाचक सिद्धिचन्द्र गणि विशे अत्रे नोंधेली केटलीक विगतो "जैन परंपरानो इतिहास-३" (ले. त्रिपुटी-मुनि दर्शनविजयजी, ई. १९६४, अमदावाद)न्म आधारे लीधेल छे. -x--x--- वाचक सिद्धिचन्द्रगणिकृतः मङ्गलवादः एँ नमः ॥ शकेश्वरपुराधीशं श्रेयोवल्लीनवाम्बुदम् । विघ्नौघमत्तमातङ्ग-पञ्चास्यं श्रीजिनं भजे ॥ १॥ अथ मङ्गलवादः प्रारभ्यते ॥ तत्र "मङ्गलमङ्गं , ग्रन्थः प्रधानं, समाप्तिः फलं, विघ्नध्वंसो द्वारं" इत्युदयनाचार्यः । अङ्गत्वं च यद्यपि न तावत् फलवत्सन्निधिमत्त्वे सत्यफलत्वं, मङ्गलेऽफलत्वाभावात् समाप्तिफलकत्वात् । नाऽपि प्रधानफलाति Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिक्तफलाजनकत्वं, मङ्गलेन प्रधानफलातिरिक्तस्य प्रधानस्यैव जननात् । नाऽपि प्रधानतत्फलातिरिक्तफलाजनकत्वं, विघ्नध्वंसस्य तदुभयभिन्नस्य जननात् । तथापि अधिकाररूपकामनाविषयप्रधानतत्फलातिरिक्तफलाजनकत्वमेवाऽङ्गत्वम् । विघ्नध्वंसकामना तु नाऽधिकाररूपा, यत्कामनया प्रवर्तते तस्या एवाऽधिकाररूपत्वात् । सा च प्रस्तुते समाप्तिकामनैव। न चैवं खादिरताऽङ्गं न स्यात, अधिकाररूपकामनाविषयवीर्यलक्षणफलसाधनत्वादिति वाच्यं, वीर्यस्य प्रधानव्यतिरेकेण व्यतिरेके प्रधान फलत्वादेव। न हि यागं विक्रियमाणः खादिरो यूपो वीर्याय भवतीत्यन्यत्र विस्तरः । मङ्गलं प्रधानं, अदृष्टं द्वारं, समाप्तिः फलमित्येके। विघ्नसंसर्गाभाव एव द्वारमित्यपरे। मङ्गलं प्रधानं, विघ्नप्रागभाव एव फलमित्यन्ये । मङ्गलं प्रधानं, विघ्नध्वंस: फलमिति चिन्तामणिकृतः । तत्र चिन्तामणिकारीय एवं पक्षश्चेतसि चमत्कारमादधानः पक्षान्तरस्पृहामपि निवर्तयति। तथाहि- न तावन्मङ्गलं समाप्तिकारणं, अन्वयव्यतिरेकव्यभिचाराभ्यां मङ्गले सत्यप्यसमाप्तेः, मङ्गलं विनाऽपि समाप्तेः । न च नाऽन्वयव्यभिचारो दोषाय, दण्डे सति क्वचिद् घटाभावदर्शनात्, दण्डस्य कारणत्वाभावापत्तेरिति वाच्यं, लौकिकस्थले तस्याऽदोषत्वेऽपि वैदिकस्थले दोषत्वात् । अन्यथाऽन्वयव्यभिचारशङ्कया वैदिके कर्मणि क्वापि निःशङ्कं न प्रवर्तेत । न चाऽयं प्रधानो नियमो न त्वङ्गे कृतप्रयाजस्यापि ज्योति:ष्टोमं विना स्वर्गादर्शनादिति वाच्यं, तथापि व्यतिरेकव्यभिचारस्य वज्रलेपत्वात् । प्रयाजं विना स्वर्गाभाव इति व्यतिरेकस्य प्रयाजेऽङ्गेऽपि सत्त्वात्, प्रकृते तदभावाच्च । अत्र केचित् जन्मान्तरीयमङ्गलस्य तत्र कारणत्वेन न व्यतिरेकव्यभिचार इत्याहुः। तन्न, ऐहिकसमाप्ति प्रति जन्मान्तरीयमङ्गलस्याऽहेतुत्वात् । 'इदं मे समाप्यतां' इति कामनया क्रियमाणस्य तस्य तदानींतनसमाप्तिकारणताङ्गीकारात् । पुढेष्ट्यादौ तु ऐहिकपुत्रबाधे आमुष्मिकं फलं कल्प्यते, तत्र सामान्यतः पुत्रमात्रस्य कामनाश्रवणात् । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्ये तु - "श्रुत्या हि कारणत्वं बोध्यते । सा च व्यतिरेकव्यभिचारग्रस्ता कारणतां बोधयितुं न शक्नोति। ततो व्यभिचारपरिहाराय जन्मान्तरीयमङ्गलानुमानं वाच्यम्। तथा चाऽन्योन्याश्रयः। तथा हि-जन्मान्तरीयमङ्गलेऽनुमतेऽव्यभिचारेण श्रुतिः कारणतां बो धयितुं शक्नोति, श्रुत्या च कारणत्वे बोधिते जन्मान्तरीयमङ्गलमनुमातुं शक्यत" इति प्रावोचन् । तन्न, कारणताग्रहो न जन्मान्तरीयमङ्गलसाध्यो येनाऽन्योन्याश्रयः स्यात् । न च तदनुपस्थितौ व्यभिचारग्रहस्य विद्यमानत्वात् कथं कारणताग्रह इति वाच्यं, आचारकल्पित श्रुत्या कारणतावगमसमये जन्मान्तरीयमङ्गलसन्देहेन व्यभिचारनिश्चयस्याऽभावात्, तत्संशयस्य योग्यतासंशयपर्यवसन्नत्वेनाऽनुगुणत्वात् ।। यत्तु, "कारणताग्रहो व्यभिचारग्रहे भवत्येव, यथा वह्नि प्रति तृणादेरिति", तदपि न ; तृणारणिमणिस्थलेऽकार्याकारणव्यावृत्तरूपं वह्निनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकरूपवत्त्वं तृणादौ, तृणारणिमणिनिष्ठकारणताप्रतियोगिककार्यतावच्छेदकरूपवत्त्वं वह्नौ वा परिच्छिद्यत इति, तृणत्ववह्नित्वाद्यवच्छेदेन कार्यकारणग्रहाभावात् । न च-तृ णत्वे वह्नित्वाद्यवच्छेदेन कार्यकारणभावाग्र हे ऽपि तत्सामानाधिकरण्येन तु कार्यकारणभावग्रहे बाधकाभावः । तदवच्छिन्नव्यभिचारग्रहस्य तदवच्छिन्नका[ण]ताग्रहप्रतिबन्धकत्वात् । तद्वदेवाऽत्राऽपि कारणताग्रहोऽस्त्विति वाच्यं, अरणिमण्यभाववति स्तोमे तृणान्वयव्यतिरेकवदिह तद्ग्राहकस्याऽभावात् । न च श्रुत्यैव समाप्तित्वमङ्गलत्वसामानाधिकरण्येन कार्यकारणभावग्रहे बाधकाभावः, पूर्वोक्तन्यायेन व्यभिचारज्ञानस्याऽप्रतिबन्धकत्वादितिवाच्यं, समाप्तित्वमङ्गलत्वाद्यवच्छेदेनैव कार्यकारणभावस्य परेण क्षिप्तत्वात् ।। तस्मात् माऽस्तु समाप्तिमात्रं प्रति कारणता, व्यभिचारेण, समाप्तिविशेषे तु भविष्यति, तत्र व्यभिचाराभावात् । यथा यागस्य न स्वर्गमात्रे कारणता, गङ्गास्नानजन्ये स्वर्गे व्यभिचारात् ; स्वर्गविशेषे त्वस्त्येव । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननु स्वर्गे जातिरूपो विशेषः सम्भवति समाप्तौ तु न सम्भवति । तथाहि - न हि चरमवर्ण-तद्ध्वंस-तदुच्चारणानि समाप्तयः, मौनिकृतग्रन्थसमाप्त्यव्यापनात् । तेन हि केनचिदुत्पादितस्य वर्णस्याऽनुसन्धानमात्रं क्रियते न तु वर्णादिकमुच्चार्यते । तथा च चरमवर्णज्ञानं समाप्तिर्वाच्या । न च तत्र जातिः सम्भवति, चरमवर्णज्ञानस्य मानसादिभेदभिन्नतया तत्र जातिस्वीकारे • जातिसाङ्कर्यापत्तेः । न हि यत्र मानसत्वं तत्र सा जातिः सम्भवति, सुखादिसाक्षात्कारे मानसत्वसत्त्वेन तज्जातेरभावात्, श्रावणादिरूपे चरमवर्णज्ञाने तज्जातिसत्त्वेन मानसत्वाभावात्, उपनयमादाय मानसे चरमवर्णज्ञाने द्वयसत्त्वात्। तस्मात् कथं मङ्गलस्य समाप्तिविशेषे कारणत्वमिति चेत् ? न, उपाधिरूपस्यैव विशेषस्य सत्त्वात् । स तु नाऽखण्ड उपाधिः सखण्डसम्भवे स्वीकारार्हः, गुरुत्वात् । सखण्डापेक्षया हि तस्येदमेव गौरवं यदक्लृप्तकल्पनेति। सखण्डे हि घटका विशेषणादयः । तेषां परस्परं सम्बन्धः क्लृप्त एव । यथा पाचकत्वमित्यादौ पाककृत्यादेः। अखण्डस्तूपाधिभिन्न एव स्यादिति सखण्डो वाच्यः । स च न विघ्नस्थलीयसमाप्तित्वम् । विघ्नस्थलीयत्वं हि विघ्नसमानकालीनत्वम् । तन्न, असम्भवात् । न हि प्रतिबन्धकसमकालीनं कार्यत्वं सम्भवति । विघ्नोत्तरकालीनं चेत्तदा व्यभिचारः, गङ्गास्नानेन दशविधपापान्तरगततया विघ्ने नष्टे विघ्नोत्तरसमाप्तेर्मङ्गलं विनाऽपि भावात् । नाऽपि विघ्नध्वंसस्थलीयसमाप्तित्वं, गङ्गास्नानजन्यविघ्नध्वंसस्थलीयसमातेस्तेन विनाऽपि भावात् । नाऽपि मङ्गलजन्यविघ्नध्वंसस्थलीयसमाप्तित्वं, अन्यथासिद्धेः, येन विघ्नध्वंसादिनाऽन्या समाप्तिस्तेनैव प्रकृताया अपि सम्भवात् । अन्यथा गङ्गास्नानादिजन्यविघ्नध्वंसजन्यसमाप्ति प्रति गङ्गास्नानस्यापि जनकतापत्तेः । अत एव न मङ्गलव्यापारीभूतविघ्नध्वंसजन्यसमाप्तित्वमपि कार्यतावच्छेदकं, आत्माश्रयाच्चाऽवच्छेद्यस्याऽवच्छेदके प्रवेशात् । समाप्तिनिष्ठमङ्गलजन्यता ह्यवच्छेद्या, तच्चावच्छेदके प्रविशति । मङ्गलव्यापारीभूतत्वं Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 मङ्गलजन्यत्वे सति मङ्गलजन्यजनकत्वं तत्र मङ्गलजन्यजनकत्वमित्यत्र मङ्गलजन्यपदेन समाप्तेरेव ग्रहणात् भवत्यवच्छेदकेऽवच्छेद्यप्रवेशः । " किञ्च, यदि मङ्गलत्वेन तादृशकार्यं प्रति जनकता तर्ह्येकमङ्गलादपि बहुविघ्नस्थलीयसमाप्त्यापत्तिः, जनकतावच्छेदकावच्छिन्नयत्किञ्चित्सत्त्व एव कार्योत्पत्तेः । न च, प्रकृतसमाप्तिविघ्नसमसङ्ख्यमङ्गलत्वेन जनकता, समसङ्ख्यत्वं हि नाऽन्यूनानधिकसङ्ख्यात्वं, अधिकसङ्ख्यमङ्गलस्थले समाप्त्यनापत्तेः । नाऽप्यन्यूनसङ्ख्यमङ्गलत्वं यत्र बहवो विघ्ना द्वित्रा गङ्गास्नानादिभिर्नाशिताः, द्वित्राश्च मङ्गलैः, तत्र समाप्तिं प्रति मङ्गलस्य न्यूनसङ्ख्यत्वेनाऽकारणतापत्तेः । न च स्वनाश्यविघ्नाऽन्यूनसङ्ख्यमङ्गलत्वेन कारणता, एकमङ्गलस्थले बहुविघ्नस्थलीयसमाप्त्यापत्तेः स्वनाश्यविघ्नेनैकमङ्गलस्याऽन्यूनसङ् ख्यत्वात् । , 1 न च प्रायश्चित्ताद्यनाश्यविघ्नान्यूनसङ्ख्यमङ्गलत्वेन कारणत्वं, प्रायश्चित्ताद्यनाश्यविघ्नस्थलीयसमाप्तित्वेन कार्यत्वमिति वाच्यं, अन्यथासिद्धेरिति चेत् न, विघ्नध्वंसेन ह्यन्यथासिद्धिरुच्यते सा च न सम्भवति, प्रामाणिके कारणेऽन्यथासिद्धेर्वक्तुमशक्यत्वात् । अन्यथा पूर्वेण यागोऽप्यन्यथासिद्धः स्यात् । प्रमाणं चात्र 'स्वर्गकामो यजेतेतिवत् 'समाप्तिकामो मङ्गलमाचरेदि 'ति श्रुतिरेव । , विधिना हीष्टसाधनत्वं बोध्यते, साधनं च साध्याकाङ् क्षीति काम्यतया साध्यतयोपस्थितौ साधनासाकाङ्क्षौ समाप्तिस्वर्गावेत (तौ) तत्रान्वितौ यतो भवतः। न च व्यापारेण व्यापारिणो नाऽन्यथासिद्धिः प्रकृतेऽपि तुल्यत्वात् । न च व्यभिचारेण प्रकृते श्रुतिः कारणतां बोधयितुं शक्नोतीति वाच्यं; यागेऽपि तुल्यत्वात्, गङ्गास्नानादितोऽपि स्वर्गोत्पत्तेः । न च तत्र तत्र स्वर्गविशेषे जनकत्वं, समाप्तिविशेषे प्रकृतेऽपि जनकत्वसम्भवात् । ततो नाऽन्यथासिद्धम् । न चैकमङ्गलादपि बहुविघ्नस्थलीयसमाप्त्यापत्तिः । विघ्नो हि प्रतिबन्धकस्तदभावश्च प्रत्येकाभावत्वेन कारणम् । तथा चैकविघ्नसत्त्वेऽपि विघ्नान्तरा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावविलम्बादेव कार्यविलम्बः । एकस्मादनेकविघ्ननाशस्तु न भवति, तत्तन्मङ्गलत्वेन तत्तद्विघ्नध्वंसत्वेन कार्यकारणभावोपगमादिति । न ह्येकविघ्नसत्त्वेऽपरविघ्ननाशे कार्योत्पत्तिर्वक्तुं शक्यते, एकमण्यभावेऽपरमणिसत्त्वे दाहापत्तेः । न च द्वारफले सत्येकरूपेणैव जनकता, सा च प्रकृते नास्ति, तत्तन्मङ्गलत्वेन द्वारे मङ्गलत्वेन च फलजनकसत्त्वादिति वाच्यं, चक्षुषो द्रव्यत्वेन संयोगं प्रति चक्षुष्वेन चाक्षुषज्ञानं प्रति कारणत्वकल्पनादिति । अत्र ब्रूमः । किमिह मङ्गलस्य समाप्तिजनकताबोधने प्रमाणम् ? ननु निरुक्ता श्रुतिरेवेति चेत् , न, तस्याः प्रत्यक्षाया अभावात् । अनुमितेति चेत् , न, लिङ्गाभावात् । शिष्टाचार एवानुमापक इति चेत् , न, शिष्टाचारेण वेदमात्रानुमानेऽपि समाप्तिसाधनताबोधकस्याऽनुमातुमशक्यत्वात् दर्शादौ व्यभिचारात् । समाप्तिकामशिष्टाचारेण तदनुमानमिति चेत् , न, दृष्टान्ताभावात्। ननु व्यतिरेके व्याप्तिग्रहो यद्वा पक्षधर्मताबलादेव तादृशो वेदः सिध्यति, समाप्तिकामशिष्टाचारस्यैव पक्षत्वादिति चेत् , न, के नचित् मङ्गलं विघ्नध्वंसकामेन, परेण विघ्नानुत्पादकामेन, अन्येन विघ्नध्वंसविशिष्टसमाप्तिकामेन, इतरेण विघ्नप्रागभावविशिष्टसमाप्तिकामेन क्रियत इति तादृशाचाराणां पक्षत्वे तावच्छ्रुतेरुनयनप्रसङ्गात् लाघवसहकारेण समाप्तिसाधनताबोध(धि)कैव श्रुतिरुनीयत इति चेत् , न, पन्थानमनुसृतोऽसि, समाप्तिफलकत्वे विघ्नध्वंसं प्रत्यपि जनकत्वे गौरवेण लाघवेन विघ्नध्वंसफलकत्वबोधकश्रुतेरेवानुमातुमुचितत्वात् । न च विघ्नप्रागभाव एव फलमस्तु, तत्रापि विघ्नकारणविनाशस्य द्वारतायां गौरवात् । तस्मात् चिन्तामणिकारीयमतमनुमतं च श्रीप्रगल्भचरणादिभिर्न कस्यचिदतिसाहसिनो वचनमात्रेण प्रेक्षापूर्वकारिणामुपेक्षायोग्यमिति सङ्क्षपः । मङ्गलत्वं च न जातिः, जातिसङ्करापत्तेः । तथाहि, यत्र संयोगत्वं तत्र वा मङ्गलत्वं, यत्र वा मङ्गलत्वं तत्र वा संयोगत्वम् । घटपटसंयोगे संयोगत्वं वर्तते मङ्गलत्वं नास्ति । मङ्गलत्वं च वाचनिकेन संयोगत्वं, कायिके च द्वितयमिति Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जातिसाङ्कर्यम् । जातिसाङ्कर्यं चाऽवश्यं दूषणं, तल्लक्षणं तु-परस्पराऽत्यन्ताभावसामानाधिकरण्ये सति परस्परसामानाधिकरण्यं, अत एव नमस्कारत्वमपि न जातिः । अत्र वदन्ति - जातिसाङ्कर्यं न दूषणम् । न हि जात्याः साङ्कर्य जातिसाङ्कर्यम् । एतस्य दूषणस्य सिद्धत्वे दूषणत्वासिद्धेः, असिद्धत्वे च स्वरूपालाभादेव। ननु जातिसाङ्कर्ये आपादकीभूय दूषणं यदि जातिसाङ्कर्यं स्यात् घटत्वपटत्वयोरप्येकत्र सामानाधिकरण्यं स्यादित्यादिरूपेणेति चेत् , न, आप(पा)दकाप्रसिद्धरेव। नाऽपि जातिसाङ्कर्यस्य दूषणत्वमित्येतस्याऽयमाशयः - यदि भूतत्वमूर्तत्वयोर्जातित्वं स्यात् घटत्वपटत्वयोरपि सामानाधिकरण्यं स्यादिति वैयधिकरण्यादिति । किन्तु परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणयोर्धर्मयोः परस्परसामानाधिकरण्याज्जातित्वं नेष्यत इत्येतावन्मानं , तत्र च बीजं न पश्यामः । ननु जातित्वं यदि तादृशधर्मवृत्तिः स्यात् उभयवादिसम्मततादृशधर्मवृत्तिः स्यादित्यापादनार्थं इति चेत् , न, अप्रयोजकत्वात्। तस्मान्न सङ्करस्य दूषणत्वमिति के चित् । तन्न, घटत्वपटत्वयोविरोधदर्शनेन विरोधितावच्छेदकस्य परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणजातित्वरूपस्य सम्भवे त्यागायोगात् , अव्याप्यवृत्तिजात्यनङ्गीकाराच्च । तस्मात् प्रतिबन्धकान्यस्य सतः प्रारिप्सितप्रतिबन्धकनिवृत्त्यसाधारणकारणत्वमेव मङ्गलत्वम् । अत्र दाहप्रतिबन्धकमणिनिवृत्त्यसाधारणकारणे मणौ तत्कालीनविघ्नध्वंसकारणे विघ्ने च प्रारिप्सितप्रतिबन्धकान्यस्य सत इत्यभयपदोपादानान्नातिव्याप्तिः। वस्तुतो विघ्नध्वंसप्रतिबन्धकदुरदृष्टाभावेऽतिव्याप्तिवारणाय सत इति, प्रतिबन्धकविघ्ने एवाऽतिव्याप्तिनिरासाय प्रतिबन्धकान्यस्येति । सत्त्वं चाऽत्र भावत्वम् । प्रथमपक्षे च तदन्यत्वे सतीत्यर्थो बोध्यः । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केचित्तु कर्मारम्भकालकृतस्यैवाऽत्र लक्ष्यतया कालान्तर - कृतप्रणामादावतिव्याप्तिवारणाय सत इति कर्मारम्भकालविद्यमानत्वे सतीत्यर्थ इत्याहुः । न चाऽनुगतं रूपमनादाय कथं तद्ग्रह इति वाच्यं तेन तेन रूपेण विशेष्यैव तद्ग्रहात् । 1 ननु मङ्गलमाचरेदिति श्रुतिकल्पने श्रुतेः कथं प्रवर्त्तकत्वम् ? प्रवृत्तिविषयस्य विशेषाग्रहादिति चेत् ? न, नमस्कारादिकमाचरेदिति प्रत्येकमेव वैधिकल्पनात्। तथा च तदुपजीव्य विघ्नध्वंसकामनयाऽनुगतो मङ्गलव्यवहार ति न किञ्चिदनुपपन्नम् । नमस्कारत्वमपि स्वापकर्षबोधानुकूलतावच्छेकजातिमत्त्वमेव, सा च जाति: कायिकत्वादिस्वरूपा । न च कायिकत्वमपि जातिः, अन्यतरकर्मजन्यतावच्छेदिक या सङ्करापत्तेरिति वाच्यं, ज्जातेरनङ्गीकारात् । वाचनिकत्वमपि तत्तद्वर्णव्याप्यं भिन्नमेवेत्यलं विस्तरेण । ॥ इति महोपाध्यायश्रीभानुचन्द्रगणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीसिद्धिचन्द्र गणिविरचितो मङ्गलवादः समाप्तः ॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमतिलकसूरि-कृत : शत्रुजय-यात्रा-वृतांतः - सं. विजयप्रद्युम्नसूरि परिचय अनुमानथी सोळमां सैकामां लखायेला एक प्रचलित 'सिन्दूरप्रकर' नामना ग्रन्थमांथी ग्रन्थ पूर्ण थया पछी दोढ पानामां एक अन्य वृत्तान्त प्राप्त थयो छे. चौदमा सौकाना छेल्ला चरणमां सोमतिलकसूरि शत्रुजय तीर्थनी यात्रा करवा गया त्यारे त्यां केटलां जिनबिंबोने तेमणे वंदना करी हती तेनु आमां वर्णन छे. आना द्वारा ते वर्षोमां शत्रुजय उपर केटलां जिनमंदिर हतां, ते ते मंदिरमां केटली प्रतिमाओ हती, ते ते मंदिरनां नाम शां हतां, ते ऐतिहासिक माहिती आपणने मळे छे. आजे तो आमांनुं घणुं ओर्छ जळवायुं छे. वळी ए पण जाणवा मळे छे के अन्य जैन तीर्थस्थानोनुं त्यांज एक साथे स्मरण थई शके ते हेतुथी मोढेराविहार, शंखेश्वरविहार, साचोरविहार, समळीविहार, सेरीसावतार, कुंडावतार, नंदीश्वरावतार, स्तंभनकावतार, गिरनारावतार - एवा जिनालयो पण त्यां ते वखते हता. परंतु ते वखतना मंदिरोमांथी हाल मात्र नमि-विनमि सेवक सहित युगादिदेवनी प्रतिमा छे. बाकी घणां फेरफार थइ गया छे. चिल्लतलावल्लिनो आ यात्रावृत्तांतमा जे उल्लेख छे, ते उपरथी लागे छे के त्यारे ते उपरना कोटनी साव नजीक हशे. आजे तो ए चिल्लणतलावडी उपरना गढथी खास्सी दूर छे. प्रतिमाओनी कुल संख्या अत्यारे घणी वधी छे. शत्रुजयनी वर्तमान जिनालयनी संख्या अने वर्तमान जिनबिंबोनी संख्यानो ऐतिहासिक दृष्टिए अभ्यास करवा माटे आथी आपणने एक उपयोगी साधन मळे छे. एकदा श्रीतपागच्छाधिराज श्रीसोमतिलकसूरयो महता श्रीसंघेन समं श्रीशत्रुजये जिनान् वंदितुं ययुः तत्रैवं संवत् १३९१ वर्षे [दे] वास्तै(?)वंदिता मुख्यप्रासादे गर्भगृहे पुंडरीकप्रतिमाद्वयं ५६ जिनानन्यांश्च वंदंते स्म । ततस्त्रिद्वार प्रासादे ४९२ जिनान् वंदंते स्म । ततो मोढेरक शंखेश्वर- सत्यपुरसमलिकाविहारेषु १००८ त्रिद्वारप्रासादबलानकं यावत् ततः समरसिंहवसहिकायां Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 ततः ३३ जिनान् वंदंते स्म । तत: कोडाकोडि प्रासादे २९१ जिनान् वंदंते स्म । ततः श्री वीरप्रासादे ६८ जिनान् वंदंते स्म । ततो देवकुलिकार्या कुंतीयुता पंचपांडवप्रतिमा वंदंते स्म । ततो मध्ये १५ जिनान् वंदंते स्म । ततोष्टापदावतारे ३८६ जिनान् वंदंते स्म । ततः खोखावसहिकायां ९५ प्रतिमा वंदंते स्म । ततो राजादनीतले सेरीसावतारे कुंडावतारे गृहिकाखत्रकस्तंभद्वारेषु च १४२३ जिनान् वंदते स्म । जिनभवनद्वाद्वहिस्तोरणशिखरे देवगृहिकायुगे २९ जिनान् वंदंते स्म । प्रासाद - संमुखासु देवगृहिकासु ४० प्रतिमा वंदंते स्म । पश्चिममंडपसहित- नंदीश्वरावतारे १९४ जिनान् वंदंते स्म । वस्तुपालमंत्रि भगिनीसप्तककारितसप्तदेव - कुलिकासु ४२ जिनान् वंदंते स्म । स्तंभनकावतारे इंद्रमंडपे च २४८ जिनान् वंदंते स्म । वस्तुपालमंत्रिकारितगिरिनारावतारे १६ जिनान् परजिनांश्च वंदंते स्म । खरतरवसहिकायां १०५४ जिनान् वंदंते स्म । ततः स्वर्गारोहण - प्रासादे नमिविनमिसेवकसहित श्रीयुगादिजिनप्रतिमायुतान् १६ जिनान् वंदंते स्म । ततोऽजितनाथविहारे अनुपमसरसरीरस्थदेवगृहिकायुगे श्रेयांसजिन भवने च ९१ जिनान् वंदंते स्म । ततश्चिल्लतलावल्लिसमीपस्थदेवगृहे ६ प्रतिमा वंदते स्म । श्रीनेमिनाथभवने २८ जिनान् वंदंते स्म । ततः ततो ततः ततः श्री वीरभवने ३६ जिनान् वंदंते स्म । ततः कपर्दयक्षभवने ७१ जिनान् वंदंते स्म । तत्रासन्नदेवगृहिका युगे १८ जिनान् वंदंते स्म । ततो मणूआविहारे २९ जिनान् वंदंते स्म । छिपावसहिकायां १३ जिनान् वंदंते स्म । ततो मरुदेवीं मातरं ११ जिनांश्च वंदंते स्म । श्रीशांतिनाथप्रासादे २४ जिन वंदंते स्म । चिल्लतलावल्लीसमीपे अलक्षदेवकुलिकायां अजितनाथभवने जीरापल्लीपार्श्वभवने च १४ जिनान् वंदंते स्म । एवमन्यानपि लघुजिनान् बहून् वंदंते स्म । सर्वाकेन ५८४ जिनान् अन्यानपि बहूनि वंदंते स्म श्रीसोमतिलकसूरयः । एवं जिना - यानि बिम्बानि भवंति बभूवुर्भविष्यति तानि अहं श्री सोमतिलकसूरिवंदितान् बिम्बानि वंदे भावेन ॥ इति श्रीशत्रुंजयमहातीर्थे श्रीसोमतिलकसूरि वंदितबिम्बसंख्या संक्षेपात् कृता मया ॥ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महेश्वरकविरचिता संशयगरलजाङ्गली-नाममाला - सं. विजयशीलचन्द्रसूरि आ महेश्वर कवि विशे मने जाणकारी नथी. मात्र हस्तप्रतमां आ नाममाला जोई, तेमांना शब्दोनुं वैविध्य जरा महत्त्वपूर्ण तथा चमत्कृतिजनक जणातां, ते शब्दना तथा भाषाना अभ्यासुओने उपयोगी थाय तेवू लागवाथी तेनुं संपादन अहीं रजू कर्यु छे. आ नाममाला हजी प्रकाशित नथी थई, एवी मारी धारणा छे. ओछामां ओछु, मारा जाणवा-जोवामां तो हजी नथी आवी. आ नाममालानी प्रति भावनगरनी जैन आत्मानन्द सभामां छे. कुल ७ पत्रोनी आ प्रतमा पत्र १ थी ५मां प्रस्तुत कृति छे, अने पछीना पृष्ठोमां 'हैमनाममालाशिलोंछ' छे, जे अपूर्ण रही गयो छे. प्रस्तुत कृतिना छेडे लखेली पुष्पिका उपरथी जाणवा मळे छे तेम, आ प्रत सं. १७९९मां जैनमुनि जिनेन्द्रसागरे स्तंभतीर्थमां लखेली छे. नाममालाना २३४-३५मां पद्यो परथी महेश्वर कवि शब्दशास्त्र, वैद्यक वगेरेना समर्थ विद्वान, कवि तथा 'साहसांकचरित' वगेरे ग्रंथोना प्रणेता होवानुं समजाय छे. नाममालाना प्रथम पद्यमां जणाव्युं छे तेम, आनुं नाम 'शब्दभेद प्रकाश' पण छे. प्रतिलेखके संशयगरलजाङ्गली' एवं नाम, २३७मां पद्यमांना 'संशयं च निराकर्तुं' ए अंशने ध्यानमा राखीने प्रयोज्यं होय के पछी तेमनी पासे आ रचनाने आ नामे ओळखवानी परंपरा पण होय तो ते संभवित छे. नाममाला बे मुख्य भागोमां विभक्त छे : पहेलो भाग 'शब्दप्रभेद निर्देश' छे, जेमां मुख्यत्वे जुदा जुदा शब्दोमां थता सामान्य फेरफारोने लीधे बनता शब्दोनुं निरूपण छे. बीजा भागमां ब, व, श, ष, स वगेरेनुं प्राधान्य विचारीने एकत्र करेला शब्दजूथो छे. आशा छे के आ रचना शाब्दिकोने उपयोगी बनशे. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीधवलधिंग-श्रीगोडीपार्श्वनाथाय नमः ॥ प्रबोधमाधातुमशाब्दिकानां कृपामुपेत्याऽपि सतां कवीनाम् । कृतो मया रूपमवाप्य शब्द-भेदप्रकाशोऽखिलवाङ्मयाब्धिः ॥१॥ प्रायो भवेद् यः प्रचुप्रयोगः प्रामाणिकोदाहरणप्रतीतः । रूपादिभेदेषु विलक्षणेषु विचक्षणो निश्चिनुयात् तमेव ॥२॥ क्वचिन्मात्राकृतो भेदः क्वचिद्वर्णकृतोऽत्र च । क्वचिदर्थान्तरोल्लेखात् शब्दानां रूढितः क्वचित् ॥३॥ जागर्ति यस्यैष मन:सरोजे स एव शब्दार्थविवर्त्तनेशः । निजप्रयोगार्पितकामचार: परप्रयोगप्रसरार्गलश्चेत् ॥४॥ विन्द्यादगारमागार - मपगामापगामपि । अरातिमारातिमथो अम आमश्च कीर्तितः ।।५।। भवेदमर्ष आम!-ऽप्युङ्करोऽङ्कर एव च । अन्तरीक्षमन्तरिक्ष-मगस्त्योऽगस्तिरित्यपि ॥६।। अटरूष आटरूषोऽवश्याऽवश्याय इत्यपि । प्रतिश्यायः प्रतिश्या च भल्लूको भल्लुकोऽपि च ॥७॥ जम्बूकं जम्बकं प्राहुः शम्बूकमपि शम्बकम् । जतुका स्याज्जतूकाऽपि मसुरः स्यान्मसूरवत् ॥८॥ वास्तुकं वापि वास्तूकं देवकी दैवकी [तथा] । ज्योतिष ज्यौतिषं चापि ष्टेवनं ष्टीवनं तथा ॥९॥ सूत्रामाऽपि च सुत्रामा हनूमान् हनुमानपि । उषणं स्यादूषणं च भवेदुखरमूखरम् ॥१०॥ हारीतो हारितोऽपि स्यान्मुनि-पंक्षिविशेषयोः । तुवरस्तूबरोऽपि स्यात् कुबर: कूबरोऽपि च ।।११॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तमे उत्तमं च स्या-दाहते स्यादनाहतम् । उदारे चानुदारः स्या-दुदने वानुदग्रवत् ॥१२॥ बन्धूरं बन्धुरं च स्या-दूरीकृतमुरीकृतम् । वाल्हीकं वाल्हिकं चापि गाण्डीवो गाण्डिवोऽपि च ॥१३॥ उषाप्यूषा ननादा व (?) ननान्दा च प्रकीर्तिता। हीबेरे हिरिबेरं च चिकुरे चिहुरोऽपि च ॥१४॥ चण्डालोऽपि च चाण्डालो वदान्योऽपि वदन्यवत् । हालाहलं हालहलं वदन्त्यपि हलाहलम् ॥१५॥ डाहालं च डहालं च डाहलं च प्रचक्षते । कुङ्कण: कोङ्कणश्चापि श्यामाकः श्यामकोऽपि च ॥१६॥ सहाचरः सहचरः स्फटिकं स्फाटिकं तथा । गन्धर्वोऽपि च गान्धर्व-श्चमरं चामरेऽपि च ॥१७॥ चोरश्चौरश्चटुश्चाटु-श्चेलं चैलं चमुश्चमूः । चञ्चुश्चञ्चूस्तलस्तालः श्यामल: श्यमलोऽपि च ॥१८॥ महिलायां महेलापि महेला स्यान्महेलिका । छेकश्छपिल्लश्छेकालो विदग्धे छेकिलोऽपि च ॥१९॥ गुग्गुलौ गुग्गुलोऽपि स्या-द्विगुलो(ल:)चापि हिङ्गलम् । मन्दिरे मंदिराऽपि स्याद् (?) वीर्ये वीर्याऽपि कथ्यते ॥२०॥ धन्याकमपि धान्याकं युतकं यौतकं तथा । कवाटं च कपाटं च कविलं कपिलं मतम् ॥२१॥ करवालः करवालो(?ला?) वनीपक-विनीयकौ । पारावतः पारापतो जवा स्याज्जपया सह ॥२२॥ जटायुषा जटायुं च विदायु(विदुरायु) तथाऽऽयुषा । सायं सायो भवेत् कोशः कोषः शण्टश्च घण्ढवत् ।।२३।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 तविशं तविषं चापि मुशलो मुषलोऽपि च । वेशो वेषश्च कथितः स्याद् 'बुशोऽपि बुषोऽपि च ॥ २४ ॥ स्यात्तनुस्तनू(नु)षा सार्द्धं धनुना च धनुर्विदुः । शूकरः सूकरोऽपि स्यात् शृगालश्च सृगालवत् ॥२५॥ शूरः सूरश्च तरणौ कलशः कलसोऽपि च । शूनासीस: सुनासी नारायण - नरायणौ ॥ २६ ॥ जाम्बवान् जाम्बवोऽपि स्या- लक्ष्मणो लक्षणोऽपि च । संस्तरः स्रस्तरोऽपि स्यात् चरित्रं चरितं तथा ॥२७॥ पारतं पारदं वास्त्रो वासरः कृमिवत् क्रमिः । तृफला त्रिफला चापि तृणता त्रिणताऽपि च ॥ २८॥ भवेद् ऋष्टिस्तथा रिष्टिः प्रियालः स्यात् प्रयालवत् । कणाटीन: काटीनो वातको वातगोऽपि च ॥ २९ ॥ मिहिरो मुहिरोऽपि स्यान्मकुरो मुकुरोऽपि च । मकुलं मुकुलं चापि मकुटं मुकुटं विदुः ॥३०॥ मत्कुतिं मुत्कुर्ति (?) चापि चलुकं चुलुकं यथा । करंज: करजोऽपि स्यात् परेतः प्रेतवन्मतः ॥३१ ॥ किर्मीरोऽपि च कर्मीरो डयनं हयनं समम् । २ शौण्ड (ण्डी) र्यमपि शौण्डीरं ज्येष्टे ज्येष्टोऽपि दृश्यते (?) ||३२|| शुक्के (क्ले ? ) ऽप्यवानं वानं (?) स्यादुदके स्याद्दकं दगम् । कुष्टभेदे शतरुषा शतारुश्च निगद्यते ॥३३॥ द्रेक द्रेष्काण द्रष्काणा भवन्त्यपि दृकाणवत् । पत्रङ्गमपि पत्राङ्गे कुद्दालश्च कुदालवत् ॥३४॥ १. कडंगरनाम ॥। २. विमाननाम ॥। ३. गोषरुं Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मारिषं मौरुषं शाके प्लीहरोगे प्लिहापि च । फेला फेलिस्तथोच्छिष्टे काकिण्यां काकणीति च ॥३५।। सौदामिनी च सौदाम्नी ५ सौदामन्यपि चेष्यते । जठरे जठरोऽपि(?)स्यात् निमिषे निमिषो(?)ऽपि च ॥३६।। बुको बकश्च कुसुमे मदनो मथनोद्गमे । आरग्बधारगबधौ क्षुरकक्षुरुकावपि ॥३७॥ प्रष्टिः प्रष्टश्च सरयुः सरयूश्च निगद्यते । नीलङ्गुरपि नीलामु - रीश्वरी चेश्वरापि च ॥३८॥ तापिच्छमपि तापिच्छं त्रपुषं त्रापुषं तथा । डिंडीरोऽपि च हिण्डीर: परशुः पशुना सह ॥३९।। वालिका वालुका चापि दोर्दोषापि भुजा भुजः । बाहुर्बाहा त्विषिस्त्विड्वत् सन्ध्या स्यादि(त) सन्धिवत्पुनः॥४०॥ भगिनीमपि भगनी च झल्लरी झलरी विदुः । रेत्रं(?)च रेतसा सार्द्ध-मेधमाहुस्तथैधसा ॥४१॥ ६ संवननं संवदनं तरुणी तलुनीति च । प्रमूदावनं प्रमदवनं च परिकीर्तितम् ॥४२॥ "खुरुलिका स्यात् खुरली वज्रं वज्राशनिस्तथा । शिलमुच्छं शिलोञ्छं च भवेदुञ्छशिलं तथा ॥४३।। धरित्री धरयित्री च तविषी ‘ताविषी तथा । वास्तुदेवोऽपि वास्तुः स्यात् वामदेवोऽपि वामवत् ।।४४।। आशीराश्यहिदंष्ट्रायां लक्षीर्लक्ष्मीहर: स्त्रियाम् । ९ रुचको रुचकौ प्रोक्ता-वुरुचुकोऽपि तादृशः ॥४५॥ ४. तांदलजाना नाम ।। ५. वीजलीनां नाम ।। ६. वशीकरणनाम ।। ७. शस्त्राभ्यास नाम !! ८. तविषी - ताविषी शब्देन अद्रिसुतोच्यते ।। ९. एंड नाम ।। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 कुमुदं च कुमुच्चापि योषिता योषिदित्यपि । शरद् भवेत शरदया प्रावृट् प्रावृषया सह ॥४६॥ नभं तु नभसा साकं तपं तु तपसा समम् । सहं च सहसा सार्द्धं महं च महसा द्युतौ ॥ ४७ ॥ तमसेन तमः प्रोक्तं रजेनापि रजः समम् । शाब्दिकैस्तु जलौकाभिः कथितोऽयं जलौकसः ॥४८॥ दिवं प्रोक्तं दिवातुल्यं पर्षत् परिषदा सह । वर्षाः स्युर्वरिषाभिश्च हर्षोऽपि हरिषेण च ॥ ४९ ॥ सर्षपः सरिषपश्च कर्षः स्यात् करिषेण च । माषो मारिष इत्युक्तः स्पर्शोऽपि स्परिशो यथा ॥५०॥ . एवमन्येऽपि बर्हादा-वृष्मवर्णाः प्रयोगतः । मूर्द्धरफा विकल्प्यन्ते छन्दोभङ्गभयादिना ॥५१॥ दक्षिणास्यामपाच्येव प्रायं त्वनशने विदुः । छन्दावभिप्रायवशौ कलज्ञः स्यात् कलाविदि ॥५२॥ समूहार्थस्य जातस्य चवगादिच्छ ( चवर्गादित्व ? ) मीरितम् । अन्तस्थीययकारत्वं यवसस्य तु कथ्यते ॥५३॥ तन्तुवायस्य वाग्रेऽपि तन्त्रादित्वं च दृश्यते । तुर्यस्वरादिर्वारुः कर्कट्यां पठ्यते बुधैः ॥५४॥ ह्रस्वादिरर्त्तिः पीडायां धनुः कोट्यामपीष्यते । एतौ मध्यतवर्गीयौ वैदूर्यमणि - शाबलौ ॥५५॥ तवर्गमध्यो रात्रौ च जम्बाले च निषद्वरः । चुल्यामुत्पूर्वकं ध्मानं धानं हानं च वर्तते ॥५६॥ तालव्यमध्यो विशद उर्ध्वशब्दो वकारवान् । यवानी स्याद् मध्यैव श्रावणो मासि मध्यवः ॥५७॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शफे खुरं कवर्गीयं खकारं चक्षुरक्षके । नापितस्योपकरणे कषसंयोग इष्यते ॥५८॥ अव्ययानव्ययं दोषा-शब्दे (?) रात्रौ प्रचक्ष्यते । कन्याकुब्जं कन्यकुब्जं कोशलोत्तरकोशला ॥५९॥ वाराणसीत्यपि प्रोक्ता तथा वाणारसीति च । तामलिप्ती दामलिप्ती द्रङ्गोऽप्या (पि ?) द्राङ्ग इत्यपि ॥६०॥ नन्दीश्च नन्दिपनी च(नन्दिः पत्री च?)पत्रिः स्याद्वस्नसा स्वसा । यमलं यामलं द्वन्द्वं दन्द्वं खडिलखल्लिडौ ॥६१॥ जनित्री जनयित्री च कफोणिः कफणिस्तथा । वल्मीकोऽपि च वाल्मीको वाली वालिश्च कथ्यते ॥६२।। सुमेन सार्द्धं कुसुमं मरन्दो मकरन्दवत् । अहितुण्डिकमित्याहु-स्तथा स्यादाहितुण्डिकः ॥६३।। विद्यादण्डीरमाण्डीर-मणिः स्यादाणिवत् पुनः । आमण्डमण्डावेरण्डे प्रियकेऽप्यासनोऽसनः ॥६४॥ अपिशलिमुनिभेदे भवेदापिशलिस्तथा । चन्द्रभागा चन्द्रभागी खनौ खानिरपि स्मृता ॥६५।। गोनासगौनसौ सर्प फल्गुनः फाल्गुनोऽर्ज(र्जु ?)ने । स्यात् तर्जन्या युतेऽङ्गुष्ठे प्रादेशोऽपि प्रदेशवत् ॥६६।। गजे मतङ्गमातङ्गौ नागे कालीयकालियौ । रोहीतके रोहितको-ऽप्यपष्टुरेऽप्यपष्टू(ष्ट ?)रम् (?) ॥६७॥ इषिका स्यादिषीकाऽपि वानायुजवनायुजौ । गुवाकोऽपि च गु(गू)वाकः कुचकूचौ स्तनेभयोः ॥६८।। कूकरे च कुणिः कूणिः नोकौ(?) कुलककूलको । पोगण्ड: स्यादपोगण्ड: उलूतः स्यादलुतवत् ॥६॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 काकाचिके काकचिके भवेद् ऋश्यस्तु रिश्यवत् । वातूलो वातुलोऽपि स्यात् कैकेयी केकयीत्यपि ॥७०॥ विरञ्चिश्च विरिञ्चोऽपि ब्रह्मण्यपि विरञ्चनः । वरुटो वरुडोऽपि स्याद् विक्कपिक्को गजार्भके ॥७१।। कर्करेटौ करेटुश्च कुर्कुरः कुक्करोऽपि च । अम्बरीषश्चाम्बरिष-मुत्पले कुवलं कुवम् ॥७२॥ कुमारिले कुमारिश्च मन्थिर्मन्थो मथोऽपि च । वज्रा वज्री स्नुही भाग्यो-वरट्यां वरटाऽपि च ॥७३॥ कैटभा कैटभीश्चर्यो(?) कन्दर्यां कन्दराऽपि च । भिदिर्भेदश्च कुलिशे वातिर्वाते कूठे कुठिः ॥७४|| करे करिर्जटायां तु जटिः शिल्यां शिलापि च । पुलिन्दे स्यात् पू(पु)लीन्द्रोऽपि निषादिश्च निषादिनि ॥७५।। यतिश्च यतिनि प्रोक्तः सृक्विणी सृक्वसृक्वि च । वहितं च वहिनं तु निचुले हिज्जलेज्जलौ ॥७६॥ विखुविख्रस्तथा विग्रे नासाया विगमादिति । अमतिश्चामतिः काले रजन्यां च तमा तमी ॥७७॥ विश्वप्सश्चापि विश्वप्सा सिध्मः सिध्म च कथ्यते । स्याद् वृक्का वृक्कया सार्द्धं धर्मे धर्म च कीर्तितम् ॥७८।। उष्मया सार्द्धमुष्मापि मज्जोक्ता मज्जया सह । शेफशेफौ च शेवश्च शेपं प्रोक्तं च शेफसा ॥७९॥ प्रापुन्नाटकमित्याहुः प्रपुन्नाटप्रपुन्नटम् । अररश्चारस्चिापि कवाटे स्यात्कूवाटवत् ॥८०॥ भल्लो भलिश्च बाणे स्याद् दले पात्रं च पत्रवत् । इर्ममीर्मा व्रणेऽपि स्यात् निर्झ रे तु झरो झरा ।।८१॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवेदमात्येऽप्यामात्यः पीनसे स्यादपि(पी)नसः । अन्वासनं समुद्दिष्टं तथा स्यादनुवासनम् ॥८२॥ यूषश्च यभनं यातु यकारद्धयवन्मतम् । पुरुणा च परुग्रन्थौ काश्मीरी कश्मिरीति च ॥८३।। मातुलिङ्गे मातुलुङ्गः कदल्यां कदलोऽपि च । परुषकफले प्रोक्तं परुषं फरुषं यथा ॥८४॥ नारङ्गे नागरङ्गोऽपि स्याद्विसेऽपि विसंडकम् । वार्ताकुरपि वार्ताके वृन्ताकोऽपि च दृश्यते ॥८५।। किसलं स्यात् किसलयं गुच्छे गुच्छो गुलञ्छवत् । आम्रातकं स्यादम्लात-ममिलातकमित्यपि ॥८६।। जम्बीरेऽपि च जम्भीरो जूर्णायां जूर्णी(णि ?) रित्यपि । तित्तिरौ तित्तरोऽपि स्यात् पीलक: स्यात् पिपीलके ॥८७।। गोदा गोदावरी नद्यां मथुरा मधुरा पुरि । कवियं कविकायां च स्याद् गवेधौ १० गवेधुका ॥८८॥ मञ्जुषायाँ च पिटक: पेटा पेटक इत्यपि । पादातौ च पदातिश्च पादातिश्च पदातिकः ।।८९॥ पादत्राणे तु पन्नधी, भवेत् प्राणहिताऽपि च । जलावुका जलौकायां गैरिके च गवेरुकम् ।।९०॥ नासिकायां च नकं स्याद् वक्रे वंकोऽप्युदाहृतः । सरणी च प्रसारण्यां मुष्के स्यात् फलकं फलम् ॥९१।। भवेद् दाढाऽपि दंष्ट्रायां शाल्मल्यां शाल्मलीति च । वध्वां च वधूकाऽपि स्या-दञ्जन्यामञ्जनाऽपि च ।।९२।। १०. धान्य ।। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 ह्रस्वान्ता स्यादलाबुश्च दीर्घादिश्च प्रतीयते । उर्णनाभ इदन्तश्च किकीदिविः किकीदिवे ||९३ || करेटो (टौ ?) करटुश्चापि दूत्यां दूतिरपि स्मृता । स्यान्निचोले निचुलकं स्यादसिक्तामसिक्तिका ॥ ९४ ॥ जीव (वं) जीवे जीवजीव- श्चालन्यामपि चालनम् । स्यूते स्यूनं तथा स्योन - मभ्युषेऽभ्योष इत्यपि ॥९५॥ करम्बो मिश्रिते बातो (?) भांतस्तु दधिसक्तुषु । आमीक्षा ह्रस्वमध्याऽपि मध्यौकारं च यौतकम् ॥९६॥ धुवित्रं निरुकारं च स्याद् ऋषौ रिषि इत्यपि । इरिणं स्याच्च दीर्घादिः कृषके कृषिकोऽपि च ॥९७॥ तालव्यदन्त्ययोरुक्ते सर्वला सर्वलीति च । तालव्यद्वयमध्योऽसा-वाशुशुक्षणिरीक्ष ( क्ष्य) ते ॥९८॥ विष्णौ दाशार्ह इत्यस्य मध्यतालव्यता मता । तालव्यान्तश्च कोटीशः प्रासस्तालव्य - दन्त्ययोः ॥९९॥ दन्त्योपान्तं तु कूर्पास - महानसमलीमसम् । कांजिकादौ तु कुल्माषो दन्त्योपान्त्योऽपि कीर्त्यते ॥१००॥ आदिदन्त्यं तु सुषवी सम्बाकृतसमूरुचः । कुसीदं च कुसूलं च मध्यदन्त्यमुदीरितम् ॥१०१॥ पारावार: प्रमध्योऽपि सोपानं दतु समादितु ( दन्त्यमादि ? ) । विश्वस्ता स्याद् वमध्यैव न विशस्तेत्युदाहृता ॥ १०२ ॥ स्यात् कवर्गद्वितीयादि ख्वंतादिरपि क्षुल्लकः । स्यात् पवर्गद्वितीयादि फणायां तु फटाऽपि च ॥१०३॥ त्रयोदशस्वराद्यस्तु शोभाञ्जन उदाहृतः । तनूनपात् तकारान्तो न तत्रर्गतृतीयभाक् ॥ १०४॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तवर्गपञ्चमोपान्त-मङ्गनं केवलं पुनः । हाहाशब्दस्तु सान्तोऽपि, कथितो दिव्यगायनः ॥१०॥ चतुःशाले चवर्गीय-मध्यं संजवनं विदुः । पवर्गमध्यः सान्तश्च रेफ: स्यादधमार्थकः ॥१०६।। अन्तस्थमध्यं वैयात्यं वेन्मि(मि ?) वेमश्च वेम च । कमने कामनोऽपि स्याद् दीर्घादिः कूकुदः स्मृतः ॥१०७|| प्रभायामपि भाः शब्दः सान्त पुल्लिङ्ग एव च । एक(ड?) मूकेऽडनेमूकः सूर्यां सूर्मिरपि स्मृता ॥१०८॥ एडूकं ह्रस्वमध्यं च ह्रस्वान्ता च पदव्यपि । शैवाले स्याच्च शेवालं शेवलं शैवलं तथा ॥१०९|| तूणा तूणी च तूणीरे मरीचं मरिचेऽपि च । चित्रे च चित्रलोऽपि स्या-च्चितायां चित्तियाऽपि च ॥११०॥ छन्दसि स्यादनड्वाही भाषायामनडुह्यपि । . मध्येकारोऽपि चिपिटो हुस्वादिश्चारणोऽप्यवौ ॥१११॥ उत्तमायां गवि प्राहु-रैकारादि च नैचिकीम् । साच्यर्थे साचिरप्युक्ता भूतार्थे च तथस्तथा ॥११२॥ चवर्गादिरपि प्रोक्ता यामिः स्वसृकुलस्त्रियोः । वातासहो वातसहो वातूले स्यादिदं द्वयम् ॥११३।। अप्सर: स्वप्सरा प्रोक्ता सुमनाः सुमनःसु च । बर्बरी बर्बरा शाके विवुत्तं हल्चतुष्टयम् (?) ॥११४॥ तन्द्री तन्द्रिश्च तन्द्रायां कुरङ्गे च कुरङ्गमः । प्रथगच्छश्च? भल्लश्च भालूकेऽप्यच्छभल्लवत् ॥११५॥ जलायुके जलोकं च जलौकं च जलूकवत् । घोघके (?) सांबुकं क्वापि बुध्ने बध्नश्च दृश्यते ॥११६।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लङ्गलमपि लाङ्गलं भंभरा भंभराल्यपि । त्वचि त्वच: किरोऽपि स्यात् किरौ प्रोक्तः पथः पथि ॥११७॥ अजगावाजकावेव भवेदाजगवं तथा । पिनाकेऽजगवं चाथ सैंहिकेये तमस्तथा ॥११८॥ चुलुकी चुलुपी च स्या-दुलूपी शिशुमारके । अगाधेऽस्थागमस्थाघ-मस्तघं च प्रयुज्यते ॥११९।। स्यान्मध्योभचतुर्थत्व(?)-महसो रहसस्तथा । चिह्न ललामशब्दोऽपि स्याददन्तश्च पुंसि च ॥१२०।। द्रविड: स्यान्ममध्योऽपि काफलं चापि कत्फले । व्रीडायां च भवेद् व्रीडो लज्जामात्रेऽप्यपत्रपा ॥१२१।। उडुकं मध्यहस्वं च हूस्वादिः स्यादलिन्दकः । तथा कुरबके रेफो निरुकारः प्रयुज्यते ॥१२२॥ मंजिष्ठायां तु भण्डीरी मध्यह्रस्वाऽपि पठ्यते । दीर्घादि वृश्चिके च स्या-दली स्यादालिरित्यपि ॥१२३॥ वु(वृ)क्को वृक्का स्मृतौ वृल्कि ग्रैवं ग्रैवेयकेऽपि च । ख) खोश्च खोस्श्च स्यात्तरा तरिरित्यपि ॥१२४॥ नासिकायां च नस् वापि मथि मन्थाक इत्यपि । कार्तस्वरं मध्यदन्त्यं सेहुड: स्यात् सिहुण्डवत् ।।१२५।। उष्ट्रोऽदन्त्यो लुलायोऽपि मारुतेऽपि हलं तथा । विद्यात् पुरुरवःशब्दे रुकारस्यापि दीर्घता ॥१२६॥ स्यात् कुरण्डोऽपि दीर्घादिः सुरज्येष्ठोऽपि सम्मतः । नालिकेर इदन्तोऽपि तथा दीर्घद्वितीयवान् ॥१२७|| काण्डे शर: शुभं क्षेमे शार: शबलवातयोः । किशुकश्च शुकश्चापि स्मृता(तौ) तालव्यदन्त्ययोः ॥१२८॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ a सूनाशुगास्तुरङ्गास्तु दन्त्यतालव्ययोरपि । कोटिशश्चाप्यदन्त(न्त्य)स्तु ऋभृक्षः स्वर्गवज्रयोः ॥१२९।। कि(किं)नराश्वमुखौ भिन्ना भिन्नौ दैत्यासुरादिवत् । रिष्टारिष्टे अभिन्नार्थे भिन्नार्थे च क्वचिन्मते ॥१३०॥ वाग्मी वाल्मीकमित्रोल्का-सत्रछत्रपतत्रिणः । संस्कर्तेत्यादिसंयोगि शब्देष्वनुपयोगिषु ॥१३१॥ इदं तुल्याक्षरद्वन्द्वं स्यान्न चेद् भेदकं क्वचित् । यमकादावपीत्येषा चिन्ताऽस्माभिरुपेक्षिता ॥१३२।। तथा ह्यपश्यदद्राक्षी-दित्यत्रार्थे क्रियापदम् । आपः पयस्तनूकूर्व-दित्यन्यत्र पदद्वयम् ॥१३३॥ इति शब्दप्रभेदनिर्देशः समाप्तः ॥ __ अथाद्यदन्तौष्ठ्यवकारभेदः ॥ वृन्दारक व्रज वराटक वंदि वंदा वन्दारु वैर बदरी विटपान्वितं च । विद्वद् व्रणौ वरण बृंहण बोध बेधबन्धूर बन्धु बधिरान् वध बन्ध वृद्धान् ॥ १३४॥ १ वेलावलौ बहुल बाहुलक व्यलीकबोलं बिलं बलज बालक वालुकाश्च । बेहद् बृहद् बहल वाहन बाहु बभ्रुवस्तं बलिं वन बलाहक वंक वीथी: ॥१३५॥ २ वालेय वंजू(जु)ल वराह बका बलाका वालूकिका वकुल बुक्क बकेसकाश्च । बारुंड बाढ वरटानपि बावटीरवारुंड बंडक वरंडक वर्वटीश्च ।।१३६॥ ३ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 वाहिनीं वनितां वेदी वाणिज्यं वारिबन्धनम् । वरत्रां वर्द्धनीं वं()तं वटकं वसुकं बटम् ॥१३७॥ ४ वासनावासिता वास्त्र-वीर वासर वागुराः । ब्राह्मणी वाणिनी वाणी वानीरं वानरं वचाम् ॥१३८॥ ५ विहगाख्यं विशब्दं चा-ऽप्यव्ययं चेति वेति च । वर्तरूकं वदान्यं च विद्याद् वाद्यं च वादितम् ॥१३९॥ ६ आद्यौष्ठ्याः पवर्गीयाः ।। अथ मध्यपवर्गीयाः कर्बर: कबूंराबरे । बर्वरी शर्वरी वारु शम्बराडम्बराम्बरम् ॥१४०।। ७ कम्बलं शम्बलं चास्रं सर्बला शाबलोऽपि च । नद्वला बेल जम्बाल - शेबालाश्च प्रकीर्तिता ॥१४१॥ ८ कथ्यन्तेऽथ पवर्गीया बान्तशब्दाश्च केचन । गन्धर्वखर्वगर्वाह्वो जिह्वा पूर्वञ्च दूर्वया ॥ १४२॥ ९ रोलम्बः शतपत्रोर्वी दार्वी चार्वी च दर्विवत् ।। ० ॥१४३।। १० कदम्ब कादम्ब नितम्ब बिम्बा निम्ब प्रलम्बाम्बु विडम्ब बिम्बाः । करम्ब हेरम्ब कटुम्ब कम्बा - स्तुम्बी कलम्बी शब लुम्बि चुम्बाः ॥१४४॥ ११ जम्बू: कम्बूरलाबुश्च शम्बः शुम्बोऽम्बया सह । शिम्बा लम्बा च ताडम्ब-गुडुम्ब स्तम्ब कम्बयः ॥१४५।। १२ पवर्गीय बकारनिर्देशः । अथान्तस्थवकारः ॥ विन्दु विद्रुम वरेण्यविक्रमा बिंब वर्त्म विशदाश्च विद्यया । व्याघ्र [वीर ?] बेर वर्करा नार्दरी वशिर वार वागुराः ॥१४६॥१३ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाम वामन विमान वेदना: वान्न (न्त) विन्त वमनं विरेचनम् । वात वातिक वितान वर्तनी वर्ति वेतन वसन्त वृत्तयः ॥ १४७॥१४ 26 वार्त्ता विच्छित्ति वृत्तान्त वितण्डाश्च विनुन्तनम् । विकटो वैकटिके व्युष्टि-विष्टिर्विष्टरवेष्टनम् ॥१४८॥ १५ वल्लूरो वल्लरो वल्ली वेल्लितं वल्लभोऽपि च । विदेहोऽवग्रहो बर्हो बहिर्वर्हिविहायसः ॥ १४९ ॥ १६ वहित्रं विकचो वीचि वर्चोवञ्चकवाचकाः । वधूकवीवधविधा वेधा विधु वधू वृका: ॥ १५०॥ १७ - विवेको वर्णकं वेणी वीणा विपणि वेणवः । विषाणं वीरण बाणौ वपावाप्यौ वपुर्व्ययः ॥ १५१॥ १८ वैशाखो विशिखो वाह-व्यूह वर्ष्म विषं वृषः । विषयं वर्षणं बीजं वाजं वृजिन वर्जने ॥ १५२॥ १९ व्यञ्जनं व्यजनं वज्रं वैजयन्ती विशारदः । वालवं वाल वाल्मीक - वामिला वाल्हिको वली ॥१५३॥ २० वालेर (?) विचकिलो वंग विडंगं वेग वर्गणम् । विवशो वासि वेशः [स्यात् ] वैश्य विश्रंभ वेशयः ॥ १५४॥ २१ विश्व विश्वस्त विश्लेष- वेश व्यसन वासयः । वायसो वहसो वत्सो वीतंसो वसतिर्वसुः ॥१५५॥ २२ विदारी विवरो वीरुदित्याद्यन्ताश्च वादयः । अथापि मध्यदन्तौष्ट्याः कथ्यन्ते केचनाऽपरे ॥ १५६|| २३ देवकीसेवकावुत्त प्रावारा: प्राध्वरोऽपि च । तन्तुवायापवरकौ गोविन्द श्रावणोल्बणम् ॥ १५७॥ २४ अध्वा धध्वा (?) युवार्चाव (?) मघवाथर्वपर्वणी । दन्तोष्ठ्यवान्तशब्दानां संग्रहः क्रियतेऽधुना ॥ १५८॥ २५ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 मध्यदन्तौष्ठ्याः ॥ राजीव जीव जव याव विभाव भावमर्हाव दाव दव दैव दिव द्रवं च । निःपाव पौतव धवाभिषवाः शराव - संराव पारशव सैधव शारिवाश्च ॥१५९॥ २६ आदीत(न?)वापहव मार्कवाणि - धामार्गवो भार्गव पुङ्गवौ च । श्रुवा-ध्रुवा- कैरव कैतवानि सवाडवान्याहवरौरवौ च ॥१६०॥ २७ क्षुवः प्लव: पेलवश्च पल्लवो वल्लवो लवः । शैवः शिवश्च सचिवौ गाण्डीवस्ताण्डवोद्धवौ ॥१६१॥ २८ केशव प्रसव क्लीव-क्षीवाः शिविरविच्छविः । अविः कविः पविर्गीवा-कारवी सुबवीगवी ॥ १६२॥ २९ अटवी कोटवी प्रथ्वी लघ्वी लद्वाच (?) खर्बया (?) । स्वमश्वसत्त्वसान्त्वोर्ध्व-तत्त्वं किण्वं च मुण्वत् (?) ॥१६३॥३० प्राध्वं पाश्र्वं च पक्वोल्लं द्वन्द्वं बिल्वं च नल्ववत् । अवे वै वाऽव्ययं चान्ये कथ्यन्ते च विचक्षणैः ॥१७०॥ ३१ वरपः क्षुरपो(?)ऽवश्यं दन्तौष्ठ्यत्वमुदाहृतम् । उदश्वित् किंचिदाहोश्वित् विपादिप्रत्ययेष्वपि ॥१७१॥ ३२ दन्त्योष्ठ्यो वौ गुणे वृद्धा-वुपमाने वतिस्तथा । उपसर्ग विशब्दो (?) दन्त्यौष्ठ्यः समुदाहृतः ॥१७२॥ ३३ उववादिविधानाश्च संप्रसारणतोऽपि च । इत्येवमादयः शब्दा वभेदेऽत्र विनिश्चिताः ॥१७३।। ३४ ओष्ठ्य-दन्त्यौष्ठ्ययोरत्र धात्वर्थादिविशेषतः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि स्यादनयोः क्वापि क(का)दाचित्को व्यतिक्रमः ॥१७४।३५ इति ओष्ठ्य-दन्त्यौष्ठ्यवकार निर्देशः ॥ अथ तालव्य-मूर्धन्य-दन्त्यानामपि लेशतः । शषसानां विशेषेण निर्देशः क्रियतेऽधुना ॥१७५।। ३६ अथोष्मनिर्देश: श्यामाक शाक शुक शीकर शोक शूक - शालूक शंकु शक शंकर शुक्र शक्राः । शोडीर शाट शकटाः शिपिविष्ट शिष्टाः शाखोट शाटक शटी शटितं शलाटम् ॥१७६॥ ३७ शीतं च शात शित शातन शुम्ब शम्बा शम्बूक शम्बर शुनार शवाः शिलीधः । शोफे: शुभं शरभ शारभ शुम्भ शम्भु - श्वभ्राणि शुभ्रशरदौ शकुनिः शकुन्तिः ॥१७७|| ३८ शाला शिला शिवल शाद्वल शालु शेलु - शार्दूल शूल शबलाः शमलः शृगालः । शेफालिका शिथिल श्रृंखल शील शैल - शेवाल शल्य शल शम्बल शैवलानि ।।१७८॥ ३९ शालालु शालु शलि शाल्मलि शुल्क शल्क - शुल्कानि शल्य शलभौ शललं शलाका । श्रेणिः शणः श्रवण शोणित शोण शाण - श्रेणी श्रुत श्रमण शून्य शरण्य शंकाः ॥१७९॥ ४० शोचिः शची शुचिशयः शरु शर्म जी(शी?)र्णं श्रीपर्ण शोथ शपथ श्लाथ शंड शंढाः । श्रेयः शमः शमन शोधन शिक्य शाक्य -- शांडिल्य शाल्वल शमी शनक श्रविष्ठाः ॥१८०॥ ४१ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 शाखा शिखा शिखर शेखर शंख शाप शंपा शिफा शफर शेफशयुः शिखंडः । शृङ्गार शृङ्ग शब शाव शरारि शारि - शाराः शराव शबरच शिरः शिराश्च ॥ १८१॥ ४२ शरीर शालीर शगेरु शेलु शोभाञ्जनः श्रावण शाद शुद्राः । श्येनः शनैः श्लीपद शिग्रु शीधु - शुद्धान्त शांसी: (?) शितिशूर्पशौण्डाः ॥ १८२ ॥ ४३ शण्ठः शुण्ठी शत: श्रेष्ठचिश्चित्र (श्रेष्ठश्चित्र) श्रोत्राणि शर्करा । शर्करी शर्वरी शक्ति - शुक्ति शुल्कानि शष्कली ॥१८३॥ ४४ श्रातं श्वेतं शिवि श्याव शत्रु श्वयथु शाकिनी । शिशुः श्लोकश्च शुल्बं च शालीनं च शिलीमुखम् ॥ १८४॥ ४५ श्लक्ष्णं श्लाधा च शीर्णं च शिक्यं श्रद्धा च शिंजया । श्योनाकः शूरणः श्राणा शिक्षा श्यामा च सेवधिः ॥ १८५ ॥ ४६ आदितालव्याः || उशीर काश्मीरक किंशुकांशुकं किशोर किशारु कशेरु कौशिकम् । जलाशयाऽशोक कृशानु कश्यपाः यशः पिशङ्गाऽश्म पिशाच रश्मयः || १८६ ॥ ४७ निशान्त वेशन्त विशाल पेशलं बिलेशयाऽश्वत्थ निशीथ विंशतिः । विशंटकश्चानुशया शयाश्रयाः सहोपशल्या शनिवासिताश्विनौ (?) ॥ १८७॥ ४८ निशितं पिशितं प्रश्नः पिशुनो दशनोऽपि च । उशना लशुनं वेश्म कश्मलं विश्वमश्ववत् ॥१८८॥ ४९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृश्यावश्यायविशिखं विशाखा विशिखा शिखः । विशदः पाशक: पाश्र्वं विश्रामश्चेश्वरोऽशनिः ॥१८९॥ ५० मध्यतालव्याः ।। ईश प्रकाश कुश केश विकाश काशा - माकाश कीकश पिशाऽनिश पाशि पेशिः।। पिङ्गाश तादृश दृशः सदृशो विनाश - कीनाश कर्कश दिशो दश देशदाशाः ॥१९०॥ ५१ क्रोशाशु लोमश पलाश निवेश लेश - क्लेश प्रवेश परिवेश वसंधवेशः (?) । पशुः पशुः परशुरंशुरुपांशु पांशु - निस्त्रिंश दंश विवशा मश वंश तंशाः ॥१९१॥ ५२ बालिशः कुलिशो राशिर्वराशिर्बडिशो भृशम् । अपभ्रंशः पुरोडाशो विमिश्रोऽश्रिरनेकशः ॥१९२॥ ५३ दर्शः स्पर्शः स्पशोऽमर्शः कर्णो वाशा निशा कशा आशादर्शोर्वशी काशी तिनिशेशानिः कशाः ॥१९३॥ ५४ __अन्ततालव्याः ॥ शौरिर्मुरारौ शिव एव शर्वः शूरः समर्थे झष एव शालः । शमः प्रशान्तौ शकलं च खण्डे शकृत् पुरीषेऽजगरे च शीरः॥१९४॥ ५५ मूर्धन्य श्रेष्ठयोर्वेश्या करिण्यां च वशा श्रुणिः । अनं वेदे च कर्णे च श्रुतिर्दास(श)श्च धीवरे ॥१९५॥ ५६ । व्यवस्थातालव्याः ॥ शिंशपा शाश्वतं श्वश्रूः श्वशुरः शिशिरः शिशुः । शिश्र श्मश्रु श्मशानानि शशी शश्वत् कुशेशयम् ॥१९६।। ५७ शक(का?)शि विश्वकाशीशस्तथा शीतशिवोऽपि च । तालव्य शद्वययुताः कियन्तोऽमी प्रदर्शिताः ।।१९७।। ५८ उभयतालव्याः ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वास: शासनं शास्त्रं शस्त्रं शस्ता शरासनम् । तालव्यानन्तरं दन्त्यैः शब्दाः केचिदुदीरिताः ॥१९८॥ ५९ तालव्यशकारनिर्देशः ॥ षडालिका पाण्डव भूषणोषणं पाषाण रोषाण विषाण भीषणम् । पाषंड कुष्मांड निषेक मूषिकं गवेषितं नि:षम दुःषमेषिकम् ॥१९९।। ६० पुष्पाभिषेकौ विषयोषिदीषद् दृषत्तुषाराट् विषवन्निषेधाः । दुषेध भैषज्य कषाय घोषणं हृषीकमा च विषाद वर्षणे ॥२००॥ ६१ ऐषमो वर्म भीष्मोष्म-निषादाषाढगोष्पदम् । अभिषङ्गोऽनुषङ्गश्च दुःखं वा षिको द्विषत् ।।२०१।। ६२ दूषिका चषकः प्रेष्यो भाष्यं च धिषणैषणे । प्रषतः परिषत् पर्षत् तुषारोषरमर्षणम् ॥२०२॥ ६३ वास्तोष्पतिदिविषदौ दुःपीडं च बहिःकृतम् । निष्कुटं किष्कु मस्तिष्कं तुष्वरं दु(दुः)करेषरौ ॥२०३।। ६४ तुरुष्क मुष्क विष्कम्भ-निष्क निष्कल पुष्कलम् । वस्तिष्कं वष्कयिण्यां च लोष्टेष्टपुष्टविष्कणम् ॥२०४।। ६५ इति मध्यमूर्धन्याः ।। पेयूष यूष पीयूष-गण्डूष पूष विपुषः । वातरुषो वरुषश्च खलूषारूषपूरुषाः ॥२०५॥ ६६ हनूषः कल्मषः पूषोऽभ्यूषश्रुषो मनीषया । हेषा हेषा जिगीषा च स्नुषा निमिषया सह ॥२०६।। ६७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोचिषो महिषोन्मेष-प्रमेषामिषमारिषम् । कल्माषोष्णीष कुल्माष-माष मेष मिषं मृषा ॥२०७॥ ६८ किल्बिषं कलुषं चाष-स्ताविष तविषौ विषम् । तविषी त्रपुषी रोष-स्तृषा तोष तृषत् त्विषः ॥२०८॥ ६९ अभिषेको भषोऽभ्रेष-पुरुषा व्यतिषेषवः ।। मंजूषा निकष द्वेष-दोषः कोषः कषः कृषिः ॥२०९॥ ७० उषावुषा वृषा व्याष-व्योषास्तर्षक कर्षयः । हर्षो वर्षश्च संहर्षः कर्षः कर्षुः प्लुष प्लूषः ॥२१०।। ७१ अम्बरीषं करीषं च तरीषं च पुरीषवत् । निपेषोऽलम्बुषः पौषो योषा श्लेषपलंकषा ॥२११॥ ७२ अन्तमूर्धन्याः ॥ शीर्षं शिरीषं शुषिरं श्लेषः श्लेष्मा च शेमुषी । विशेषः शोषणं शष्प-शिष्य शैलूष शौष्कलाः ॥२१२॥ ७३ तालव्यमूर्धन्याः ॥ तालव्यशादयः प्रोक्ता कथ्यन्ते दन्त्यसादयः । सुषुप्तिः सुषमा सर्पिः स्वल्पं चापि सुषुप्तकः ॥२१३।। ७४ सुषीमं च सुषेणश्च सुषन्धिः सर्षपोऽपि च । दन्तमूर्धन्याः ॥ तालव्यान्ताश्च धूष्माश-गीष्पाश नृपदेशकाः ॥२१४॥ ७५ तालव्यान्तमूर्धन्याः । मूर्धन्यनिर्देशः (?) ॥ सद्यः सुधा सलिल सुन्दर सिन्दुवार - सिन्दूर सान्द्र सिकता सित सेतु सूताः । सालूर सूर सरक स्वर सौरि सूरि - स्मेर स्मराः समर सार समीर सृराः ।।२१५।। ५६ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33 सौवीर सागर सरित् सुत सारमेयाः संवित् समित् सकल सिल्हक सौविदल्लाः । स्वादः सदा सपदि सूद सूदः सरंडा: स्वेदः स्वरः सवन सीवन सत्र सूत्रम् ॥ २१६ ॥ ७७ स्वामी समः समय सामज सामधेनी सोमाः समूह समवाय समुद्र सासि (मि ? ) । सीमन्त सीम सिम सून समान सूलाः सूक्ष्मं समूट सरट स्वन सानु सूनुः ॥ २१७॥ ७८ स्याल: श्र(शृ/स?) णि: सरणि सारथि सिक्थ सिक्थि (?) सार्था सहाचर समाज समीक सूर्याः । स्वैरं सरः सचिव सूचन सूचि सव्य सेव्यानि सद्म सदन स्यद सूप सु (सूर्या: ॥२१८॥ ७९ सायं स्मितं सायक सक्थ सेतु सिन्धुः त्सरु स्तुक् सहदेव सर्गाः । सेक - स्रजौ सेवक सेव सन्तः सत्त्वं च सातिश्च सखा सुखं च ॥ २१९ ॥ ८० सनातन स्यन्दन साधनानि संकार सौरेयक सर्ज सर्पिः । ससावरो सूनृत संकुलौ च सर्वे च साक्षी सविता च सृक्वि ॥ २२० ॥ ८१ सैरन्ध्री च सिनीवाली सारङ्ग स्वप्न सांप्रतम् । स्नायुः स्नेहः स्नुही सद्यः सरघा सौरभं सभा ॥२२१॥ ८२ आदिदन्त्याः || वासा (स) रासारकासार कासारप्रसरासुराः । वेसवार: परिसरो मसूरः कुसुमानसम् ॥ २२२ ॥ ८३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 प्रासादापसदासन्दी व्यासङ्ग स्तव दस्यवः । प्रसूनं प्रसवो लास्य -मास्यं प्रसभ रासभौ ॥२२३॥ ८४ अवसायः किसलयः कुसूलं च विकस्वरम् । मसृणं प्रासना वासी भस्माकस्मिकघस्मराः ॥२२४॥ ८५ अमावास्याः प्रतिसरः प्रसारो विसरोऽपि च । वसन्तश्च तुसारश्च मसारश्च रसाञ्जनम् ॥२२५॥ ८६ वसुधा व्यवसायास्र - वसन व्यसनानि च । तमिस्रं चास्रघस्रोत्राजस्रविस्रभवासिताः ॥२२६॥ ८७ कैलास लाल किलास विलास लास कर्पास हास कृकलास निवास नासा: । न्यासांसमांस मसि कीकस कंस हंस ध्वंस प्रकुंस पनसा सुधसु प्रवासाः ॥ २२७॥ ८८ निर्यास प्रास वीतंसो - त्तंसालस मलीमसाः । वासा विसं तामरसं वासश्चमसबुक्कसौ ॥ २२८॥ ८९ व्यासावभासदिवस - रस सारस वायसाः । वाहसः पट्टिसोच्छ्वास- मासासि मिसि बुक्कसाः ॥२२९॥ ९० अन्त्यदन्त्याः ॥ मृत्सा चिकित्साप्सरसो बुभुत्सु श्चिकिस्तितं मत्सर मत्सरं च । वात्सायनोत्सारण मत्स्य दित्सु - गुत्सोत्सवोत्साह विधित्सुकुत्साः ॥२३०॥ ९१ मध्यदन्त्याः ॥ कृत्स्नं च लिप्सुरुत्सृष्ट-मुत्सानिर्भर्त्सनोत्सवाः । बीभत्सा धीप्सता भीत्सु-समुच्छे(त्से) कोत्से (त्सु ? ) का अपि ||२३१ ॥ ९२ संयुकदन्त्याः ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n संसार सारस सरीसृप सस्य सास्ता(स्ना?) सारस्वतानि सरसीधजमंजसं (?) च । स्वस्त्रा च साहस सहस्र सहः समास - सामस्त्य संसरण सासकसंसनानि ॥२३२॥ ९३ सस्यक: साध्वसं संक-स्तुकः सारसनं तथा । अमी दन्त्यद्वयोपेता उष्मभेदेऽत्र दर्शिताः ॥२३३।। ९४ अथ प्रशस्तिः ॥ श्रीसाहसाङ्कचरितप्रमुखास्तु गद्य पद्यप्रबन्धरचनास्तु वितन्वतैव । व्युत्पत्तिमुत्कलतमां परमां च शक्तिं उल्लासिता जगति येन सरस्वतीयम् ॥२३४।। ९५ निःशेषवैद्यकमताम्बुधिपारदृश्वा शब्दागमाम्बुरुहखण्डरविः कवीन्द्रः । यत्नान्महेश्वरकविर्निरमात् प्रकाममालोक्यतां सुकृतिनस्तदसावनार्थः (?) ॥२३५॥ ९६ नामपारायणोणादि - निरुक्तोक्तैर्विकल्पितः । शब्दैवर्णविधिश्चान्तैः संदृब्धोऽप्येष साधुभिः ॥२३६।। ९७ कर्तुं चेतश्चमत्कारं सतां हर्तुं विपर्ययम् ।। संशयं च निराकर्तु - मयमस्मत्परिश्रमः ॥२३७॥ ९८ इति श्रीसंशयगरलजाङ्गली नाम्नी नाममाला समाप्ता । वृद्धतपागच्छे श्रीपं. विनितसागरशिष्यजिनेन्द्रसागरेण लिपीकृतोऽयं ग्रन्थः संवत १७९९ वर्षे फाल्गुनमासे वलक्षपक्षे द्वितीयायां स्थंभतीर्थे विद्यागुरोः केसरवर्द्धनस्य सानिध्यात् ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. वर्धमानसूरि-शिष्य श्रीसागरचंद्र-मुनि विरचित उत्तरकालीन अपभ्रंश भाषा-बद्ध नेमिनाथ-रास संपा. रमणीक शाह ला. द. विद्यामंदिर स्थित उजमबाई भंडारनी १७७४ नंबरनी ताडपत्रीय हस्तप्रत पर थी वीशेक वर्ष पहेलां प्रस्तुत रासनी नकल में करेली. ३५ से.मी. x ४/ से.मी. मापनी आ हस्तप्रतमा पत्र ३७ थी ४२मां आ रास लखायेल छे. रासनो शरूआतनो केटलोक अंश खूटे छे, कारण प्रतमां पत्र ३७मुं नथी. प्रतमां बीजी रचनाओ साथे प्रस्तुत रचना ६ट्ठा क्रमे संग्रहायेली छे. __ अंतिम २ पंक्तिओमां कर्ताए पोतानो परिचय नागिलकुलना आ. वर्धमानसूरिना शिष्य तरीके आप्यो छे. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास (पृ. २५४-५५)मां मो.द.देसाईए 'गणरत्नमहोदधि'ना कर्ता वर्धमानसूरि विशे लखतां 'गणरत्नमहोदधि'मां पंडित सागरचंद्रना रचेला केटलाक संस्कृत श्लोकोनो उल्लेख कर्यो छे. आ सागरचंद्रज 'नेमिनाथ रास'ना कर्ता होवा संभव छे. 'गणरत्न महोदधि'नुं रचनावर्ष सं. ११९७ छे. आ जोतां सागरचंद्र ने विक्रमीय १२मी सदीना उत्तरार्धमां मूकी शकाय. साहित्यिक दृष्टिए कृति सामान्य छे, पण भाषा दृष्टिए तेनुं मूल्य छे. उत्तरकालीन अपभ्रंशनी आ कृतिमां प्राचीन गूर्जर भाषानी अनेक विशेषताओ नजरे पडे छे. अद्यावधि अप्रकाशित होवाथी अहीं एक ज हस्प्रतना आधारे संशोधित करी प्रगट करी छे. पद्योना सळंग अंको संपादके मूक्या छे. मूळना अशुद्ध पाठो टिप्पणमां नोंध्या छे. -x---xसागरचंद-मूणि-रइउ __णेमिणाह-रासु (३८/१) तं निसुणेविणु चिंतियं, जे आउहपालि जंपियं । किं एहु संपइ वासुदेउ, जसु एत्तिउ बलु संवरु अजिउ । रोस-महा-भर-पूरियउ, आकंठ-पमाण-सरोसियउ । रत्तारुण- [किंसुय-आणणउ, तंबारुण- नयण भयावणउ । मूळ अशुद्ध पाठ ४. रत्तारुण-सुय Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिकुमरु जा पत्तु तहिं, पुणु जंपइ जाइसि एव कहि । जो ससुरासुर-इंदेण, महु दिन्नउ संखु पसन्नेण । सो समरंगणि जिणवि मई, आऊरण-जुत्तउ होइ पर्छ । लइ पहरणु थिइ संमुहर, जुझंतहं नामिउ सो जयउ । ८ तक्खणि पभणइ नेमि-जिणु, सिवदेविहि नंदणु साम-तणु । किं संग्रामि निदिएण, बहु-जीव-समूह-खयंकरेण । वामइ करि तुरु लग्गु महु, जइ नाँवहि लीलई जिणहि तुहुँ । अह व न नाँवहि मज्झु करु, तो जायवि रज्जु करहि पवरु । १२ तिं वयणि आरु? हरि, गुरु-दप्पु लग्गु तसु वाम-करि । बे सूरा बे चारभड, (बे) निज्जिय-तिहुयण-सेस-बल । जासु जिणिदह अतुल बलु, तसु लग्गवि हरि सूहुअकलु (?) । जयजयकारु करंति पर, गयणंगणि आवहिं तेत्थु सुर । १६ बहुविह-फुल्ल-सुयंधीय, कुसुमंजलि तक्खणि मुक्की य । (३८/२) जय जय जायव-कुल-धवल, जय नेमि-जिणेसर अतुल-बल । जय जय सिद्धि-वहुहु कुमर (?), जय निम्मल-नाण-पहाण-धर । तिन्नि पयाहिण दिति सुर, निय-भुवणेहिं जंति तहिं अमर । २० एत्थंतरे सहे (?) कज्ज-गई, तुहं डाडिए (?) निसुणहि मुद्धमई । अद्धचक्कि मण-दुम्मणउ, जावच्छइ तेत्थु दयावणउ । चिंता-सायरे सो पडिउ, अम्ह लेसइ राणिर्वं निज्जिणिउ । जाणिय कज्ज सु दीहमइ, बलदेविं वुच्चइ चक्कवइ । २४ मं उब्वेवइ देहि मणु, बावीसमु एहु उप्पन्नु जिणु । जिणवर होति अणंत-बल, विनाण-कलागम-अइकुसल । मेइणि छत्तु धरति सिरि, उम्मूलवि लीलई डंडु गिरि । संसारिउ सुहं नऽहिलसहि, न-वि रज्जु भोगु विसया वि नहि । २८ ६. दिनउ २२. तेथ ९. सामतj १०. निदृएण १६. तेथ २३. पदिओ ... गणि च २६. विनाण Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ निहिय-कम्म- विवाग- तण, अवतरहिं महियले विमल - मण | तित्थु पसत्थु पवत्तिसइ, उप्पाडिय केवलु सिज्झिसइ । केत्तिउ कालु तर्हि सरिउ, पुणु माया - वित्ति एउ भरिउ । देक्खवि नव- जोवण - रमणु, रमणीयण - नयण-सुहाव-तणु । एवहिं परिणेहि तुहुं कुमर, घण सइंवर आवहिं कन्न वर । उ (३९.१) ग्गसेण - धुय राइवइ, अवरा वि जसुमइ रुववइ । अलिउल- कज्जल-चिहुर- सिर, उत्तुंग -पओहर मयण - वर । पुन्निँव - सरि-मंडल - वयण, सिय- सउण- गइ वर- मृगनयण । निब्भर - नेह ज राइवइ, तुहुं पुत्तय परिणहि मुद्धमइ । तक्खणि पभणइ नेमि - जिणु, सुणि ताय महारउं तुहुं वयणु । जइ संसारे थिरत्तणउं, किँव होइ त एउं वि सुंदरउं । जीविउ जोव्वणु विज्जु- समु, धणु बंधव परियणु अन्नु जमु । सोक्खह कारणि परिणियई, परमत्थई अप्परं विनडियई । काई अम्मतिं परिणियई, संसारे पडंतहं हेउयई । इच्छमि परिणण सिद्धि-वहु, एगंत कंत जहिं सोक्ख - पहु । पभणिउ पुण - वि दसारेहिं, बलदेव - केसव-बंधवेहिं । कुमरु न मन्नइ तहु वयणु, संसार- सोक्ख- अइ- भग्ग - मणु । कुंकुम - कत्थूरिय - जलेण, कप्पूर- सुवासिय सीयलेण । अवागपरु (?) जल-छंटणेण, सहि मज्जण - वाविहिं सुंदरेण । बोहिहिं लेवणु गुरुयणेण, मन्नाविउ परिणणु सज्जणेण । चितेविणु मणि कुमरेण, (३९. २) हर - हरिय - [द] सार(?) वर-चरणेण । गुरुयणु न वि अवगन्नियइ, जं भणइ तह त्ति अणुट्ठियइ । ४० । ४८ 38 ३२. रमणुं २९. महीयले । ३०. तित्थु पसत्तु उप्पाडिउ । ३१. भणिउ तणुं । ३३. परहिं । ३४. उग्गसेण-वय रायमइ ३६. पुंनिवं ससि मंडण सिय सउण गयंचर... | ३७. निज्झर ४४. सो वलदेव.... ४५. तन्हु त्रयणु ४३. इच्छत्रि ४९. कुमारेण .... ३२ लग्रा ४४ जसुंमइ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसारव मुच्चंति हय, पउणीया तक्खणि पवर गय । संदण घण सारहि मण-रमण, भड़-चडयर-सज्जिय नयरि-जण । ५२ भूसिउ सव्वाहरिय(? रणेण)तणु, आरूढु महा- रहि नेमि-जिणु । मंगल जय जय सद्देहिं [सारेहिं], परियरियउ दसहिं दसारेहिं । चल्लिउ परिणणु नेमि-जिणु, पुणु कोडिं जोयइ नयरि-जणु । तुंगऽट्टालेहि चडिन्तियउ, अवरोप्परु जंपहिं रमणीयउ । हले हले धन्नी राइमइ, जसु होसइ नेमि-कुमारु पइ । वेस-विलासिणि-नच्चंतिहि, नड-नच्चण-पेच्छण-गायंतिहि । पत्तउ निसुणवि तहिं कुमरु, आकंद-महा-भरु जीव-खु । भो भो सारहि निग्घिणउ, कसु सुम्मइ सद्दु दयावणउ । ६० पभणइ सामिय जीव-रखु, तुह परिणय कीसी वर-विहवु । संबर-सूयर-हरिण-भरु, सस-गंडा-चित्ता-रोज्झ-वरु । अच्छहिं सव्वे विवाडिया, आणाविणु सामि उवालिया(?) । तुहं जीवाहिवहि जिसिहि,(४०.१)किवि खट्टामाहुर(?) किजिसिहिं । ६४ तक्खणि पभणिउ कुमरेण, संसार-महोयहि-तिनेण । एक्कह जीवह कारणेण, सय लक्ख वहीसिहि लोएण । बालि वालि रहु पच्छमुहु, संचालहि उज्जिल-संमुहउ । उज्जिल-सिहरि चडतेण, संभासिय जणणि कुमारेण । ६८ अम्मे होज्ज तुहुं धीर-मण, हउं लेमि दिक्ख बहु-मल-हरण । तं पर मुच्छ-विहल गय, धरणीयले तक्खण सा पडिय । सित्तिय चंदण-वाणिएण, कप्पूर-सुवासिय--सीयलेण । चेयण लहवि पबोलियं, किँव पुत्त सु चिंतिउ जंपियं । ७२ कवणु कालु तुहु वय-गहणे, सुकुमाल-सुलालिय-बालतणे । ५३. सव्वीहरिय-तणु ५५. परिणउ ५६. चइण्हियउ ६१. पभण सामिय ... परिण कीसी ६२. ससि गंडा ६६. जीवह करणेण ६७ पच्छहउ ६८. उजिल ७०. मुन्छाविविहल Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणमि विनिविनिय(?) नयण, पाहाणि मउलउं पाव-मण । पुत्त न हिट्ठउ परणियउ, वर-वत्थाहरण-विभसियउ ।। पुत्त न भुत्ता पई विसय, पंचिंदिय-मणहर-वर-सुहय । ७६ पुत्त न भुत्तउं रज्जु पई, जीवंतिय कीसी काइं मई । पुत्त न पेल्लिउ सत्तु-बलु, न-वि अज्ज-वि पयडिउ बाहु-बलु ।। करि-कुंभत्थलि न-वि रमिउ, न-वि अज्ज-वि ति(४०.२)हुयणि जसु भमिउ । पुत्त न परिणिय राइमइ, जा उग्गसेण-धुय रूववइ । ८० भावहिं पभणिउ कुमरेण, भव-भवण-महा-दुह-भीएण । दुत्तरु माइ ए भव-जलहि, परियंतु न लब्भइ को-वि तहिं । सो जि तरेवउ दारुणउ, जर-मरण-रोग-सोगाउलउ । संजम-बोहित्थेहिं चडेवि, तव-पवणे सुपेल्लिय तुरिय-गइ । ८४ संसारिउ सुहं अन्न-जम्मि, न-वि हुँति सहेज्जा नरगम्मि । अम्मे खमेवउं सब्बु पई, जं किंचि किलेसाविया य मई । इवें भणेविणु निग्गयउ, संभासिउ जायवि बप्पु तउ । निव्वर-निट्टर-वयणेहिं, जं किलिसिउ बहुविह-वासरेहिं । ८८ ताय खमेवउं दय करवि, हडं लेमि दिक्ख उज्जिलि चडवि । काई पुत्त वइरागियउ, किन कहिवि होइ(?) अवगन्नियउ । केण पुत्त वेयारियउ, जं उज्जिलि रहवर वालियउ । भुंजि रज्जु माणेहि सुय, पावज्जहि अम्हहं एह किय । ९२ रज्जई विज्जु-सरिच्छाई, न-वि जंति भवंतरे सरिसाइं । बप्पु नमेविणु निग्गयउ, संभासिउ परियणु अप्पणउ । (४१.४) चिंता-सायरे सो पडिउ, अम्ह अज्जु पर रवि अत्थमिउ । ___संभासेविणु नयरि-जणु, पुणु दस-वि दसार महुमहणु । ७९. किरि कुंभ. ८०. पणिय ८९. उजिल्लि ९४. नमेविण निययर... अप्पणउं । ९५. पदिओ... अज्ज पग .... अत्थामओ । ९६. दस वि दसाय Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चडिउ भराडउ गिरि-सिहरि, उज्जाणहं निज्झरणहं विसरि । पंचहिं मुट्ठिहिं कुमरेण, सहि लोचु करेविणु धीरेण । लइय दिक्ख संजम-कलिय, मय-मोह-माण-माया-रहियं । पंच-महव्वय-तुंग-भरु, उप्पाडिउ नेमि-जिणेण वरु । १०० दिक्ख-महिम किय इंदेहिं, सहि चउविह-देव-निकाएहिं । चूरवि कम्मु महंतु गिरि, संपत्तिय केवलनाण-सिरि । विहरइ सामिउ विगय-मलु, गामागर-मंडिउ धरणि-यलु । ' कंकेल्ली विरयंति सुर, च्चुलंता(?) अन्नु महा-चरम(?) । १०४ दुंदुहि वज्जइ मेह-सर, छत्तत्तय सीहासण पवर । जलहर-सम-गंभीरेण, पडिबोहिय पाणिण सर-कलेण । पुरओ भामंडलु विमलु, रवि-तेय-पणासण सुहि सयलु । चउतीस अइसय-संजुयउ, सह देव-सहस्सेहिं संकुलउ । १०८ पउमासण-मंडिय-चरणु, सहि जोवणभूमि नरोरगणु (?) । पुप्फ-पयरु निवडंति तर्हि, सहि(४१.२) विहरइ नेमि-जिणिदु जहि । जंतई कालिं कित्तेण, जं वित्तउ लाडिए सुणि मणेण । निसुणवि कुमरह गिरि-गमणु, जं रुनउं राइमईए कलुणु । ११२ मुच्छिय विहलंघलिय-तण, सहि सुन्निय वुन्निय विमण-मण । विरहानल-संतत्त-तण, पुणु मेल्लइ धाह कराल खण । ऊसासेहिं नीसासेहि, संभरिय कलेवर बहुविहेहिं । जूरइ चूरइ निय सइरु, तहिं अप्पई सहु लग्गउं वइरु । ११६ हार-दोर-कडिसुत्ताइं, सा तोडइ नेउर-वलयाई । ताय ताय परिताय मई, सो आणहि नेमि-कुमारु सई । हा हा माइए निग्घिणिय, किं अच्छहि सुम्मिय सीयलिय । हा हा भाउय धाह तुहुं, सो आणहि नेमि-कुमारु महु । १२० मरगय-वन्नउ सामलउ, सो जायव-वंसह मंडणउ । ९७. उज्जाणण ९८. पंचह मुठिहिं १०३. मामागर..मंडिउ १०७. रवि-वेय १०८. चउतिस ११०. पुप्फययरु. ११३. सहे १२१. मरगय-वनिं...वसह Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 मं रोविसि थूलंसुहिं, तुहुं पुत्तय रुन्नउं अइ-घणेहिं । ससि-किरणुज्जलु गुण-नियरु, अवरो-वि लहेसहं तुज्जु वरु । काई ताय एउ बोल्लियउं, किं न जाणिउ अम्ह तणउं हियउं । १२४ (४२.१) कुलनारिहि फुडु एक्कु पइ, जिं कारण होइ महा - सई । जो पडिवन्नउं चित्तेण, आमरणउं सो ज्जि पइ मणेण । १२८ अन्नु न इच्छउं को -वि नरु, सो मेल्लवि नेमि - कुमारु वरु । वारिज्जइ सा सहियणेण, विलवंती सोय - महाभरेण । हले हले विहल नयण - जुउ, न-वि दिउ नेमि - कुमार- मुहु । जोव्वण- लच्छि असार सहि, जा भुत्तिय नेमिकुमारि न - हि । एवहिं सो जिण दु गइ ( ? ), एउ बोल्लइ हल - सहि रायमइ । लेविणु दिक्ख जिणिंदमय, जा सासय- सोक्ख - महा - फलय । १३२ वंदिउं जाइवि नेमि - जिणु, ता पत्तउ केवलनाणु पुणु । बोहेवि मेsणि - जीव- गणु, पुणु चडियउ उज्जिलि मि - खोडेवि सयलु वि कम्म - मलु, संपत्तउ सिद्धिहि मि- जणु । चविह-देव- निकाएहिं निव्वाण जत्त किय इंदेहिं । जो तहिं जायवि नमइ जिणु, सो मुच्चइ पावि भविय - जणु । कप्पूरई सिरिखंडेण, नव-कुंकुम- केसर-सुरहेण । | १३६ १४० खवलइ जो जिणवरह तणु, सो लहइ मणिच्छिउ सुहु मरणु । (४२.२) मालइ - कुसुमेहि सुरहेहिं, जो पूयइ नमिएहि इंदेहि | जो परिहावर वर - जुयलि, सो छिन्नइ दुक्ख - महा- कलि । निम्मल-कोमल- भरिएहिं, जो पहावइ कंचण - कलसेहिं । सो फुडु पावइ सिद्धि - सुहु, एउ लाडिए कहियउं सद्दु तुहुं । कहिसिउं सच्चु समासेण, जं पुच्छिउ लहे ( ? ) तरं भावेण । १४४ दाढा - भासुर - जीहालु, खर- नहर - भयंकरु पुच्छालु । केसर - कुरुल भयावणउ, संतासिय खुद्दोपद्दवउ । १३६. नेवाणं जत्त १३८. कपूरइं १४१. वर जवलि १४५. भयं पुंच्छालु १४६. केसरु कुरुलभावगर १४४. कहिसउं - Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्झ खमेहु पवर हरि, तहिं चडिय भराडी अंब-वरि । वरंसुय - जुयल - विभूसिय, निन्नासिय भूय विसंधिय (?) । भुवयि उज्जल - सिहरि, नर- देव - सुरिंदेहिं लद्ध - सिरी । इंतउ जंतउ भविय - जणु, सा रक्खउ अंबिक एक्क- मणु । ससुर मज्झहं जिण - भवणि, सा रक्ख करउ अंबिक सुर्याणि । नाइल-कुल- नह - भूसण, वद्धमाणसूरि गुण- गण - निलउ । १५२ रइयउ तस्स य सीसएण, एहु रासउ सागरचंदएण || १४८. विभूसीय १५३. सीसेणं विसंधीय । सागरचंदेणं । 43 १४९. उजिल्ल १४८ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयमानसूरिकृत 'पट्टक' - सं. मुनि महाबोधिविजय भूमिका : विक्रमना अढारमा सैकामां तैयार थयेल प्रस्तुत पट्टक तर्कसम्राट पू. पं. श्रीजयसुंदर वि. महाराजना संग्रहमांथी प्राप्त थयेल छे. आचार्यविजयमानसूरि महाराजनी आज्ञाथी श्रीलावण्यविजय गणिए आ पट्टक लख्यो छे. आनुं बीजुं नाम सामाचारी जल्प पट्टक छे. प्रतिने अंते 'ए अट्ठावीस' एम लखेलुं छे. गणना करता कुल २६ बोल थाय छे. खास करीने गच्छमां वधी जती शिथिलताने निवारवा अथवा गच्छमां अनुशासनने वधु मजबूत बनाववा पट्टक तैयार करवामां आवे छे. विक्रमना तेरमा सैकाथी आवा पट्टको बनावाया होय तेवू जणाय छे. प्रस्तुत पट्टकना प्रत्येक बोलमां आगमो, पूर्वाचार्यो रचित प्रकरणो तेमज केटलाक पट्टकोनी साक्षी आपी छे. श्रुतव्यवहार अने जितव्यवहारने पण ठेर ठेर प्रधानता आपी छे. __ अहीं साक्षी तरीके आपेला तमाम जल्पो प्रायः अप्रगट छे. जगद्गुरु श्री हीरविजयसूरि महाराजे द्वादशजल्पनी रचना करी छे - ते प्रसिद्ध छे - प्रगट छे. परंतु ते श्रीविजयदानसूरिकृत प्रसादीकृत ७ बोलना अर्थना विसंवाद टाळवा माटे रचायेल छे. अहीं जे क्रमांक १४ अने २०मां श्रीहीरविजयसूरिप्रसादित सामाचारी जल्पनो उल्लेख थयो छे ते द्वादशजल्पथी भिन्न समजवानो छे. अलबत्त, आ जल्प वर्तमानमां प्राप्त थयो नथी. परंतु तेवो एक जल्प रचायो छे ते नक्की छे. श्री विजयदेवसूरि महाराजे वि. सं. १६७२ वर्षे अषाढ सुद बीजना दिवसे पाटण नगरमां आदेश करेल पट्टकमांथी आ वात छती थाय छे. "भट्टा. श्रीहीरविजयसूरीश्वरइ ए बार बोल प्रसाद कर्या तथा भट्टा. श्री विजयसेनसूरीश्वरइं प्रसाद कर्या जे सात बोल तथा भट्टारक श्रीहीरविजयसूरि तथा भट्टा. श्रीविजयसेनसूरीश्वरई बीजाइ जे बोल प्रसाद कर्या ते तिमज कहवा पणि कोणइ विपरित न कहवा,जे विपरित कहस्यइ तेहनइ आकरो ठबको देवरास्यइ ।१।। प्रस्तुत पट्टक जुनी गुजरातीमां छे. क्रमांक नवमां आपेलो वृद्धवाद खास ध्यान खेंचे तेवो छे. 'छ मास उपरांत आचार्य शून्य गच्छनी मर्यादा अप्रमाण थार Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 एहवो वृद्धवाद संभलाइ छे.' आ सिवाय पण अन्य अनेक सामाचारीओनी वातो आ पट्टकमां छे जे ध्यानथी पठनीय छे. आचार्य विजयमानसूरिनी गुरुपरंपरा - शिष्यपरंपरानो उल्लेख मळतो नथी. तेथी ए अंगे विशेष प्रकाश पाडी शकायो नथी. -x-xसंवत् १७४४ वर्षे कार्तिक सुदि १० शुक्रे। भश्रीविजयमानसूरि निर्देशात् । उ । श्रीलावण्यविजयगणिभिः सामाचारीजल्पपट्टको लिख्यते । सुविहित समवाय योग्यं ॥ श्रुत जीत व्यवहारने अनुसारिं तपागच्छनी सामाचारी सन्मार्ग छे । जे मार्टि वशेषावश्यक पन्नवजी प्रश्नोत्तरसमुच्चयछत्रीसजल्पादिकनें अनुसार आज सुधी तपागछमाहि श्रुतजीतव्यवहार विरुद्ध प्ररूपणा नथी प्रवर्ती । अनें कोइई विरुद्ध प्ररूपणा करी विचारितेहने ते समवायना आचार्योपाध्यायादिक वी(गी)तार्थ मिली सर्वसुविहित संमति उत्सूत्र प्ररूपणा दोष निवारिओ ते समंध प्रसिद्ध छे माटि तपागछ सुविहित सद्देहेवो ॥१॥ तथा गछाचारवृत्ति निशीथचूर्णि कल्पभाष्यादिकने अनुसारि जघन्यथी निशीथ पर्यन्त शास्त्रना कोविद थइ माया मृषावाद छाडी नि:शल्यपणे प्रवचनमार्ग कहे ते मार्टि तपागच्छनी वर्तमान पदस्थ गीतार्थ पिण सुविहित सद्देहवो ॥२॥ तथा कल्पभाष्य उत्तराध्ययन ठाणांग दशवकालिक उपदेशमाला पंचाशकादिकने अनुसारि सुविहित पदस्थनी आज्ञा लोपी गच्छथी जुदा थइ स्वेच्छाइं टोली करी प्रवर्ते अने सुविहितगच्छनां गीतार्थ उपरि मत्सर राखे, लोक आगि छता अछता दोष देखाडें एहवा पूर्वोक्तश्रुतें रहित द्रव्यलिंगी ते मार्गानुसारी न कहिइ तो गीतार्थ किम सद्दहिइ ॥३॥ ___ तथा ठाणांग उत्तराध्ययनादिकश्रुतव्यवहार श्री आणंदविमलसूरि .. प्रसादित सामाचारी जल्पादिक जीतव्यवहारने अनुसार सुविहितगच्छने सहवासे वर्तमानगच्छनायकनी आज्ञाइं योग वही -- - -- दिग्बंध प्रवर्तिते प्रमाण ॥४॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4A तथा निशीथ नंदिचूर्णि आवश्यकनियुक्ति अनुसारि ऋद्धिगारवने रंग तथाविध पदस्थगीतार्थनी आज्ञा लोपी पूर्वोक्तविधि विना योग वही सभा लक्ष आचारांगादिक वांचे ते अरिहंतादिकनो, द्वादशांगीनो प्रत्यनीक यथाछंदो कहिइं जे माटि तीर्थंकर अदत्त गुरुअदत्तादिकनो दोष घणां संभवे छे ॥५॥ श्रुतव्यवहारई पूर्वोक्त जीतव्यवहारइं वर्तमान गच्छनायकनी आज्ञा विना गीतार्थे पिण भव्यनें दीक्षा न देवी। कदाचित् गछाचार्य देशांतरई होइ तो वेषपालटो करावी चार अ.नी तुलना कराववा पिण योगपूर्वक सिद्धान्त न भणाववो ॥६॥ तथा आचारदिनकर प्रश्रोत्तरसमुच्चयादिकनइं अनुसारि हैमव्याकरण व्याश्रयादिकसाहित्य उत्तराध्ययनादि सिद्धान्त भणाववा असमर्थ एहवा पन्यास गणेश बे उपरांत शिष्य निश्राई न राखइं आचार्य पिण अधिकनी आज्ञा नापें । तपागछमांहि आचार्यनी ज दीक्षा होइं अने सुविहित गछांतरें आचार्यादिक ५ माहि एक नी दीक्षा होइ । श्रुतव्यवहारिं तो गीतार्थने ज दीक्षानी अनुज्ञा छै ॥७॥ __ तथा श्री सोमसुंदर प्रसादित जल्पनें अनुसारि तथा महानिशीथ आचारांगदिकनें अनुसारि अगीतार्थसंयत विशेषगुणवंत गछने अयोगि शिथल सुविहितगछनी आज्ञादि स्वेछाई प्रवर्ते ते सामाचारीना प्रत्यनीक जाणिवा ॥८॥ उपदेशमाला दशाश्रुतस्कंध निशीथभाष्य ज्ञातादिकनें अनुसार गुरुनी आज्ञाइं चोमासुं रहे विहारादिक करे अन्यथा सामाचारी माथा सूनी माटि गुरु अदत्तादिक दोष संभवे जे माटि व्यवहारभाष्यादिकने अनुसार स्वे देशानुगत वाणिज्यादिक कर्म साक्षि राजानी परि पंचाचारनो साक्षि सदाचार्य छइं। अत एव छ मास उपरांत आचार्य शून्य गछनी मर्यादा अप्रमाण थाय एहवो वृद्धवाद संभलाइ छे ॥९॥ कल्पभाष्य दशवैकालिक भगवती पंचाशक गछाचारपइन्नादिकने अनुसारि स्वतः परतः शुद्ध प्ररूपक ते सद्गुरु जाणिवो ॥१० ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 आवश्यकनियुक्तिनें अनुसारिं सुविहित वृद्ध गीतार्थने योगि पाक्खी चोमासी संवत्सरीखामणां करवा ज । अन्यथा सामान्य शुद्धि न थाइं पडिकमणुं पिण अप्रमाण थाइं। जे माटि व्यवहारसूत्रादिकनें अनुसारि आचार्यादिकने अयोगि स्थापनाचार्य आगलि आलोचना प्रमाण होइ ।।११ ॥ अष्टकवृत्ति विशेषावश्यकभाष्यादिकने अनुसार वर्तमान पंचाचार्यमांहि थापनाचार्यनइ विषई मुख्यवृत्तिं गछाचार्यनी स्थापना संभविइ छइ पछे गीतार्थ कहे ते प्रमाण ॥१२ ।। श्रीसोमसुंदरसूरि प्रसादित सामाचारी कुलकने अनुसारि तपागछीय सुविहित साधुइ ४६ नियम गीतार्थ शाखि पडवजवा ॥१३ ॥ श्रुतव्यवहारई जीतव्यवहारइं लिहा पासिं संयतें उत्सर्गथी पुस्तक लिखावq नहीं ! कारणे लिखावें तो श्रीसोमसुंदरसूरि श्रीहीरविजयप्रसादित जल्पनें अनुसारि ५०० अथवा १००० गाथा लगइं गुरु आदिक आज्ञाई अन्यथा गुरुगच्छनिश्रित थाइं ते पुस्तक गुर्वादिकनी आज्ञा विना वांचq भणवू न कल्पे ॥१४॥ श्रुत जीत ऽगीतार्थसंयत पुस्तक क्रय विक्रे न ल्ये कारणि लेवू पडे तो गुरुनी आज्ञाइं गृहस्थ पासि लेवरावइ ॥१५ ॥ तथा श्रुतव्य. गुरुनी आज्ञा विना ऽगीतार्थ अपवाद सेवे नहीं ॥१७॥ जीतकल्पादिकनई अनुसारि ऋण आपी विशुद्ध न थाई तिहां सूधी देवाधि द्रव्य भक्षक साथि --- आहारादिक परिचय धर्मार्थी साधुइं श्रावकें न करवो। अनें ते दोषनी विपरीत [था]पना न करवी ॥१७॥ आवश्यकभाष्यादिकनें अनुसारि पोतानी टोलीना गृहस्थोने -- आवर्जवा निमित्ते पूर्वोक्त दोष सेवी जे गीतार्थ शाखि आलोयणा न ल्ये आप सुद्ध परुपक करी माने ते भूमीगत मिथ्यात्वी जाणिवा। तेह- उ----दर्शन न करवू ॥१८॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 उपदेशमाला सुगडांगवृत्ति छत्रीसजल्प तथा उ. श्री यशोविजयग. प्रसादित श्रद्धानजल्पनें अनुसारि मत्सरि सुविहितगछनी आज्ञा निरपक्ष्य थका सुद्ध सामाचारी विघयवी जे इहलोकानुरोधि अज्ञान कष्ट करी ते मायामृषावादी सद्देहवा ॥१९॥ तथा श्रीहीर. प्रसादितसमाचारीजल्पानुसारी नगरनी निश्राई २ मासकल्प उपरांत गुरुनी आज्ञा विना रहेवुं न कल्पे ॥ कल्पभाष्य श्रीजगच्चन्द्रसूरि प्रसादित सामाचारी जल्पानुसारि लोक आगलि सुविहितगछनां गुण ढांकी दोष प्रकासी लोकने व्युद्ग्रहसहित करी वंदनपूजनादिक व्यवहार टलावे ते शासनोच्छेदक सद्देहवा ॥ २० ॥ निशीथचूर्ण्यादिकने अनुसारि अगीतार्थ साधु गुरुनी आज्ञा विना नित्य वखाण करे निःशूक थइ गृहस्थ आणि सिद्धांत वांचे ते संयम श्रेणि बाहय पासत्था जाणवा ॥ २१ ॥ आवश्यकनिर्युक्ति दशवै. दशाश्रुतस्कंधा (दि) कने अनुसारि सांभोगिक पदस्थनें योगि निमंत्रणा विना जे नित्यें आहारादिक करे तेहनां नोकारसी प्रमुख पच्चक्खाण तथा महाव्रत लोपाइ गुरु अदत्ताहारादिक माटि ॥ २२ ॥ सामाचारी ग्रंथने अनुसारि गणेश साधुइं गुरुनी आज्ञा विना उपधान वहेरावे नहीं व्रतोच्चार करावे नहीं माल पहेरावें नहीं वांदणां देवरावे नहीं पोसह प्रमुख ना आदेश नापे । स्वेछाइ एतला वानां करावे ते गीतार्थनो प्रत्यनीक थाइ गुरुनी भक्तिभंगाशाताना संभवे माटि बीजुं एह विधि पिण गीतार्थगम्य छे. पंचाशकने अनुसारि एहवा माई मृषावादीनें साधु सुद्धपरुपक सद्दही विनयादिक करे तेहने पिण माठां फल संभवे ॥२३ ॥ पंचांगीने अनुसारिं खोटयं आलंबन लेइ कदाग्रहथी सामाचारी विघटयवे ते अवकर चंपकमाला सरिषा जाणिवा ॥ जिम समदृष्टिए बोल विचारी आराधक थाइ तिम आत्मा सुविहितें करवो ॥ २४ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 तथा सुवि. गछनायकें गणबहिः कृत संयतना शिष्य नें पिण गछवासी पदस्थ उपस्थापनापूर्वक दिग्बंध आचार्यादिकनी संमति ज करे अन्यथा तो पूर्वोक्त ४ श्रुतजीतव्य. ने अनुसारि स्वपर गछनो दिग्बंध सर्वथा न घटइं छ इम गणबहिःकृतसंजतने गछ्वासी पदस्थ स्वनिश्राइं कहि छे तेहने गुरुकुलवास स्वप्नगत राज्यलाभवत् प्रमाण नहीं ॥ २५ ॥ श्रु.जी. लोकरूढि सुविहितगछव्यवहारि प्रवर्त्तता सगोत्रीय आचार्यनी शाखि विना आचार्यादिक पद प्रमाण नहीं ॥ २६ ॥ ए अठावीस ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुण्यहर्षरचित लेखशृंगार - सं.मुनि महाबोधिविजय भूमिका : विक्रमना सोळमा सैकाथी अढारमा सैकामां लखायेला ढगलाबंध विज्ञपित्रो आजे प्राप्त थाय छे. परंतु आ क्षेत्रमा हजी जोईए तेवू खेडाण थयुं नथी. बहु जूज विज्ञप्तिपत्रो प्रगट थया छे. आ क्षेत्रमा जो वधु खेडाण थाय तो घणी जैतिहासिक विगतो बहार आवे. प्रस्तुत छे लेखशृंगार. विज्ञप्तिपत्रनी कोटिमां मूकी शकाय एवी आ अद्भुत कृति छे. मोटाभागना विज्ञप्तिपत्रो गद्यमां प्राप्त थाय छे. प्रस्तुत कृति पद्यमां छे. कुल एकसो चोसठ कडी छे. कृतिना कर्ता छे श्रीपुण्यहर्ष मुनि. वि. सं. १६४२ना चैत्र सुद पूनमना स्थंभनतीर्थमां आ कृतिनी रचना थइ छे. आ कृतिनी एक प्रतिकृति अमदावादना संवेगी उपाश्रय, हाजापटेलनी पोळना हस्तप्रतभंडारमाथी प्राप्त थइ छे. प्रतिलेखक नुं शुभनाम छे .... श्रीगजेन्द्रगणिना शिष्य श्रीरीडागणिना शिष्य श्रीरत्नहर्षगणि. प्रतिलेखन स्थळ पण स्थंभनपुर - खंभात छे. हवे आ कृतिना विषय अंगे पण थोडं जाणी लईए. जगद्गुरुश्रीहीरविजयसूरिमहाराज अकबरनुं आमंत्रण स्वीकारी वि.सं. १६३९ना गुजरातथी विहार करी दिल्ली पधार्या. चार चातुर्मास ए बाजु थया. चार-चार वर्षनो विरह मुनिश्रीथी सहन थतो नथी एटले सूरिजीने पत्र लखवा तैयार थया. खंभातथी आ पत्र लख्यो छे फत्तेपुरसीक्रीना सरनामे. सहु प्रथम पांच तीर्थंकरोने नमस्कार करीने भारतना मुख्य देशोना नाम आप्या छे. त्यारबाद मैवाड देशनुं अने फत्तेपुर सीक्रीनुं सुंदर वर्णन छे. पछी कवि श्रीविजयसेनसरि महाराज ना आदेशथी आ पत्र लख्यो छे तेनो उल्लेख करे छे. तथा सूरिजीने पोतानी भावभरी वंदना पाठवे छे. कडी ५३थी सूरिजीना गुणोनुं वर्णन चालु थाय छे. सूरिजीना गुण गावा केटला कठिन छे ते अलग अलग द्रष्टांतोथी समजाव्युं छे. अंते 'अइ गुरु गुण तुम तणा लिखता नावई पार' कहीने आ विषय पूर्ण कर्यो छे. कडी ८८/८९मां आ पत्र मळे एटले आपना स्वास्थ्यनी जाणकारी वळता पत्रमा मोकलशो तेवी विनंति करी छे. साथे आपना हस्ताक्षर प्राप थता अमने आनंद थशे तेम जणाव्यु छ. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यारबाद गुजरातमा रहेला प्रमुख साधुओना नाम आपी तेओनी वंदना जणावी छे, साधे सूरिजी जोडे रहेला केटलाक साधुओना नाम लईने वंदना पाठवी छे. 51 की १०४थी सूरिजीने गुजरात पधारवा माटे कवि करगरी रह्यो छे. गुरुजीनो विरह सहन थतो नथी ते वात तेमणे भिन्नभिन्न द्रष्टांतो वडे जणावी छे. वच्चे वच्चे मीठा ओलंभाओ पण आप्या छे. 'त्यांना देशमां तमे केम आटला बधा मोहाइ गया छो ? अमे तो तमने सुकुमाळ स्वभावना जाणता हता, तमे तो त्यां जईने बहु कठण मनना थइ गया छो... वगेरे. ' १२२मी कडीमां आ पत्रनी पूर्णाहुति करीने पत्र दूतने फत्तेपुर पहोंचाडवा आपे छे. जता दूतने उभो राखीने कवि कहे छे आ पत्र जलदीथी सूरिजीने पहोंचाड. साथे जणावजे के आपना दर्शन न थाय त्यां सुधी गुजरातमां केटलाय लोको अभिग्रहो लीधा छे. आप पधारो एटले घणा लोको घणी जातना सुकृतो करवाना मनोरथो सेवी रह्या छे. साथे ए कहेवानुं न भूलतो के अमे गुजरातना लोको भलाभोळा छीए. अमने कूड-कपट नथी आवडता. गुरुजी ! ए देशना धूतारा लोकोए आपने मोटा मोटा लाभो बतावीने भोळवी दीधा छे. छेले दूतने कहे छे तुं गुरुजीने जलदी थी गुजरात लइ आव. तो अहींना संघो तने सोनानी जीभ, रत्नना मुगट, अगणित धन वगेरे आपीने कायम माटे तारुं दूतपणं टाळी देशे. ... दूतने रवाना कर्या पछी गुरुजीनी स्मृति वधु ने वधु घेरी थता मनोमन जाणे सूरिजी साथे वातो करता होय तेवी कडीओ आवे छे. पत्र रवानो थइ गयो छे, थोडा दिवसमा गुरुजीने मळी जशे ए कल्पनाथी आनंदमां आवीने जाणे मोटेथी न बोलता होय तेवी हर्षभरी त्रण कडीओ छे. अंते पत्र जगद्गुरुने प्राप्त थइ गयो छे, तेओ श्रीमदे वांच्यो छे, अने हवे आववानुं मन करी रह्या छे तेवी वात छे. छेल्ले कळश आपीने आ कृतिनी समाप्ति करी छे. आखी कृति आह्लादक छे. गुरुना विरहमां शिष्यना हृदयमां थतो वलोपात छतो थाय छे. पुनः पुनः आस्वाद माणवा जेवी आ कृतिना कर्ताना चरणोमां भावभरी वंदना. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ऐं नमः ॥ आसाउरी ॥ ॥ १॥ ॥ २॥ ॥ ३॥ दूहा स्वस्ति श्रीऋषभंजिनं , श्री नाभिनरेन्द्रमल्हार । कनकवर्ण काय जेहनी, पंचशतधनुष उदार' संतिकरण संतीश्वरू सोलसमु जिनचंद । अचिरा माता उअरई धर्यो, विश्वरेन नृपचंद निज भुजबल हरि तोलियो, तजी जेणइं राजकुमार । गिरिवर रजइ संयम लीयो, जय जय नेमकुमार महिमा जेहनु जागतु, पूरई वंछित आस । त्रेवीसमु तीर्थंकरु, संकट भंजन पास बालपणइं जेणई चालियो, हेला मेरुगिरिंद। वासवचित्त चमक्कियो, अंतिम वीरजिणिदं इति पंचतीर्थी प्रति, प्रणमी लिखइ वर लेख । पुन्यहरष गुरु हीरनइ, फतेपुर नयर विशेष हंसतणी परि उज्जलो, वर्णन अधिक विचित्र । पंडित इव ते साक्षसो, वर्ण सुवर्ण सचित्र ॥ ४॥ ॥ ६॥ ॥ ७॥ ढाल ॥ ८॥ आरब-हबस-रोम-खुरासान काबिलनइ कंकाल । सब्बर-बब्बर-भिंभर-मुहर फरंगनइ प्रतिकाल जंगल-बंगल-गख्खर-भख्खर ठठानई बंगाल । हल्लार-लाहोर-उंच-महाउंच चीन-महाचीन-पंचाल ॥९॥ भोट-महाभोट-लाट-कासमीर करणाट-बईघाट-बंबाल । उड्त-गुडंत- भुटंत- भोटियो भाटी भोम भंभाल ॥१०॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लख्ख-सवालख्ख-पाल-नेपाल सिंधु अनइ सोवीर । हिच्छं-भुच्छ-भुंच्छाल-जटाला हम्म-हाम्म-हम्मीर ॥ ११॥ अंग-वंग-कुलिंग-तिलंगा गोड-चोङ-कनोज । भाल-भलिंद-मगध-मागध पाली-पंथ-कंबोज ॥१२॥ कासी-कोसल-करठ-मरहठ बहुलीनइ जट-जाट । निमच-नील-नलउ नीलाब नीलकंठ कैरखाट ॥ १३॥ कछ-महाकछ-कुंकण-कलहत्थ पाखर-पंड-खंडोर ।। गाजण-गंगापार-पूरवियो पारदल पंडोर ॥१४॥ उटकोट-अघाट-कलिंजर स्यालकोट चउसाल । कल्हर-काल्हर-होर-हाडोटी हुर हार हम्मीर ॥१५॥ कुरूप-कारूप-जालंधर-चिल्लर डाहल डंड डंडीआण । कान्हड-कचूउ-कल्ल-कल्लंदर मंड-मंडोर-मंडाण ॥१६॥ विकंड-घाट-लुंटाक-गुआलेर नरवर पंच भरतारो । स्त्रीराजा राज करई जिहां हइ हनुमन्त हकारो ॥१७॥ भरड भोरदर गुंड गुंडवाणो दक्खण सच्च साचोरो । सोवन्न भिन्नमाल भल सिंहल छपन धूत धूतारो ॥१८॥ कुणाल कामरु महीमड मालव खानदेस नमीआड। दम्मण सोरठ गुज्जर वागड मारुआड मेवाड ॥ १९॥ इत्यादिक जे देस सवालख्य तेहमांहि विख्यात । मध्यखंड विराजइ महीअल मोटो देस मेवात ॥२०॥ दूहा सकल देस मुखमंडनो श्री मेवात वडदेस । अकबर राज करतइ जिहां नहीं परदल प्रवेस ॥ २१॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 राग-मधुमाघ देस मनोहर श्रीमेवात जिहां जन न करइ कोणनी ताता लोक घणा दातार तु जय जय । ठाम ठाम ते दाननी साल पर्व घणी जिहाँ विसाला पथिक पामइं संतोष तु जय जय ॥ २२॥ वस्तु वाना कोना पइ घाट चोर चरड नवि लागइ वाट कनक उछालई हिंडइ तु जय जय ॥२३॥ वरसइ जिहाँ किणि माग्या मेह धरति धरइ अधिक सनेह नीपजइ बहुला अन्न तु जय जय ॥२४॥ न पडइ जिहाँ किणि कदाय दुकाल धान्य पाणीतणु सुगाल रंग-रंगीला लोक तु जय जय ॥ २५॥ लोकतणि घरि घणां य दुझाणां दधिअ दुध आपइ रिझाणा । अति घनइ अणमांग्या तु जय जय ॥२६।। देस देसना जिहां व्यापारी निज अधिकार धरि अधिकारी । _ वसइ ते लोकनी चिंता तु जय जय ॥२७॥ चामल यमुना नदी य मनोहरा वापी कूप अनइ सरोवर। वनवाडी आराम तु जय जय ॥२८॥ सूरीपुर हथनाउर सार मोटां तीरथ जिहां जूहारई। जाइ पातिक दूर तु जय जय . ॥२९॥ आगरुं बयानु पीरोजाबाद महिम अलवर अभिरामाबाद । दीली मथुरां हंसार तु जय जय ॥३०॥ तेजाराप्रमुख बहु गाम कोस कोस अन्तर अभिराम । जिन प्रसाद सहित तु जय जय सात व्यसन काढ्य जिहां कूटी। अमारी सरखी जिहां य वधूटी । ।। ३१॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555 अमर सरिखा पुरुष तु जय जय ॥ ३२॥ स्याहि अकब्बरनी जिहां आण अधिक स्युं किजइ वखाण । स्वर्गखंड अवता तु जय जय ॥ ३३॥ राग - देसाख ॥ ३४॥ ॥ ३६॥ ॥ ३७॥ सोहि अमरपुरी अ समान मध्यखंडमंडनं प्रधान । नयर फतेपुर जगवदीत उत्तम घर घर छइ जिहां रीत गढ मढ मंदिर पोल पगार चोपट चोहटा जिहां उदार । हट्ट तणी चिहुं पासि उल माणिकचोक विचइ अमोल ॥ ३५ ॥ धनद समाना जिहां धनवंत वसइ व्यवहार्या अतिपुण्यवंत । भोग पुरंदरलीलविलास कियो काम निजरूप दास रतिरूप जिहां सुंदर नार घूघर नेउरनइ रणकार । कामी केरा मन मोहंति मंथर मराली गति सोहंति निरखइ केइ नाटक रंगरोल करइ केइ कथाकल्लोल । गवडावइ बइठा केइ गान भावभेद प्रीछइ सुजान कनकदंडमंडित प्रासाद इन्द्रविमानसुं करता वाद । श्री जिनवर केरां जिहां तुंग कैलास तणा जाणे के तुंग ॥ ३९ ॥ जिहां मुनिवर पोसाल विशाल जग गुरु हीरजी दीइ रसाल । बइठां जिहां मधुरो उपदेश सुणइ सादर भविअन सविसेस ॥ ४० ॥ प्रबल प्रतापवंत महीनाह राज करइ तिहां अकबर स्याह । स्याहि हमाउ केरो पुत्र निज भुजबल सवि जित्या शत्रु ॥ ४१ ॥ विस्तरइ जेहनी आगन्या चंड विकट रायना ते लइ दंड । पलावइ चिहुं खंड अमार जाणइ बीजो श्रीकुमार न्यायनीतं जाणे के राम अवतरिउ कलियुग अभिराम । रूपई जाई सोहइ काम खानमलिक करइ प्रणाम ॥ ४२॥ 11 8311 11 3211 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 हस्ति जेहनइ पनर हजार बीजा दलतणो नहि पार । श्री जगगुरुना गुण समरंति राग-मालवीगुडु ॥ ४४|| वस्तु ॥ ४५॥ स्याहि अकब्बर मुद्गलाधीस वात पूछी तप कारइ । मोकली अ मेवाडा साहिबखाननइ गंधार थकीअ तेडावीआ । अतिमंडाण गुरुराज हरनइ जगगुरु बिरुद , देइ करी राखइ चतुर चोमास । संवत सोल एकतालए लाभ देइ जास(२) सोत्कण्ठं सोत्कण्ठं लिखति लेख मनोहरं । पुन्यहर्ष गुरु हीरनइ विनइ पूर्वक सादरं सोत्कण्ठं सोत्कण्ठं ॥ ४६॥ सकलदेश तणु विभूषण देश श्रीगुजरात ।। थंभनपास अलंकरी त्रंबावती विख्यातरी सोत्कंठं (२) ॥ ४७॥ श्रीविजयसेनसूरि आदेसइ तिहां थकी करजोडरी । सस्नेहं सोल्लासं स्वकीयमान मोड री सोत्कंठं(२) ॥४८॥ सानन्दं सप्रमोदं विकसितवर कपोलरी । रोमकूप समुल्लसंतं चकित लोचन लोल री सोत्कंठ(२) ।। ४९।। प्रफुल्लित वदनारविंदं भूनिहितोत्तमांगरी । संयोजितशयभालपट्टे वामनीभूत अंगरी सोत्कंठं ॥५०॥ द्वादशाव्र(वर्त्तवंनेनाभिवंद्य निजाशयं । विज्ञपयति विधिसहितं शिष्याणुकनिरामयं सोत्कंठ(२) ॥ ५१।। यथाकृत्यं निर्वहंति सुखसमाधि अछि तिहां । श्रीतातपद प्रसादथी अवधारयो गुरुजी तिहां सोत्कंठं (२)।। ५२।। श्रीगुरुहीरजी तुम्हतणी चउद भुवन मझार । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 कीरति कमला विस्तरी उजवल अति उदार श्री गुरु हीरजी तुम्ह तणो महिमा मेरु समान । ठाम ठाम गवाईइ सप्तस्वर बंधान राग- सिधू उगडी श्रीहीरविजयसूरीश्वरु जगगुरु तपगच्छराय । अनंत गुण गुरु तुम्हतणा मइ लिख्या नवि जाय रे 1 प्रभु तुम्ह गुण घणा राग हृदय नवि माय रे जाति र बहु को हवइ कोण उपाय रे ॥ प्रभु तुम्ह गुण घणा मइ लिख्या नवि जाय रे । प्रभु तुम्ह गउ घणा गंगा नदी वेलुकणा जो को गणीअ सकंति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो हइ जगगुरु तुम्हतणा । गुणगणी न सकंति रे प्र० सकल समुद्रना बिन्दुआ जो को गणीअ सकंति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो कइ जगगुरु तुम्हतणा ॥ गुणगणी न सकंति रे प्र० गगन तारा ज्ञानी विना जो को, गणीअ संकति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो हइ जगगुरु तुम्हतणा ॥ गुणगणी न सकंति रे प्र० चउदराज परमाणुआ जो. को, गणीअ सकंति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो हंइ जगगुरु तुम्हतणा ॥ गुण गणी न सकंति रे प्र० जलधि निज भुजा दंडई जो को तरीअ संकति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो हइ जगगुरु तुम्हतणा ॥ गुण गणी न सकंति रे प्र० ॥ ५३॥ 114811 ॥ ५५॥ ॥ ५६॥ ॥ ५७॥ ॥ ५८॥ ॥ ५९॥ ॥ ६० ॥ ॥ ६१ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .58 मेरुगिरि शिखर उपरि जो पंगुअ चढीअ सकंति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो हइ जगगुरु तुम्हतणा ।। गुण गणी न सकंति रे प्र० ॥ ६२।। तरल तरुफल भूमिषु वामणो ग्रही जो सकंति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो हइ जगगुरु तुम्हतणा ॥ गुण गणी न सकंति रे प्र० ॥६३।। निज खंधई आरोहणं तुम्ह गुण गणना गुरुराज मंदबुद्धि हुं हुंसी गुण गणवा हुओ आज रे । प्रभु० ॥६४॥ गुरुजी तुम्ह गुण मीठडा मइ बोल्या नवि जाय । गुंगइ खाधी खंड जिम रस हृदय जणाय रे । प्रभु० ॥६५॥ राग धन्यासी दूहा समुद्र दोत मेरुलेखनी गगन कागल कराय । लिखई बृहस्पति तुम्ह गुण तो हइ लिख्या नवि जाय ॥६६।। श्री गुरु हीरजी तुम्ह तणी उपम आवि सोइ । भमतां महीमंडलमांहि मइ नवि दीठो कोइ राग-आसाउरी मोहनमूरति पर उपगारी जुगप्रधान अवतार । सकलसुरासुर नरनारीनइ भवजलपार उतारई ॥६८॥ रे हीरजी । अनन्त गुण भंडार ताहरा गुम तणो नहीं पार । तुं तु टालइ सिथलाचार तुं तु पालइ सुद्ध आचारे हीरजी अनन्त गुण भंडार । जग गु० ॥ ६९।। सुगुण गुणमणि रोहण भूधर प्रणमित पद भूपाल । तपगच्छभारधुराधुरंधर षटजीवनगोपाल रे हीरजी० ॥ ७०।। सकलकलाकमला वो प्रभु उपसमरस शृंगार । ॥६७॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर चातुरी रंजित जनतासुविहित साधु सिंगार रे हीरजी० ॥ ७१।। भविक कमल वन खंड विकासन कमल बन्धु समान । दूरदूरिततिमिरभर टालइ गालइ मोहना मान रे हीरजी० ॥ ७२।। कामसुभट तइ हठ करी मार्यो क्रोध कीयो चकचूर । मायावेली अनमूलन उलट्य वल्लोल कल्लोल जलपूर रे हीरजी० ॥ ७३।। प्रसन्नहदय करुणानु सिन्धु, बन्धुर जलधिगंभीर । वादि मानमतंगजकेसरी मेरुमहीधर धीर रे हीरजी० ॥७४॥ सेवक जन चिन्तामणि सगवड समीहित दान दात(ता)र । हणि कलियुग गुरु तुं अवतरिओ श्रीगौतम गणधार रे हीरजी० ॥ ७५॥ श्रीविजइ दानसूरीश्वर पाटइं उदयो अविचल भाण । कर जोडी चतुर्विध श्रीसंघ मानइ तुम्ह तणी आण रे हीरजी० ॥७६॥ राग गोडी दूहा हीरजी तुम्हगुण वेलडी विस्तरी भुवनभरपूर । तारामिस समान फूली फल तिहां चंद्रनइ सू ॥ ७७॥ धन ते श्रावक-श्राविका जे तुम्ह सुणइ वखाण । धन जे निरखई तुम्ह मुख प्रह उगमतई भाण ॥ ७८॥ परिमल तुम्ह गुण केतकी मन मोहन हो त्रिभुवन भुवन मझार । लाल मनमोहन हो मनमोहन हो श्रीहीरविजयलाल । मनमोहन हो सज्जननिज मस्तक वहइ म० । तुम्ह गुणकुसुम उदार लाल० ॥ ७९।। पंडित जन कंठई वहइ म० । जगगुरु तुम्ह गुणमाल लाल० । इन्द्राणी रासइ रमइ म० । मेरुकानन रसाल० लाल० ॥ ८॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 तुम्ह गुण गायवा हउ म० । सहस वदन शेषनाग लाल० । सहसलोचन इन्द्रई धर्या म० । जोवा गुण धरी राग लाल० ॥ ८१ ॥ जग सघलुं ए धोलिउं म० । तुम्ह गुणे गुरुराज लाल० । पण कुमति मुख श्यामिका म० । हजी लगइ नहि गई आज लाल० ॥ ८२॥ तुम्ह गुणा दरिओ उलट्य म० । प्लाव्या कुमति लोक लाल० । तुम्ह गुण रविकर विकसतइ म० । जाये भविक को (लो) क अशोका लाल० 11 2311 स्याहि अकब्बर रंजिउ म० । गाइ तुम्ह गुणगान लाल० । सभामंडल बइठो सदा म० । सुणतई मलिक उरखान लाल० ॥ ८४ ॥ अइ गुरु गुण तुम्ह तणा म० । लिखतां नावइ पार लाल० । तुम्ह गुण समुद्र मांहि झीलतां म० । देह निर्मल निरधार साह कुंरा कुलमंडणो म० । नाथी उदर राजहंस लाल० । नयर पाल्हणपुर अवतर्यो म० । उद्योत कियो उसबंसा लाल० ॥ ८६॥ सकल भट्टारक सिरधणी मनमोहन हो । अनोपम उपम अनंत । तेण करी तुम्हे भर्या (म०) जिम जल सरिदाकंत लाल० ॥ ८७॥ राग धन्यासी लाल० 11 6411 दूहा अथ निज सरीर परिकर सुख- समाधि समाचार । मोकलवा स्वशिष्यंनि वलता श्री गणधार तुम्ह हस्ताक्षर पत्रिका दीठइ मन विकसंति । मोकलवी ते कारणइ सेवकनी करी चिंता ।। ८८ ।। ॥ ८९ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 ढाल श्री हीरविजयसूरी अकमना । पुण्यहर्षनी वंदना । वंदना अवधारज्यो गच्छपतिले ॥ ९०॥ श्री विजयसेनसूरीश्वरु । तुम्ह पाटि उदयो दिनकरु । दिनकरु भविक जननइ सुखकरु ए ॥ ९१।। श्रीसकलचन्द्र वाचकवर श्रीधर्मसागर गुण आगर । आगर सागर सकल शास्त्र तणु ओ ॥९२॥ वाचक राजकल्याणजी जस नामइ होइ कल्याणजी। __ (कल्याणजी) मोहनवेली कन्दलु मे ॥ ९३॥ पंडितश्री विद्याविमल रिष श्रीरीडो निर्मल । निर्मल चारित्र पाल इण युगई ओ ॥ ९४|| भोजहर्ष गणी लाभहर्ष निजबांधवगणि रत्नहर्ष । रत्नहर्ष सिद्धहर्ष ते हर्षतु ओ ॥ ९५॥ परमहर्ष आदई देइ गुज्जरमध्ये जे केइ ।। जे केइ मुनिवर वंदन वीनवइ ओ ॥ ९६॥ प्रेमविजय वइरागी अ विशेष थकी पाय लागीअ __ पाय लागीअ श्री गुरुनइ कइइ वंदना ओ ॥ ९७|| श्रीगुरुनइ पासइ सोहइ श्रीविमलहर्ष ज मन मोहइ । मनमोहइ दीवाणदीपक श्रीशांतिजीओ ॥९८॥ श्रीसोमविजय समता भर्यो श्रीधनविजय उद्योत कर्यो । उद्योत कर्यो कलियुग जिनसासन तणु मे ॥ ९९।। लब्धिवंत श्रीलाभजी प्रमुख मुनिवर जेअ जी । जेअ जी श्रीगुरुचरण तलइ रहइ ओ ॥१००। वंदना अनुवंदना बावन चंदन समवयना । समवयना जणावज्यो ते माहरी ओ || १०१॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिष्य सरिखं काजजी प्रसाद करयो गुरुराजजी। . गुरुराजजी शिष्य उपरि मया करीओ ॥१०२॥ वंदन गुज्जर संघनी अवधारवी ते सहूअनी ।। बालगोपालतणी प्रभु ओ ॥ १०३॥ दूहा सकलसंघ गुजरातिर्नु उह्मायो दर्शनकाज श्रीगुरुहीरजी तुम्ह तणइं मुकी निज निज काज ॥ १०४।। हीरविजइ सूरीस परमगुरु वाल्हा आवोनइ गुजरांति रे हवइ आवो नइ गुजराति रे, मोहन आवो नइ गुजराति रे, जगगुरु आवो नइ गुजराति रे, स्युं मोह्या तेणई देसडइ इहां समरइ संघ दिनरात्तिरे, तुम्हने समरइ जसंगजी दिनराति रे हीर० || १०५॥ समरइ जीम गयंद विंध्याचल विरहणी जिम भरतार रे चकवी जिम चकवानइ समरइ कोकिला जिम सहकार रे - हीर० ॥ १०६॥ मोर घनाघननइ जिम समरइ जिम सतीअ सीताराम रे समरइ जिम चकोर निसाकर दमयंती नल नाम रे हीर० ॥ १०७॥ जिम समरइ मानसरोवर हंसा भमरा जिम मकरंद रे चिदानन्दपदनइ जिम समरे लयलीनो जोगिंद रे हीर० ॥ १०८॥ माता जिम बालकनि समरि चंदन वन भोअंग रे बाछरुनि गो जिम समरे तापस निर्मल गंग रे हीर० ॥१०९॥ जुआरी जिम सरिदाने धन रहीत हेम हेम रे बलदेव जिम समरि हरिनि राजीमती जिम नेमरे हीर० ॥ ११०॥ नलनी जिम समरि दिनकरनि श्री गौतम वीर वीर रे पुण्यवंत जिम समरि पुण्यनि तीम ईहा एक हीर हीर रे हीर० ॥ १११॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 बिसत ऊठत हीडता करि एक तुम्ह तणु ध्यान रे जपमालीइं एक हीर हीर इति जपि लोक अभीधान रे हीर० ॥ ११२ ॥ हृदिभ्यंतर तुम्ह गुण लखीआ तुम्हसु अधीक सनेह रे वाट जोय जन तुम्ह तणी जिम बापीहा मेह रे हीर० ॥ ११३॥ चटपटी लागी तुम्ह गुरु विरहि तुम्ह विन काइ न सुहाय रे डुंगर घेणा पंथ वेगलो कहो कीम करी य मेलाय रे ॥ ११४॥ मोहन मुरत तुमतणी गुरु जोवा अलजइ अंखं रे । मन जाणिइ उडी मलां सुकरीय नहीं पंख रे हीर० गुरजी घणु तुम्हे रह्या गुजराति कां वीसारी तेह रे । खि एक बोल्या हइजे साथि न विसारी सजन जन दे रे हीर० ॥ ११६॥ ॥ ११५ ॥ गुरजी मनमाहि अमे जाणता तुझे सरक सुकूमाल रे । तीहा गये अवडु कीम कीधु कठपणु दयार रे । हीर० ॥ ११७ ॥ संघतणी अवि चंत करीनि पधारखं जुहारवा देवरे । 1 मन मनोरथ फलइ सहुना जिम करता तुझ पद सेव रे हीर० ॥ ११८ ॥ मनमांहि संदेसा भरीया ते कहसा अकांत रे । हवइ विहला पधारज्यो श्री तपगच्छपती अकांत रे । हीर० ॥ ११९॥ अधकी ओछी विनती लखाणी होय क्रीपाल रे । खमजयो गुरु गीरुआ अछो तुझइ बाल तणी ए आल रे हीर० दूहा विधु स्वामीमुख संवति वेद तनु आवास वर्षे चैत्रीपुर्णमा लेख लख्यो सोल्लास पूज्याराध्य भट्टारक श्रीहीरविजयसूरीस ॥ १२०॥ ॥ १२१ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 चरणकमलानामेयं फतेपुर लेख आसीस राग गुडधन्यासी विहलो तु जाओ भाइ दुत दुत नयर फतेपुर, जिहा छे गुरु माहरो हीरजी अ पडखे खीणु मत एक एक पंथ विचइ कीहां देखी नवनव कौतकां अ जाए अवछीन पयाण प्रयाणे मनमाहि रषे आणे तु परिश्रमपणु अ दीजे गुरुजीने लेख लेख व्याच्यांनंतर करे, पाओ लागी विनती अ आखडी अभीग्रहा अनेक अनेक गुज्जर गुरुदरीसण उपरघणां अ करो कीपा महंत माहंत जगगुरुहीरजी अबीग्रहा ते पोहो चढीयओ संघनि पधारो प्रभु गुजराति गुजराति लाभ घणो होसि मनवंछीत अतिमोटकाओ ॥ १२२॥ ॥ १२३॥ ॥ १२४॥ ॥ १२५ ॥ ॥ १२६ ॥ ॥ १२७॥ ॥ १२८ ॥ कोई कहेछ एम एम पत्रीष्ठा करावीय जो आवी गुरु हीरजीओ खरचाइव अनंत अनंत केई बोलि इम जो आवी० चोथाव्रततणी नांद नांद मडावा रंगसुं जो आवी० मालारोपण उपधान उपधान वहिय भावस्युं, ॥ १३३॥ जो आवि माहरो हीरजीओ बारव्रतना पोसा पोसा समक्यत उंचरीइ जो आवि गुरु० ॥ १३४ ॥ जो आवि गुरुराज राज देई ओलंभा करी बहुं बाडुपणांओ ॥ १२९॥ ॥ १३०॥ ॥ १३१॥ ॥ १३२॥ ॥ १३५ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 अई गुरु तुतणी प्रित प्रित मोह्या अकबरि लघु सेवक विसारीयाओ एक नही उत्यम रित रित प्रित करी पहलु देखाडि छे हो पछि खिर निरनी प्रित प्रित तेहवी उत्यमनी गोपंथ सरखी अवरनीओ धुतारा ते देसना लोक लोक भोलवीया तुझनि लाभ देखाडी अति घणाओ अम्हे गुजराति लोक लोक भोला भद्रक कुडकपट कई नवी वेयाओ खमावे पछी तु दूत दूत पाए लागी गुरुनि अदीकु ओछु ए बोलीय अ वीनवे वडो वजीर धनविजयगणि जे छे गुरुनि मानीतो अ दीजे दूत अरदास अरदास हमाउनंदन स्याही अकबर निजई अ कियावंत गुजरात गुजरात भेजो गुरुजनि उहि देते तुम्ह तणो अ वहलो तु आवे दूत दूत तेडी श्री गुरुनि दान देसा तुहुंनि घणु अ देसा सोवननी जीह जीह मुगट वर रयणन नवलखो हार गलातणो अ धनकनकनी कोड कोड देसा तुहनि दूतपणु ताहारु टालसाओ ॥ १३६॥ ॥ १३७॥ ॥ १३८॥ ॥ १३९॥ ॥ १४०॥ ॥ १४१॥ ॥ १४२॥ ॥ १४३॥ ॥ १४४॥ ॥ १४५॥ ॥ १४६ ॥ ॥ १४७॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग-धन्यासी सुगुण सलूणा हीरजीरे जामज्यो तपगच्छराय नेहागारा माणसाजीहो घडी वरसा सो थाय रे पूज्यजी पधारीय ॥१४८।। लागो लागो तुमस्युं हम रागो रे कि जुओ जुओ तुमेतो नीरागो रे कि कहो कहो एह व्रतातो रे कुण आगल कहा ॥ १४९॥ रयणी विहाय झबकता दीवस दोहेलो रे जाय । नेहांगारु माणसा जीहो घडी वारसा सो थाय रे पूज्य० ॥ १५०॥ भूखतरस सव वीसरी रे लागो एक तुमसु तान । मन ते महारु तुम कनि जी हो काया ईहा छि सुजाण रे पूज्य०॥१५१॥ मन ते माहारि तु वस्यो रे जगगुरु अवर न कोय आकधतुरा ठाम ठाम पण भमरा मचकंदि जोय रे पूज्य० ॥ १५२।। एकपखो सनेहडो रे का सरज्यो करतार एकनि मन ते दोहिलु रे जीहो एक मन नहीय लगार रे पूज्य०॥१५३॥ नेहागार माणसा रे झूरी झूरी पंजर होइ नस्नेहा भलाते बापडा जीहो पोसीजे आपणी काय रे पूज्य० ॥१५४|| केहा देउं उलंभडारे नीठर विधाता रे तोह का सरज्यो ति माणसारे लईए वडो अतिघणो मोह रे पूज्य० ॥१५५॥ सरजनहार सरजीयो रे का माणसो देह सरज्यो तो भली सरजीयो लाईका सरज्यो वली नेह रे पूज्य० ॥१५६॥ संदेसि ओलगडी रे होसि हम दयाल अम्रत सम तुम्ह वय(ण)डा रे श्रवणि सुणीय रसाल रे पूज्य० ॥१५७।। तुम्ह मुख चंद्र नीहालवा रे वाछि नयण चकोर थोडि लख्य घणु जाणज्यो जीहो तुमे छो चतुर चकोर रे पूज्य०॥१५८।। अकबर भूप प्रतिबोधीयो रे प्रतिबोधी रे मेवात जगगुरु वाहाला हीरजीरे हवइ आवोनि गुजरात रे पूज्य० ।। १५९॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग-धन्यासी आज लेख लख्यो आज लेख लख्यो त्रंबावती नयरीथि पून्यहर्षि सकलसंघ मन हरख्यो आज लेख लख्यो आज लेख लख्यो ॥१६०॥ नीज नीज मंद्यरथी चली आइ बहुत जनि सो नरख्यो श्रीविजयसेनसूरी गछपतीइं मोहन नयन करी परख्यो आज० ॥१६१॥ लिखत लेख दुत चलयो देई अतीव बहु सीख्यो। सुभसुकन होव तीपंथ चालत देती सुहव आसीष्यो आज० ॥१६२।। अनुक्रमि जाई दियो जगगुरुकु कउत करीसो देख्यो कुरणा रस मन कीयो आवन कु बाची सो सवी सीख्यो ॥ आज० ॥१६३॥ (कळस) इय लखीतलेखो बहुवसेखो सजनजनमनरंजनो सुंदरवर्णो ललीतवर्णो दुर्जनजनमनगंजनो विविध अर्थो अती समर्थो मोकल्यो गुरु हीरनि आनंद दाता जगविख्याता मंगलकर्ण श्रीसंघनि ॥ १६४॥ इतिश्री लेखशृंगार समाप्तः ॥ गणि प्रवरगणि शिरोमणि गणि गजेन्द्र गणि श्रीरीडा शिशुरत्नहर्षगणिनालेखि । श्रीस्तम्भतीर्थे ॥ श्रीरस्तु ।। कल्याणमस्तु ।। परोपकाराय ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगडूसाह - छंद प्रतपरिचय ला. द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावाद हस्तप्रत सूचिक्रमांक ५०६८. आ प्रतनां कुल १४ पत्र छे. एमां सहजसुंदर कृत 'गुणरत्नाकर छंद' कृति लखवामां आवी छे. छेल्ला १४मा पत्रनी पाछली बाजुए त्रीजी लीटीए 'गुणरत्नाकर छंद' पूरो थाय छे. ते पछीनी १६ लीटीमां खूब ज झीणा अक्षरोमां 'जगडूसाह छंद'नी बे नानी (१+५ = ६ कडीनी अने २ कडीनी) कृतिओ लखवामां आवी छे. - सं. कांतिभाई बी. शाह ( अमदावाद ) छंद : पत्रना पानानी लंबाई २४.५ से.मि. छे तथा पहोळाई ११.० से.मि. छे. आ पाना पर बन्ने बाजु २.० से.मि. जेटलो हांसियो छे ; अने उपर-नीचे १.० से.मि. जेटली जगा छोडेली छे. पत्रमां वच्चे कुंड आकृति करी कोरी जगा छोडी छे ने एमां चार अक्षरो पूरेला छे. एक लीटीमां ४४थी मांडी ५४ अक्षरो छे. अक्षरो झीणाने गीच लखाया छे, पण सुवाच्यने मरोडदार छे. 'ख' माटे 'ष' चिहन मळे छे. उदाहरण तरीके 'कोए भूष्यो'. 'देशी पसरिउ' मांना 'दे'मां पडिमात्रानो उपयोग थयो छे. आ कृतिओनी नीचे लेखनसंवत नथी. पण एनी आगली कृति 'गुणरत्नाकर छंद' नी पुष्पिकामां लेखन संवत १६७० अपाई छे. एटले एनी नीचेनी आ कृतिओ पण सं. १६७० मां अथवा ते पछीना नजीकना समयमां लखाई होवानी पूरी संभावना छे. पहेली कृतिना आरंभे भले मींडुं करवामां आव्युं छे. - -X--X- वाचना ( १ ) भद्रेसर कणयग्गिरि नामह, वसई साह जगडू तिणि ठामह, सात यात्र शेत्रुज गिरि कीधी, पुण्य उगारि एणी परि लीधी | १॥ ये लीधी ऊगारिह सोलंऽगोभव कण कोठारह भरे घणउं. असमय जिई दक्खी साह सरक्खी बीज ऊगारिडं मनुष्य तणउं. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरताण - हमीरह राय- रावत्तह दीधरं दानह दीन छलि, नन हूओ न होसि को व्यवहारी जगडू समवड एणि कलि. | १|| ये पावा धड वज्जी दूसम गंजी विनडिय लोकह बहूए परे, सबलह साहा हुंता जे समरत्थह अन्न न दीसई तेह घरे, दुर्बल दीन पार नह लब्भई पापी प्राणह बईठ गलई, न न. । २॥ 69 गढमढ जिण कारी कुल सो तारी भुअणि सुजस भंडार भरई, संघपति सह जाणई दूसम माणइ पूरं लीधउं एणि परिं, कलिकाल जित्तो जगह वदीतो भडीत भग्गो भूअ - बलि, न न. ३ ॥ श्रीमाल न संकई वारो अंकइ दूसम स्यउं जिणइ किद्ध वदो, इंम कहई सधर अछे कोए भूख्यो नयरि नयरि निति पडई सदो, अन्न अघलअ वारी वाहर सारी सुकवि पई पइ एम सलिं. न न. ॥४॥ कलश कवितं पनरोतरो दुकाल काल थइ जव करि ढुक्किउ, मायबाप तिणि वारि अलवि करि छोर मुंकिउ, तिहार भडिउ साह श्रीमाल अन्नदानह जिणइ दिप्पति, परिघल पुण्य जिणे करी, करह ओडाव्या नरपति, कणगिरि गड्ढ करावयु संघ आणिउ शेत्रुंज शिरि, लज्जलू निशि करि लाह्या कंकण घल्ली एणि परि. ५ इति जगडूसाहा छंदः ॥ छ ॥ ( २ ) अठय मूडि सहस्स दिद्ध वीसल वड वीरह, बारह मूडी सहस्स दिद्ध सिधवा हमीरह, गज्जणवई सुरताण सहस मूडा एकवीसह, मालवपति अट्ठार सहस परताप बत्रीसह, शेत्रुंज नई रेवयगिरिं दान - शाल बारोतरइ, जगडूअ साह सोला ताई. पुण्य कीध पनरोतरइ. 1१ ॥ 3 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 सरग थकी संचरिउ, देशि पसरिउ दुकालह, नगर कोट भेलंत वाहरि पुहतु श्रीमालह, अन्नि करुं आकलो धार तो घीनी वाहुँ, कहि तो फेडु ठाय कहि तो जीवतो ज साहु, पांपी ज पडिउ साहा जई मल्यो, जकड बंधि बंध्यो खरो, जगडूअ, मिहलि जीवतो हुं नावउं काल पनरोतरो. । २॥ इति जगडूसाह-कवित्तयुगलं पूर्णतामाप ॥ छ ।। विवरण (१) संवत १३१५मां गुजरात समेत देशनां घणां राज्योमां भारे दुष्काळ पड्यो त्यारे कच्छ-भद्रेश्वरना जगडूशा शेठे अगाउथी अनाज खरीदीने गरीबो माटे कोठारोमां एने संघरी लीधुं. दुष्काळना कपरा समयमां अन्नदान करीने गरीबोनी भूख संतोषी पुण्यनुं जे भाथु संचित कर्यु ए ऐतिहासिक घटना, आ कृतिमां निरूपण थयुं छे.. __ कृति कुल ६ कडीनी छे. अहीं केटलांक शब्दार्थो अने अन्वयार्थो अस्पष्ट रहे छे. आरंभनी कडीमा, जगडूशा भद्रेश्वर-कनकगिरिना निवासी होवानो अने एमणे सात वार शत्रुजय पर्वतनी यात्रा करी पुण्य प्राप्ति कर्यानो उल्लेख छे. ते पछीनी पहेली कडीमां, पिता सोलना आ पुत्रे कोठारोमां अनाज भरावी यथासमये मनुष्यबीज उगारी लीधानो उल्लेख छे. बीजी कडीमां जगडूशाए जुदा जुदा राजाओ, सुलतान, हमीरने पण अनाजनुं दान कर्यानो उल्लेख छे. आ कळियुगमां जगडूशा जेवो कोइ वेपारी थयो नथी के थशे नहीं एम कही कवि जगडूशानी प्रशस्ति करे छे. त्रीजी कडीमां, जगडूशाए गढ अने मढ बंधाव्या, भंडार भराव्या अने ए रीते कुळने तार्यानो उल्लेख करी स्वभुजबळे कळिकाळने जीती लई भगाडी मूक्यानी कविए वात करी छे. चोथी कडीमां, दुष्काळमां नगर-नगरमां 'कोई भूख्यो छे ? 'एम साद पडाववामां आवतो एनो उल्लेख छे. 'इमं कहई सधर' ए पंक्ति खंडमां 'सधर' (श्रीधर) कविनाम होवानुं जणाय छे. आ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडीना केटलाक वाक्यखंडो स्पष्ट थता नथी. - छेल्ली कडी 'कलश'नी छे. एमां संवत १३१५ना दुष्काळनी स्थितिनुं चित्रण छे. ज्यारे आ दुष्काळ काळ बनीने आवी लाग्यो त्यारे माबापोए बाळकोने पण अळगां कर्यां. त्यारे आ श्रीमाणी (जगडूशा)ए करेलुं अन्नदान दीपी ऊठ्यु. अनर्गळ पुण्य प्राप्त करनार आ जगडूशा पासे राजाओए पण अनाज माटे हाथ लंबाव्या. जगडूशाए कनकगिरि गढ कराव्यो अने शत्रुजय पर्वत पर संघ लई गया. आम एमना जीवननी केटलीक ऐतिहासिक घटनाओ उल्लेखी कवि काव्य समाप्त करे छे. ____ जो के कविए छंदनो नामनिर्देश कर्यो नथी, पण आरंभनी कडी बेअक्षरी आर्या छंदमां छे. अमां प्रत्येक चरणनी १६ मात्रा छे अने बब्बे चरणना चरणान्त चतुष्कलना प्रास मळे छे. 'नामह-ठामह', कीधी-लीधी. ते पछीनी कडी १ थी ४ लीलावती छंदमां छे. प्रत्येक कडी चार चरणनी छे. जोके पहेली कडीनी आगळ कविए तो मात्र 'छंदः' एटलो ज निर्देश को छे पण चरणनी ३२ मात्रा अने १०, ८, १४ मात्राना त्रण यतिखंडो सूचवे छे के आ कडीओ लीलावती छंदमां छे. आ कडीओ, गेयतत्त्व अचूक ध्यान खेंचशे. 'कलश कवितं' शीर्षक साथे पळती पांचमी कडी छप्पयमा छे. एनां पहेलां चार चरण रोळानां अने छेल्लां बे चरण उल्लालानां छे. रोळा ११+१३ = २४ मात्रानो अने उल्लाला १५+१३ = २८ मात्रानो बनेलो छंद छे. आ कृति हजी अप्रगट छे. बीजी कृति बे कडीनी छे. एने लेखनकारे 'जगडूसाह कवित्तयुगल' तरीके ओळखावी छे. पहेली कडीमां, जुदा जुदा देशना राजवीने जगडूशाए केटलुं अनाज आपीने मदद करेली एनुं आलेखन छे. (गुजरातना राजा) वीशलदेवने आठ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 हजार मूडा, सिंधना हमीरने बार हजार मूडा, गजनवी सुलतान (दिल्हीना बादशाह ? ) ने एकवीस हजार मूडा, माळवाना राजाने अढार हजार मूडा, ( काशीना राजा) प्रताप (सिंह) ने बत्रीस हजार मूडा अनाज आप्युं. संवत १३१२मां शंत्रुजय अने रेवंतगिरि ( गिरनार ) मां दानशाळाओ शरु करावी. सं. १३१५मां सोलापुत्र जगडूशाए आ रीते पुण्यकर्म कर्यु. बीजी कडीमां, कविए जगडूशा पासे भूखाळवा रुप धरीने आवेला दुष्काळने जगडूशाए पराभूत कर्यो एनुं वर्णन छे. स्वर्गेथी दुष्काळ संचर्यो ने देशमां प्रसरी गयो. नगरकोट भेळीने ते श्रीमाळ (जगडूशा ) पासे मदद अर्थे पहोंच्यो. (फरी फरीने अन्न आपवा छतां एनुं पेट नहीं भरातां) जगडूशा एने कहे छे के 'तने खूब अन्न खवडावी अकळावी नाखुं अने घीनी धार वहेवडावं. कां तो तने मारी नाखुं कां तो जीवतो ज पकडी लडं.' अंते काळ हार्यो अने एने मुश्केटाट बंधनमां बांधी लेवायो. त्यारे ए याचना करवा लाग्यो, 'हे जगडू, मने जीवतो मूक. हुं पनरोतरो (सं. १३१५ नो) दुष्काळ फरी क्यारेय आवीश नहीं, आ कवित्त युगलनी बन्ने कडीओ छप्पयमां छे. बन्ने कडीओ ६-६ - चरणनी छे. प्रत्येक कडीनां पहेलां चार चरण २४ मात्राना रोळामां अने छेल्ला बे चरण २८ मात्राना उल्लालामां छे. आ कृति हजि अप्रगट छे. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तप्रतनी प्रशस्तिमां प्राप्त नगरो के गामो अंगेनी तिहासिक सामग्री : एक नोंध डॉ. कनुभाई शेठ गुजरात प्रदेशनी ए विशेषता छे के अना हस्तप्रत ग्रंथभंडारोमां लाखोनी संख्यामां हस्तप्रतो सचवायेली छे. समयनी अपेक्षाओ ई.स. दशमा-अगियारमा सैकाथी आरंभी वीसमा सैका पर्यंत, प्रारंभमां ताडपत्र पर लखायेली अने पछीथी कागळ पर लखायेली लाखोनी संख्यामां हस्तप्रतो मळी आवे छे. भाषानी दृष्टिले जोईओ तो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन गुजराती-राजस्थानी वगेरे भाषामां आवी हस्तप्रतो रचायेली-लखायेली छे । प्राचीन मध्यकालीन गुजरातनुं आ हस्तप्रतोनुं साहित्य प्रायः जैन मुनिओने हाथे रचायेखें, लखायेलुं के लखावेलु छ । आ संदर्भमां ओम कही शकाय के जैन मुनिओ वर्षाऋतुमां एक स्थळे स्थिरवास करीने अने शेष काळमां विविध स्थळोओ विहार करीने धर्मोपदेश आपता । आ काळ दरम्यान तेमना वडे अनेक कृतिनी रचना करवामां आवी होय के नकल थई होय तेना स्थलनो ते कृतिमां के कृतिना अंतभागमां निर्देश करवामां आव्यो होय छे । आथी आपणने हस्तप्रतोमां - अना अंतभागमां - प्रशस्तिमां भारतभरना विविध नगरो के गामोनो उल्लेख प्राप्त थाय छ। आ उल्लेखमां संवत/साल, पक्ष, तिथि, वार के क्वचित ऋतुनो निर्देश होय छे । ते सिवाय ते नगर के गाम कया प्रदेशमां आव्युं छे तेनो उल्लेख होय छे के क्वचित ते नगर के प्रदेशना शासक (राजा)नो उल्लेख होय छे । आम आ परथी आपणने ते नगर के गामनो ते ते समयना अस्तित्व अंगेनो निर्देश मळे छ । केटलाक नगरो के गाममां के ज्यां खास करीने आवी रचना के नकल थती, जेमके पाटण, स्थभंतीर्थ (खंभात), अमदावाद के जेसलमेर। अटले आवा नगर के गामना छेक प्राचीनकालथी आरंभी आज पर्यंतना निर्देशो आवी प्रशस्तिओमां उल्लेखायेला होय छे । जे ते ते नगरना के गामना सुदीर्घकालीन अस्तित्वने सूचवे छे । वळी केटलाक नगर के गाम ते ते समये जे जे नामे प्रचलित हता तेनी तारीखवार माहिती मळे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1A छे। जेमके कपडवंज, खंभात, वडोदरा अनुक्रमे कर्पटवाणिज्य, स्थभंतीर्थ, बटप्रद तरीके ओळखातां । (अ) आ प्रशस्तिमा संवत/साल-मास-पक्ष-तिथि-वार-नगर अने शासक अंगे उल्लेख मळे छे । जेमके (१) संवत १४९२ वर्षे पोषमासे कृष्णपक्षे १० श्रामद अणहिल पत्तने पातसाह श्री अहम्मद विजय राजये लिखितम् नीशीथ-चूर्णि (२) सं. १५१३ वर्षे कार्तिक सुदि १२ रवौश्रीमद अणहिलपुर पत्तने, श्रीकुतबविजय राजये ... मेघदूताख्यं काव्यम् लिखितम् -मेघदूतकाव्य (३) संवत १५४९ वर्षे कार्तिक वदि १२ दिने मंडप महादुर्गे सुरताण ग्याससाह विजयराजे श्रीपत्तनमध्ये ... लिखितम् - -आनंदसुंदर काव्य (४) संवत १६९९ सहसिमासे वलक्षे पक्षे पूर्णियास्यां तिथौ... श्रीनवानगरे जामश्री लाखाविजयिनि राजये ... लिखितम् तर्कभाषाम् (५) संवत १५८० वर्षे फागुण वदि १० दशम्यां शनिवारे मूलनक्षत्रे श्रीसोजतीनगर्या रायश्री वीरमदेवविजय राज्ये .. लिखितम् -भगवतीसूत्र (६) अथ संवत १६८४ वर्षे ज्येष्ठ मास वदि २ स्थानेश्वरराख्य नगरे कुरुक्षेत्रोपकष्ठे साह सलमी जहांगीर राजये .. लिखितम् . - त्रैलक्यदीपक प्रबंध (७) संवत १६६७ वर्षे जेष्ठ वदि ७ धल्लूस्थाने पतिसाह सुरताण जलालदीन अकबर महाराज्ये ... लिखितम् - उत्तराध्यनसूत्र वृत्ति Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब) केटलाक नगरोना प्राचीन नामोना उल्लेख मळे छे जेमके कपडवंज अंगे (१) संवत १४८० पुष्यार्के कर्पटवाणिज्ये लिखितम् राजप्रनीय सूत्र १. २.. ३. 75 (२) संवत १६७७ वर्षे अश्विन सित ९ सोमे कर्पटवाणि जयनगरे लिखितम् - कल्पसूत्र अवचूरि महेसाणा अंगे (१) संवत १५०९ वर्षे आसो सुदि १० शनौ श्रीमहीशानपुरे लिखिता.... प्रतिष्ठाविधि वडोदरा अंगे संवत १६४९ वर्षे मागसिर वदि ९ दिने रविवारे वटपदनगरे लिखितम् सुरत अंगे संवत १७६६ वर्षे शाके १६२८ प्रवर्तमाने श्रावणमासे कृष्णपक्षे ११. सूर्यपुर मध्ये लीपीचक्रे. प्रतय आराधना खंभात अंगे (१) संवत १६१८ वर्षे वैशाष वदि १४ शुक्रे श्रीस्तभितीर्थ मध्ये लिखितम् प्रश्न व्याकरण स्तबक प्रश्न व्याकरण (२) अधेह श्री स्तंभतीर्थे संवत १४७९ वर्षे परिशिष्टपर्वचरित्रं लिषितम् परिशिष्ट पर्व Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 (क) केटलाक बनावो अंगे उल्लेख संवत १६८७ गूर्जरदेश व महति दु:काले मृतकोस्थिगामे जाते श्रीपत्तने नगरे विशेषशतक नोंध : आ प्रकारनी जैतिहासिक सामग्री नो समावेश करती प्रशस्तिना संग्रहना केटलाक ग्रंथो आ प्रमाणे छे. जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह. संपा. मुनि जिनविजयजी । प्रशस्तिसंग्रह (बे भागमां) संपा. अमृतलाल शाह । प्रशस्तिसंग्रह. संपा. भूजबली शास्त्री । जैनग्रंथप्रशस्तिसंग्रह (भाग १-२) संपा. परमानंद शास्त्री । प्रशस्तिसंग्रह संपा. कस्तुरचंद कासलीवाल । आ उपरांत प्रतिमालेख (पाषाण अने धातु)ना लेखसंग्रहोमां पण आवा प्रकारनी सामग्री प्राप्त थाय ते उल्लेखनीय छ । ar r in so Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्रंक नोंध (१) 'व्यवहार भाष्य'नी एक गाथानी पाठचर्चा जैन विश्व भारती, लाडनूं तरफथी ताजेतरमां (ई.१९९६) प्रकाशित थयेल 'व्यवहार भाष्य'मां एक गाथाना पाठांश विषे नोंध करवी छे. मुद्रित ग्रंथना पृष्ठांक २५० पर गाथा २६३५नो पाठ आ प्रमाणे छ : लक्खणजुत्ता पडिमा पासादीया समत्तऽलंकारा । पल्हायति जध वयणं, तह निज्जर मो वियाणाहि ।। अहीं तृतीय चरणमां वयणं' थी 'वदन-मुख' अपेक्षित छ । एम सहज समजाय छे. ए साथे ज मनमां प्रश्न ऊगे के वदन-विकास संभवे, वदनप्रहलाद कई रीते संभवे ? आनन्दप्रद चीजने जोतां नेत्र विस्फारित थाय, वदन विकस्वर थाय अने चित्त प्रसन्नता/आहलाद अनुभवे - आ योग्य तेम मान्य प्रक्रिया गणाय. । आनो उत्तर साव अणकल्पी रीते जडी आव्यो. आ. हरिभद्रसूरिकृत 'षोडशक प्रकरण'नी श्रीयशोविजयजीकृत टीकामां एक संदर्भमां आ गाथाने उद्धृत करेल छे, अने तेमां तेओए स्वीकारेल पाठ आवो छ : ___'पल्हायइ जह व मणं' ॥ (षोडशक ७/१२, मु. पत्र ३९, ई १९११, सूरत). आ पाठ वांचतां ज मान्य प्रक्रियानो अने तेने अनुरूप पाठांशनो मेळ मळी रहे छे. अहीं भाष्यकार एम कहेवा मागे छे के प्रतिमा जेम (वधु) मनने प्रह्लादित करे, एटले के 'प्रतिमाने नीरखतां मन जेम (वधु) प्रह्लाद अनुभवे', 'तेम (वधु) निर्जरा थती जाण.' स्पष्ट छे के अहीं प्रतिमाने जोतां मों विकसे के हसुं हसुं थतुं होय ए अभिप्रेत नथी, पण मन प्रफुल्लित थाय ए अपेक्षित छे. वात रही पाठनी. एनुं तो एवं छे के लहियाओना मरोड एवा तो खूबीदार होय छे के 'म', 'स' 'य' त्रणे वांची शकाय. वांचनार पासे अर्थसंगति माटेनी पारंपरिक सज्जता जेवी अने जेटली होय, ते रीते ते बेसाडी शके. घणीवार बंधबेसतुं पण लागे. परंतु बधो वखत तेम न पण होय, एम आ दाखला उपरथी समजी शकाय. मजा तो ए छे के 'व मणं' एवो पाठभेद पण संपादिकाए आ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 स्थळे नोंध्यो नथी. तेमनी समक्षनी प्रतिओमां आवा महत्त्वपूर्ण पाठभेदो दर्शावती प्रति नहि होय एम विचारीने समाधान पामवुं रह्यं. * (२) हेमचंद्राचार्यरचित कृष्णगोपीना प्रणयने लगतुं एक मुक्तक प्राकृत भाषाना साहित्यमां जूनी परंपराथी वपराता जे शब्दो तेमना स्वरूपनी के अर्थनी दृष्टिए कोशकारोने मूळे संस्कृतना न लाग्या - 'तद्भव' के 'तत्सम' तरीके तेमनो संतोषकारक खुलासो आपी शकाय तेम न लाग्युं - तेवा शब्दोने तेमणे 'देश्य' के देशी शब्दो का छे । एवा शब्दोना कोश बनाववानी लांबी पूर्वपरंपराने अंते हेमचंद्राचार्यनो 'देशीनाममाला' नामे जाणीतो कोश, आगळनी सामग्रीनो यथायोग्य समावेश करतो अने सुव्यवस्थित होईने, जूना कोशोमांथी तेज एक बच्यो छे । तेनी बीजी विशिष्टता ए छे के अकारादि क्रमे अने शब्दनी लंबाईने आधारे जे शब्दो, तेमना प्राकृत भाषामां आपेला अर्थ साथे, तेमां गाथाबद्ध कर्या छे ते शब्दोने गूंथी लईने हेमचंद्राचार्ये उदाहरणगाथाओ पण रचीने मूकी छे। ए एमनी असामान्य सर्जक कल्पनानां अने साहित्यरचनानी परंपरा परना प्रभुत्वनां निदर्शनो पण छे । आयाससिद्ध होवा छतां अनेक उदाहरणो काव्यत्वना स्पर्श वाळां होवानुं में अन्यत्र बताव्युं छे । अहीं तेवा एक उदाहरण तरफ ध्यान दोवानो हेतु छे । 'देशीनाममाला' ना सातमा वर्गनी त्रीजी गाथामां जे देशी शब्दो आप्या छेते आ प्रमाणे छे : विजयशीलचंद्रसूरि रत्तय 'बंधूक पुष्प'; रग्गय 'कसुंबो, कसुंबी वस्त्र'; रंजण 'घडो'; वअ ' रवैयो'; रंदुअ 'रांढवुं'; रयवली 'बचपण'; रइगेल्ल 'अभिलषित'. आ शब्दो गूंथी लईने हेमचन्द्राचार्ये रचेली उदाहरणगाथा नीचे प्रमाणे छे : रंजण - थणिमरयवलिं ग्गय-वत्थं वहुं खय- हत्थं । रत्तय - उट्ठि रइगेलंतो बज्झिहिसि रंदुएण हरे || Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनो बेचरदास दोशीए करेलो अनुवाद : ‘हे हरि! घडा जेवा स्तनवाळी, बाळपण विनानी अर्थात् कुमारी, कसुंबे रंगेल घाट नामना वस्त्रने पहेरेली, हाथमां रवैयावाळी, बपोरियाना फूल जेवा राता होठवाळी एवी वहुनो अभिलाष करतो तुं रांढवा वडे बंधाई जईश ।' ('देशी शब्द संग्रह', १९७४, पृ. ३४९)। जोई शकाशे के कृष्णनी गोपीओ साथेनी प्रणयचेष्टा निरूपती, 'भागवतपुराण', 'कृष्णकर्णामृत' वगेरेमांजे वैदिक-पौराणिक परंपरा जोवा मळे छे, तेनी प्रेरणा आ गाथानी रचना पाछळ रहेली छे। हेमचंद्राचार्ये 'काव्यानुशासन'मां (२,१६) अद्भुतरसना उदाहरण तरीके जे पद्य आप्युं छे ('कृष्णेनाम्बगतेन रन्तुमधुना') ते यशोदाने कृष्णना विश्वरूप, दर्शन थयुं तेने लगतुं छे, ते संभवतः बिल्वमंगलनी कोई रचनामांथी होय। ते पण तेमने आ साहित्यनी जाणकारी होवानो पुरावो छ । (जुओ 'हरिवेण वाय छे रे हो वनमां', पृ. ८२-८३) । ह भायाणी (३) शब्दप्रयोगो (१) अज्जुका 'गणिकानुं संबोधन' सं. आर्या. मूळ अर्थ 'आदरणीय स्त्री', पछी 'दुर्गा', 'साध्वी'. सं. आर्यिका. आर्या उपरथी साधित । प्रा. अज्जा. संस्कृतमा छे ते ज अर्थो । प्रा. अज्जिआ. 'माता', 'मातामही', 'पितामही'. अज्जयनो अर्थ 'मातामह', 'पितामह' थाय छे. गुजराती आजो 'मातामह', आजी 'मातामही'. 'आदरणीय स्त्री' एवा अर्थ उपरथी, पछीथी 'सासू', '(जैन) साध्वी', गुज. आरजा। प्रा. अज्जुआ. जेम आर्याने लघुतानो, लाडनो वाचक इका प्रत्यय Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लागीने आर्यिका थयुं, प्रा. अज्जिआ, ते ज प्रमाणे सं. उका, प्रा. आ प्रत्यय लागीने अज्जुआ रूप थयु। हेमचंद्राचार्ये तेमना व्याकरणमां (८,१,७७) अज्जू शब्द 'सासु ना अर्थ मां, आर्या उपरथी बनेलो, नोंध्यो छे। संस्कृत नाटकोमां गणिकाने अज्जुए एवं संबोधन कराय छे। मूळ 'आदराणीय माता' एवा अर्थवाळु गणिकानी चेटी वडे करातुं ए संबोधन छे. प्रा. अज्जुआनुं संस्कृत रूप अज्जुका थाय । जाणीता प्रहसन 'भगवदज्जुकीय'मां शीर्षकमां ते मळे छे ('भगवत् अने अज्जुकाने लगतुं'). परंतु आ सिवाय संस्कृतमां अज्जुका शब्दनो भाग्ये ज प्रयोग थयो छ । पिशेले नोंध्यु छे (परिच्छेद १०५) के 'मृच्छकटिक'मां शौरसेनी अज्जुआ, मागधी अय्युआ गणिकाना अर्थमां वपरायो छे, तथा 'शाकुंतल'मां मागधी अय्युआ 'माता'ना अर्थमां वपरायो होवानुं टीकाकार शंकरे चंद्रशेखरने अनुसरीने जणाव्युं छे : अज्जुका-शब्दो मातरि देशीयः । हेमचंद्र अने पिशेले अज्जनुं अज्जु एवं रूप अकारनो उकार थयो ए रीते समजाव्युं छे, परंतु ए खुलासो बराबर नथी। उ एवो प्रत्यय ज स्वीकारवो जोईए। अन्य प्राकृत शब्दोमां ते तद्धित प्रत्यय तरीके ते मळे ज छ । मध्यकाळथी व्यक्तिनामोमां, गुजरात-राजस्थान माळवानां स्त्रीनामोमां तो 'चांपू', 'जयतू', 'मांकू', 'मानू' वगेरे सेंकडो नामोमां ते मळे छे (जुओ गिरिश त्रिवेदी 'मध्यकालीन गुजराती व्यक्तिनामोनुं अध्ययन', १९९६, पृ. ११८,१८७,२००-२०३ वगेरे)। पंजाबीमा हाल पण उकारांत स्त्रीनामो प्रचलित छे. गुजरातीमां पण अंजवाळी-अंजु, चंपा-चंपु, कमळा-कमु वगेरे सुप्रचलित छे (जुओ ऊर्मि देसाई, 'गुजराती भाषाना अंगसाधक प्रत्ययो', बीजी आवृत्ति, १९९४, पृ. १५८-१७०) । ह. भायाणी (२) ओलिंभा, वामलूर 'ऊधई , ऊधईनो राफडो' .१. 'बृहद्गुजराती कोश'मां ओळंभोना जे विविध अर्थ आप्या Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81 छे तेमां एक छे, 'गूमडुं थयुं होय त्यां रगना मूळमां थती गांठ.' 'सार्थ 'जोडणीकोश'मां ए आप्यो नथी. गोहिलवाडमां ए अर्थमां ओळंभो शब्द प्रचलित छे। कोशे उच्चारणमां तेनो पहेलो ओ विवृत आप्यो छे (ओ), परंतु गोहिलवाडीमां ते संवृत छे । २. हेमचंद्रनी 'देशीनाममाला' मां ओलिंभा शब्द 'ऊधई' ना अर्थमां आप्यो छे । प्राकृत कोशमां तेनो प्रयोग वाक्पतिराजना प्राकृत महाकाव्य 'गउडवह' मां होवानो निर्देश छे । 'गउडवह'नी ३४१मी गाथामां एक कलेवरना वर्णनमां कह्युं छे के पहेलां ए व्यक्ति जीवंत हती त्यारे तेना मुख उपर जे कस्तूरी अने चंदननी पत्रलेखा के पत्रभंगी शोभती हती, तेनुं स्थान अत्यारे ऊईए करेली माटीनी वांकीचूंकी भातोए लीधुं छे । 'गउडवह'ना संपादक न. ग. सुरुए। टीकाकारे आपेल ओलिंभानो उपदेहिका एवो अर्थ (उपदेहिका एटले 'ऊधई') न समज्या होवाथी, 'लेप' एवो अर्थ कर्यो छे । 'अभिधानचितामणि' मां हेमचंद्रे ऊधईना अर्थमां उपदेहिका अने वम्री आप्या छे । 'ऋग्वेद' मां वम्र, वम्रक 'कीडी' मळे छे. वम्रीकूट एटले परंपरागत संस्कृत कोशोमा 'राफडो' (जेमके 'अभिधानचिंतामणि', ९७१) । ३. हवे गुजराती ओळंभोनो उपर जे अर्थ नोंध्यो छे, ते जोतां प्राकृत ओलिभानो अर्थ 'ऊधईनो राफडो' एवो पण थतो होवो जोईए. ऊपसेली गांठने नाना फडा साथै सरखावी शकाय, अने सपाट स्थळे कशुंक ऊपसी आव्यं तेनी समानता पण चींधी शकाय । वम्री 'ऊधई' उपरथी साधित वल्मीक 'राफडो' आना समर्थनमां आपी शकाय । ४. प्राकृतमां राफडा माटे रप्फ तेम ज वामलूर एवा बीजा पण बे शब्द छे । 'पाइअलच्छीनाममाला' मां रफ्फा, वमीअ नो अर्थ 'हाथीपगानो रोग' एवो पण आप्यो छे, जे ए रोगमां पग सूझीने राफडा जेवो जाडो थाय छे ते हकीकत सूचवे छे। शीलांकाचार्यकृत 'चाउपन्नमहापुरिसचरिय' मां ( रचना वर्ष ८६९) सनत्कुमारने थयेला रोगोमां चलणे रप्फओ 'पगमां हाथीपगुं एवो निर्देश छे. (पृ. १४४, प. १२) । . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 वामलूरना पर्यायो तरीके आप्या छे (४७३) । 'देशीनाममाला'मां वम्ह रप्फ (७,३७) अने रप्फो-वम्मीअ (७,२)। प्राकृत महाकाव्य 'गउडवह मां बे वार वामलूरनो प्रयोग मळे छे। (पद्यांक ५२९,५७३). वामलूर अमरकोशमां 'राफडो' एवा अर्थमां आपेलो छ। हेमचंद्राचार्यना कोशमां 'राफडो' माटे वधारेमां वनीकूट, कृमिपर्वत अने शक्रशिरः आप्या छे । तेनो पर्याय शक्रुमूर्धन् पण संस्कृत कोशोमां नोंधायो छ। राफडाने इंद्रनुं मस्तक कहेवानी लोककल्पना चोमासामां नीकळती राती 'गोकळगाय'ने इन्दगोप नाम आप्यु छे एमां पण प्रतीत थाय छ। हेमचंद्रे तेने माटे अग्निरजः (शब्दार्थ 'अग्निकणी') पण आपेल छ। 'देशीनाममाला'मां ऊर शब्द 'ग्राम, संघ'ना अर्थमां नोंध्यो छे. (१,१४३) (= आ मूळे तो द्राविडी शब्द छे)। वम्मलूर उपरथी वामलूर थयो होय, अने वम्मलूर एटले वम्मल+ऊर = 'कीडीवाळो ढग'। सरखावो वनीकूट। ह. भायाणी (३) चामरी 'घोडो', कुटर 'घोडो' परंपरागत संस्कृत कोशोमां चामरी शब्द 'घोडो' ए अर्थमां आपेलो छे। जेम के 'अभिधान-चिन्तामणि'नी पूर्ति रूप 'शेषनाममाला' मां (१२३३)। जेने चामर 'केशवाळी, याळ' होय छे, ते चामरी। मोनिअर विलियम्से नोंध्यु छे के तेने बदले कोईक कोशमां मळतुं वामरी एवं रूप भ्रष्ट पाठवें परिणाम छे - च ने बदले भूलथी व लखायो के वंचायो छ । हवे हेमचन्द्राचार्यकृत 'देशीनाममाला'मां वामरी शब्द 'सिंह' एवा अर्थमां आप्यो छे (७,५४)। ए पण चामरी ज जोईए। सिंह पण केशवाळी परथी चामरी कहेवायो । प्राकृत हस्तप्रतोमां च अने व एकबीजाने बदले लखवानी भूल सामान्य छ। देश्य शब्दोमां थयेलो आवो विनिमय में Sudies intyalrakrit मां नोंध्यो छ (पृ. २०-२४)। अहीं ए पण नोंधीए के शेष भट्टारके पूर्ति रूपे आपेला अश्ववाचक · शब्दोमां एक कुटर पण छे । आ पाछळथी संस्कृतमा प्रवेशेला द्राविडी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दोमांनो एक छे। तमिळ कुडीरै एटले 'घोडो'. बीजी द्राविडी भाषाओमां पण एने मळतां शब्दरूप छ। ह. भायाणी (४) मुग्गड, मोग्गड 'अपुत्र विधवानी जप्त कराती मालमिलकत' चौलुक्य-काळ मां कुमारपालना शासन पहेला एवो धारो हतो के जे स्त्री अपुत्र होय अने विधवा बने तेनुं धन-मालमिलकत–तरत ज राज्य तरफथी जप्त करी लेवातुं । आ अन्यायभरी प्रथा कुमारपाले बंध करी तेनो वृत्तांत कुमारपालनां चरित्रोमां मळे छे। एवी मिलकतने माटे मोग्गड, मुग्गड एवों देश्य शब्द हतो. जप्ती वेळा (तेम ज रंडापाने लीधे) ते विधवा रडारोळ करती तेथी संस्कृतमां ते 'रुदती-वित्त' अने 'मृत-स्व' एम पण कहेवातुं । अहीं ए देश्य शब्दना केटलाक प्रयोगो साहित्यमांथी नोंध्या छे । १. लक्ष्मणसेन-गणि-कृत 'सुपासनाहचरिय' (संपा. हरगोविंददास शेठ, १९१८-१९): भणइ सचिवो-वि बंधव निग्गहमत्थि त्ति मोग्गड-पविटुं । किंतु सदोसं नहु वसइ को-वि कयावि तम्मि ॥ (गाथा ४०८) . संपादके मोग्गड-पविटुं नो अर्थ संदर्भने ध्यानमा राखीने अटकळे 'व्यंतर पेठेलुं (घर)' एवो खोटी रीते को छ । 'मोगडरूपे घर राज्यने कबजे होवाथी तेमां कोई कदी वसतुं नथी' एवो अर्थ छे. पोताना कोश 'पाइअसद्दमहण्णवो'मां पण शेठे मोग्गड = 'व्यंतरविशेष' एवो खोटो अर्थ 'सुपासनाहचरिय'ना उपर्युक्त प्रयोगने आधारे आप्यो छे. ।। १. 'पाइअसद्दमहण्णवो'मां मुग्गड/मोग्गड/मुग्घड 'मोगल, म्लेच्छ जातिविशेष' एवो जे अर्थ 'सिद्धहेम' ८,४,४०९ नीचे आपेल दृष्टांतमां आवता मुग्गड शब्दने आधारे आप्यो छे ('ते मुग्गडा हराविआ') ते पण गेरसमजनुं परिणाम छे। त्यां मुग्गडा हराविआ एटले भोजन माटे गरास रूपे राजाना सामंतोने-आश्रितोने जे मळ्युं 'हतुं (मुग्गडा-'मग', तेना लाक्षणिक अर्थमा) ते. युद्धमां तेमना देखतां ज स्वामीनो पराजय थयो तेथी ते एळे गयं एवं तात्पर्य छे. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 २. 'कविदर्पण' नामक प्राकृत- अपभ्रंश छंदोविषयक ग्रंथमां (संपादक, ह.दा. वेलणकर, १९६२) बे वार मुग्गड शब्दनो प्रयोग थयो छे. त्यां पण संपादके साचो अर्थ न समजायो होवाथी भळतो ज अर्थ कर्यो छे । कविदर्पणकारे कुमारपालनी प्रशंसा अनेक स्थळे पोताना ग्रंथमां करी छे, अने हेमचंद्रमांथी उदाहरणो आप्यां छे तेथी समय १२मी शताब्दी पछीनो मानी शकाय । दोहा छंदनुं, छंदना नामनो पण श्लेषथी समावेश करतुं दृष्टांत नीचे प्रमाणे छे ('कविदर्पण', र,१५.१, पृ. २३) : जि नर निरग्गल गलगलह मुग्गल-जंगलु खंति । ते प्राणिहि दोहय अहह बहु- दुह - द्रहि बुडुंति ॥ पाठ: चोथा चरणमां इहि पाठ भ्रष्ट छे, दहि जोईए। बीजा चरणमां मुग्गलने बदले मुग्गड जोईए । मुग्गड - जंगलु अने बहु- दुह - द्रहि एम सभास छे । पाठांतर मुग्गलु पण अपपाठ छे । अर्थ छे : 'जे लोको गळगळ करतां मोगड-रूपी मांस खाय छे ते प्राणि-द्रोह करनारा, अरेरे! भारे दुःखना धरामां डूबे छे ।' संपादकने मुग्गलनो अर्थ बेठो नथी. टीकाकारे पण अटकळे ज मुग्गल 'मूर्खा' एवो अर्थ कर्यो छे । में सूचवेल अर्थनुं समर्थन 'कविदर्पण 'मां २ - ३७ - १ मां (पृ. ४७) द्विभंगी छंदनुं कुमारपालनी धार्मिकनैतिक कार्योनी प्रशस्तिरूप जे दृष्टांत आप्युं छे तेमां मळता मुग्गदु उज्झिउ (मुग्गडु एवो पाठ जोईए), संस्कृत छाया मृत- स्वमुज्झितम् ए प्रयोगथी थाय छे। ए दृष्टांत (पाठनी थोडीक अशुद्धि सुधारीने) नीचे आपुं छं : " , किणि अवरिहिँ बुज्झिउ, मुग्गडु उज्झिउ, वारिउ जूउ - वि वेवरिउ ( ? )। कय-धम्मर्द्धसहँ, मइरा - मंसहँ, नाउँ - वि मूलह निट्ठविउ || मरण - ब्भयभीयहँ, सव्वहँ जीयहँ, वज्जाविउ अभय- प्पडहु । रे रायों रहसिहि, सहँ कुमर सिंहिँ, तुडी चडंत किन सडि पडहु || 'बीजा कोणे समजीने मृत - स्वनो त्याग कर्यो, द्यूत नो निषेध कर्यो, व्यभिचारने (?) निवार्यो, धर्मलोपक मदिरा अने मांसनुं नाम पण मूळमांथी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नष्ट कर्यु, मरणथी भयभीत सर्व प्राणीओने माटे अभयनो पडो वजडाव्यो ( = अमारि - घोषणा करी ) ? अरे राजवीओ, ए कुमारपाल सिंहनी साथे अविचारीपणे स्पर्धा करवा जतां तमे केम सडीने नीचे पडता नथी ?" ३. देवप्रभसूरिकृत 'कुमारपालदेव रास' (१५मी शताब्दी) मां मोगड मंकी जेण हिव । (पद्यांक ७०) ए पंक्तिमां पण कुमारपाले मोगड मूकी दीधी होवानो निर्देश छे । 1. 85 • You say (५) बालग्गकवोदपालिआ, बालग्गपोतिआ 1. In Sudraka's Mrcchakatika, at 1, 50-51 śakāra says: तथा भणेशि जधा हगे अत्तण- के लिआए पाशाद-बालग्गकवोदवालिआह उवविष्टो शुणामि ॥ कवोदवालिआ of my palace can hear it' * it in such a manner that I, sitting in the ह. भायाणी The commentator Pithvidhara explains: बालाग्र-लक्षितायां कपोतपालिकायां । विटङ्को बालाग्रं मत्तवारणम् । कपोतपालिका उपरिगृहश्रेणीति दक्षिणापथे लोकोक्तिरियम् इति प्राचीन टीका । विटङ्क means 'dove-cot' 1. Regarding its location, in one view it was near the palace or above the balcony. According to the authority cited by Pṛthvidhara, in the south it used to be on the balagra i.c. the mattavāraṇa2. mattavāraṇa or 'Mattavāraṇi' a room on the top of the entrance-gate, portico' etc. It is an architectural term. Some prominent houses, temples, theaters used have a mattavarana. According to this interpretation Śākāra was to sit on the dove-cot that was on the room over the बालग्ग In the Paiasaddamahanṇavo, the editor, misreading the Desināmamala gloss कपोतपालिका on विडंक कपोलपालिका has given 'decorative lines on the cheeks' as its meaning! as M. R.. Kale has misunderstood mattavarana as the figure of an elephant. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ balcony (or portico of his palace.) In Jain canonical text occurs a word variously spelt (on the basis of various manuscripts of the texts) as बालग्गपोइआ, वालगपोइआ, वालग्गपोतिका, वालग्गपोत्तिका. Its occurences are noted in the Desisabdakosa from the Urtaradhyana-cūrṇi, Urtaradhyayana comentary of Śantyācaryā, Āvaśyaka-cūrṇi and Suryaprajñapti commentary. Three different meanings are given : (१) शकुनी - गृह, (२) वलभी, अट्टालिका, (३) आकाश-तडाग - मध्यस्थितं क्रीडास्थानं लघु-प्रासादम्. It can be बालग्गपोइआ / पोतिका easily seen that the first two of these meanings of are the same as that of the बालग्ग - कवोदिआ occurring in the Mṛcchakatika. The third meaning is based on the second constituent बालग्ग पोत्तिका, viz. पोतिका 'asmall boat. Hence of the compound the interpretation a small pleasure house in the midst of a lake possibly anthetop (अग्र) of a boat under the opan sky - (आकाश). ' Looking to the context of the passage cited from the पोइआ / पोतिका of the Jain texts is a बालाग्र कपोतिका / बालग्गपोतिका Mṛcchakatika its seems that the 86 result of some textual confusion the word बालग्गकवोतिआ bing unfamiliar became comupted as and the interpreters were forced to accomodate the known meaning of पोत. बालग्ग / वालुग्ग = मत्तवारण, वलभी, of whatever origin, seems to be reliable. It must have been a familiar structure about the fourth-fifth cartury. (६) हेलि, प्रत्युषाण्ड 'सूर्य' १. 'अभिधानचिन्तामणि' मां सूर्यवाचक जे ७२ शब्दो आपेला छे (९५ - ९८) तेमांनो एक हेलि शब्द (९६) मूळे ग्रीक भाषामांथी, ग्रीक Reference works: मृच्छकटिक पाइ असहमहण्णवो देशीशब्दकोश. दुलहराज. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिषना भारतीय ज्योतिष पर पडेला प्रभाव द्वारा आपणे त्यां आवेलो छे. वराहमिहिरनी 'बृहत्संहिता'मां ते वपरायो छे। ग्रीक शब्द हेलिओस (helics) छे. तेमां ओस ए कर्ताविभक्तिनो प्रत्यय छ । शुंगकाळमां जे ग्रीक राजदूत हेलिओदोरोसे विदिशा (बेसनगर) पासे गरुडध्वज प्रतिष्ठित करेलो, तेना नाममां पण आ हेलि शब्द छ । 'श्राद्धप्रतिक्रमण-सूत्र' उपरनी रत्नशेखर-सूरिकृत अर्थदीपिका-वृत्ति (१४४०)मां हेलि शब्दनो प्रयोग थयो छ : यादृग् महासती प्रति चिन्तितमचिरेण तादृशमवापि । ग्रहिलो धूलि हेलि परिखिवइ भरेइ पुण अप्पं ।। (पृ.९८ख,पद्यांक ६३) 'तेणे महासती प्रत्ये जेवू (अनिष्ट कार्य) विचार्यु, तेवू ज ते पोते पाम्यो । घेलो सूर्य प्रत्ये धूळ उडाडे तेथी पोते ज धूळथी भराई जाय ।' ग्रीकमांथी आवेल केन्द्र (अंग्रेजी actre), सुरङ्गा (अंग्रेजी syring:) वगेरे शब्दोमां आ हेखिनो समावेश थाय छे ।। २. ते ज ते सूर्यवाचक मिहिर शब्द (जे वराहमिहिरना नाममां . पण छे) क्षत्रपकाळनी शक-भाषामांथी सूर्यपूजा साथे आवेल छे (मिथ्र > मिथिर > मिहिर), अने सूर्यदेवना पुजारी मग ब्राह्मणोनुं नाम पण. (मूळ प्राचीन फारसी माग, तेना परथी ग्रीक मागोस mgr द्वारा अंग्रेजी शब्द मेजिक meic आव्यो छे)। ३. हेमचन्द्राचार्ये नोंधेल सूर्यना पर्यायोनी शेष भट्टारके करेली पूर्तिमांनो (९६ नीचे) एक रसप्रद छ : प्रत्यूषाण्डम् ‘वहेली उषानुं ईंटुं'। कोई कविए सूर्य माटे वापरेला रूपक परथी ए नोंध्यो लागे छ । (७) गुंड् (धूळथी) खरडवू' पासम. मां गुंडण, गुंडिअ शब्दना प्रयोग जैन आगमसाहित्य 'बृहत्कल्पभाष्य' मांथी नोंध्या छे. बोलेए (Bolléc) 'पिंडनियुक्ति', 'ओघनियुक्ति', 'ओ.भाष्य' माथी गुंडिय (रेणुगुंडिय), गुडिज्जाना प्रयोग आप्या छ। पछीथी Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत साहित्यमां पण गुंडण वगेरेनो प्रयोग मळे छे. आथी हेमचंद्राचार्ये गुंठ्ने सं, उद्धृलय्ना आदेश तरीके जे आप्यो छे (सिहे. ८, ४, २९, देना. २, ९२नी वृत्ति) ते तेमना आधारभूत देशीकोशोमांना अपपाठने कारणे होवानुं जणाय छे। गुंड् ए ज साचुं रूप छ। पासम. मां गुंठित धूसरित, आच्छादित आपेल छे, ते पण खरेखर तो गुंडित होवू जोईए । त्यां आपेल स्थाननिर्देश 'दे. १,८५' एमां कशोक प्रमाद जणाय छे । ह. भायाणी (४) बे परंपरानो एक समान पौराणिक कथाघटक प्रजापति ब्रह्मा पोतानी ज पुत्री, जे मृगली बनीने नाठी हती तेनी पाछळ मृगर्नु रूप लईने पड्यानी अने शिवे बाणप्रहारे ए मृगनो शिरच्छेद कर्यानी पुराणकथा वैदिक परंपरामां जाणीती छे। आकाशमांना मृगशीर्ष नक्षत्र अने तेनी निकटमा रहेला व्याधना तारागुच्छ साथे तेने पछीथी जोडी दीधेली छे । पुष्पदन्तकृत 'शिवमहिम्नःस्तोत्र' (ईसवी दसमी शताब्दी लगभग)ना २२मा पद्यमां तेनो निर्देश करेलो छ । प्रजानाथं नाथ प्रसभमधिकं स्वां दुहितरं , गतं रोहिद्भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा । धनुष्पाणेर्यातं दिवमापि सपत्राकृतममुं त्रसंतं तेऽद्यापि त्यजति न मृग-व्याध-रभसः ॥ भगवान महावीर १८मा पूर्वभवमां त्रिपृष्ठ वासुदेव हता। तेना पिता नाम प्रजापति अने मातानुं नाम मृगावती। मृगावती प्रजापतिनी पुत्री हती, ते छतां ते राजा पोतानी पुत्रीने ज परण्यो। (हेमचंद्राचार्यकृत 'त्रिषष्टिशला-कापुरुषचरित्र', सर्ग १०, सार्ग १, पद्य) ए घटना, तथा 'प्रजापति' अने 'मृगावती' ए नामो परथी शी. भा. वैदिक पुराणकथा साथे आनो संबंध होवानुं स्पष्टपणे सूचवाय ह. भायाणी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Desis Employed in Padma Vijaya's Samarāditya-Kevali-Ras - Muni Rajhans Vijay Samaraicca-Kahā written by Haribhadrasüniśvara (8th century) is a celebrated work of tales that has attaracted many scholars to work upon it. (Its Gujarati translation was done by Hemasāgaraūri in 1966) Pradyumnasūri of the 14th century, Digambara Brahma Jinadāsa (1520 v.s.), Padmasāgaraji of the 1650 v.s., and Ksamā Kalyaāņaji of the 1839 v.s. are some of the writers to have worked upon the Samaraicca Kahā. In this tradition Padmavijayaji Mahāraja of the 2000 v.s. has written Samarāditya Kevali Rās. He was a disciple of Uttamavijayaji in the lineage of Hiravijayasūnśvaraji, who is said to have enlightened the Mogul Emperor Akabara. Padmavijayaji has composed about fifty-five thousand verses out of which 86 have been so far published. Padmavijayaji has written a number of works in Gujarati, out of which Samarāditya Kevali Rās is significant. The author commenced writing in 1839 v.$. on the third day of the black fortnight of the Asvin month and completed in 1842 v.s. in Vasantapañcami. The Rās has been edited and published in 1842 v.s. on the basis of a manuscript in the L. D. Institute of Indology. Samarāditya portrays nine births (of a mortal) in nine divisions. There are in all 199.Dhāl (a mode of singing) in which Rās is composed. The original Samaraicca Kaha being in Prakrit was out of reach for a majority of the people. So the author recast it into Gujarati in order to make it accessible to a wider section of the public. He added a versified musical form also to it. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ In his composition he employed the Desi - a folksong mode of singing. The mode of singing being familiar to the people will ring in their ears and only words would have to be substituted. It may be noted that, on account of this feasibility in the Jaina literature of those times, a vast body of literature of this type has proliferated. When we take into consideration the fact that this work has been written by a person who has relinquished the world since childhood and yet possessed a deep knowledge of the Desis and folksongs and even of classical music, we are astonished. ' As stated above, the poet of this Ras has utilised in all 199 Dhal, a mode of singing. The poet has not repeated a single desi excepting two or three Dhals. viz. (i) (ii) ā chhe, läl, ekaviśāni (iii) copaini desi employed twice 11 " 11 thrice. Some of these desis consist of the Vedic, folk-songs and Jaina desis. Language wise there are Gujarati, Rajasthani, Vraj and other Hindi languages desis. even "T Since fifteenth century, Rās form has been quite popular in old Gujarati literature. The Rās form used to be cast into a Dhal. At the beginning of such a Dhal, there would be an indication as to the mode of singing according to the prevalent desi. Though composed in the same metre of matrāmela, it could be sung in different desis. At times metre and classical rag also would be indicated. Let us illustrate : copai truṭak' dhamal godi 11 (copai metre) (troṭaka metre) (räg) (rāg) Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ bangālo (rāg) māru (rāg) rāmagiri (rāg) adhiyāni (deši) ekviśāni (desi) kadakhāni (desi) candrāulāni (desi of dhruvākhyāna) candaliyāni (desi) jogisar celāni (desi) zunmakhadāni (desi) dhaņara dholāni (desi) narāyaṇani (desi) pārdhiyani (desi) fatemalāni (desi) batauni (deši) bhananini (desi) mākhinā gitani (deśi) lalanāni (desi) lälanani (desi) māruņini (deši) sürati mahināni (desi) hamcadini (desi) . hāndāni (deši) khambhāti (desi) During the five hundred years from fifteenth to ninteenth century, there might have been thousands of such songs in vogue. An Jaina poets have utilized those popular songs' tarja in their compositions by noting the first line or a refrain of those popular songs. In this way we are enabled to have a glimpse the richness of the songs. Sometime a desi used to be named after a metre or a work. In this way the lines or refrains which have been preserved are noteworthy even from the point of view of poetry. As noted above, these lines include the languages of Rajasthani Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Punjab and Vraj. These lines may alos serve as recognition-tags, as in the following: ai pritamśun ekwar, saluņi bolo ho' L aj anand thayo, premanān vādal varsyān, dahādo sohilo' avo hari lasariyāvālā ' Odhav mādhavane kahejo' 'kahan avoji ora re, kahun ek vātaldi ' These lines preserve the rare remnants of the folksongs of those days and hence very valuable. These desis are significant from the historical point of view also. Some of the folksongs, garbā, rās can be traced to these lines and accordingly we can get an idea about their age. If a tradition of singing these desis is maintained, then it should be recorded and studied, as their essence lies in its being lyrical. Similar is the case with its classical rag which was mentioned at times. Deśis also used to be cast in classical rag. To cite a few instances pāsaji ho aho mere lalană, division 5 Dhal 2 This is sung in Dhamāla rāg also. be karjodi tām re bhadra vinve, division 5 Dhal 9 This desi is also sung in gauḍi rāg. One more thing to be noted about this rag or desi is that they are not moulded into any rag or desi without any rhyme or reason. Propriety of the occassion is always kept in view. As we know, Śikhariņi and vasantatilaka are appropriate for devotional compositions, or mandäkräntä is fit for the message-theme, or upajāti or ārya is fit to be the vehicle for descriptive theme or vasantatilaka is suitable for love-in-separation. The same view is kept in the classical music also. If there is a description of battle. kadakhani desi is suitable as in the fifth division. 19th Dhal. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ So these desis are to be preserved at any cost and would be academic crime if they are substituted with some modern cheap filmi song-lines (as is being done sometime). So the importance of these desis can hardly be over-stressed. The writer has profited from the following earlier writing ›n Deśis : Jain Gurjara Kavio. M. D. Deshai. Revised ed. by Jayant Kothari. Vol. 8, 1997. Prachin Gujarati Chando. R. V. Pathak. 1948. Bṛhat Pingal. R. V. Pathak. 1955. Gujarati Sahity-no Itihas. Vol. 2. Deśio-ni Suci. Niranjana Vora. (Translated from Gujarati by Dr. Vijaya Pandya) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 2. 3. Notes on a few words from Bollée's Glossary to पिंडनिज्जुत्ति and ओहनिज्जुत्ति इट्टग PN 461, 466, 472 ( इट्टागा). Commentary: af. It means a sweet prepared from macaroni. H. सेवई (सेवकिका is Sanskritization of सेवई), Guj. शेव, सेव 'macaroni' ; Guj. सेवैयो 'a sweet-ball of सेव '. PSM. Ds. give the correct meaning. This has nothing to do with 'brick', CDIAL 1600 referred to by Bollée. H.C. Bhayani body of a cart', On. 478; OBh. 253 Commentary : गन्त्र्याः संबन्धी. There seems to be difference of opinion about the meaning. (1) A big vessel used as cover over cooked food; a lid. (2) Some part (e.g. body) of a cart. (DS.) (PSM. wrongly गाडी). In Haribhadra's 'Dhurtākhyāna' occurs 13: फालाविआ य रण्णा पुट्टे दिट्ठो अ अयगरो विउलो । सगडस्स ईदरो विव खोडी विव महिअले पडिओ ॥ (२, १९) 'The king got (the crane) cut open. He saw a huge boa in its belly, which fell on the ground like the body of a cart or a big, heavy log of wood'. इड्डर and ईदर are scribal variants of the same word. ('Dhurtakhyāna' ed. by Jinavijaya Muni. SJG. No. 19, 1994.). उक्केर. In मूसग - रय -उक्र. Sk. उत्किरति ' dugs out'. उत्केरयति do. (CDIAL 1723). Noun उत्केर, Pk. उक्केर. So मूसग - रय उक्केर means theap of - earth dug out by mice. Guj. 3 heap of earth dug out Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5. by white-ants, rats etc.'). Hence it is unnecessary to derive Pk. उक्केर from Sk. उत्कर influenced by उत्केरयति (CDIAL 1710). ओभट्ठ. In अणोभट्ठ (ON 148) = अप्रार्थित (Com.). ओभासिय ON 615 = प्रार्थित (Com.). PSM. ओभास् याच् (hence ओभासिय, ओभासण ), ओहास् (ओहासिय, ओहासण). DS. ओभट्ठ-प्रार्थित. DN 1 153 ओहठ्ठ हास, Pi. $ 155, 564 = * अपहस्त, अपहसित is different. Probaby the forms should have been आभट्ठ, आभासिय etc. Compare आभट्ठ, आभास् in Vasudevahimdi :majjhimakhamda' (word index). ओमंथिय. ON 390. Commentary अधोमुखी. In 'Brhatkalpabhāsya' also अवाङ्मुखीकृत (Com.). In view of ओमत्थ etc., the source word is most probably * अवमस्त । अवमस्तित. Compare अवमूर्ध (CDIAL 804), Pk. अवहत्थिय (from अपहस्तित). ओमंथिय is the result of nasalization due to म् and by reinterpretation was connected with मन्थ् . करडुय-भत्त. PN 464 (निशीथभाष्य, ४४४२). Commentary : मृतक-भोजनं मासिकादि. ( मासिकादि. It means 'the ceremonial feast given as a part of the Śrāddha performed a month, six months, a year etc. after the death of a person'). Guj. मासीसो, मासियो Sraddha performed after a month'. DS. has noted करड (= श्राद्धविशेष) (निशीथ-भाष्य, ३४८३); करडयभत्त (= मृतभोज, श्राद्धविशेष) (आवश्यक-चूर्णि , p.335); करडय-भत्त (=मृतभोज), (PN 464); करेडुय-भत्त (=मृतभोज, वणिय-कुले मयकिच्चं ) (निचू. ३, पृ. ४२८). मृतभोज would mean primarily 'ceremonial feast given ten days or so after the death of a person.' 6. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7. Now the word and its derivatives are known from Prakrit literature and from NIA languages. In the 'ākhyāṇaka-mani-kośa-vṛtti' we get in the sense of मृतभोज : तो भणइ देवदत्ता - 'वेणिय परंपरागया एसा किं अम्मो किज्जिसइ रिद्धि कारट्टए तुज्झ ?' ( > 96 'Thereupon says Devadatta, 'This our wealth, O mother, which has come to us through a tradition of many generations is it to be used just for your funeral ritual feast ?' In the index of Deśya words R is duly glossed as and reference is given in Hindi and Gujarati words (regarding which see further below.) In the list of short-lived pleasures given in the 'Varnakasamuccaya' (mostly in Old Gujarati) we find the the share of the posthumous ritual - expression feast') (p. 127, 1. 22). Mod. Guj कारटुं (dialectally कायटुं ), H. करट 'Srāddha performed on the eleventh day' derive from the earlier If we assume as OIA. form corresponding to Pk. करड then its Vrddhi derivative कारट would develop as कारट्ट. करडुय, करेडुय can be explained as scribal misreadings. (Akhyāṇakamanikośa-vṛtti ed. Muni Punyavijaya, 1962. Deśi Śabdakośa ed. I - Muni Dulaharaja, 1988. Varṇaka-samuccaya Part-I, ed. B. J. Sandesara, 1956. Gujarati Bhāṣā-no Laghu Vyutpatti-kośa by H. C. Bhayani, 1994, p. 218.) 5. PN. 217, 291. Although derived from Sk.a it is not the result of the change of 7 to 3 similar to the Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8. 9. कोंटलय. OBh 221. PSM and DK have noted कुंटल, कोंटल / कोंटलय, कुंटलविंटल and कोंटलवेंटल with the sense मन्त्रतन्त्र का प्रयोग, जादू-टोना. Haribhadra has rendered it as कार्मण-वशीकरणादि Correspondingly Gujarati has कामणटूमण . 10. गिद्धावरिंखि. PN. 471. Crawling like a vulture ; sitted on haunches and proceeding by hopping like a vulture. Commentary : गृध्र इव उत्कटको रिङ्खन् याति रिङ् 'to crawl'. in the commentary is to be CDIAL 10735. उत्कटक emended as उत्कुटुक, Pk. उक्कुडुय Guj ऊकडु, CDIAL 1726. I agree with the emendation fg a fifa for गिद्धावरिंखि suggested in PSM. 11. 97 instances given in Pischel $ 218. It is to be explained as Sk. कपोत > Pk. कवोअ, enlarged with the pleonastic suffix ड, it becomes * कवोअड and hence कवोड. कुम्मरि. OBh 90. The word खट्टिका in the commentary is Pk. खट्टिक्क, खट्टिअ ( PSM.) Guj . खाटकी 'butcher'. 13. : घंघसाला. ON 640. Commentary अनाथमंडप. Haribhadra वातायनादि - रहिता: अतिरित्ता वसही कप्पडिग-सेविया य (=modern धर्मशाला ; कप्पडिग 'a wandering begger'. With घंघ = गृह (DN 2, 105) compare Guj घंघोलियुं ' a small, mean hut; a toy house'. 12. छब्बग PN. 278 ; ON 560 Commentary वंश-पिटक . Gujarati छाब, छाबडी, छाबडुं . जोवण. In आउज्जोवण (ओघभा ९० ). Sk. योजन> Pk जोअण > जोवण. Pichel is wrong in rejecting Goldschmidt's view Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 98 (KZ. 112, note 1) that in Pk.,, as etc. a is interpolated between 3/3 and 37 to prevent hiatus ( § 230, note 2). That tendency has become stronger in Apabhrams'a (Paumacariu I, Introduction, p. 58, § 31). a cross between योक्त्रिज्यंते 'are yoked' is a hybrid from Sk. योक्त्र्यन्ते (from the denominative from योक्त्र) and Pk. * जोत्रिज्जंते (compare Guj. to yoke' from Sk. योक्त्र, Pk * जोत्र and other NIA derivatives under CDIAL 10524 योक्त्रयति ). 14. PN. 286. Shriyan 986. Five occurrences of झख् with आलु / अलीउ from Old Guj texts of 12th to 16th cent. I had noted in a Gujarati paper that was later, included in my collection 'Anuśilano', 1965 (pp. 109.110). डगल / डगलग. PN. 15,37. ON 313. Commentary: पक्वेष्टिकाखण्ड ; DS. लघु-पाषाण. फल का छोटा और विषम गोल टुकडा (Niśitha 15,17); 37 (Ni.cu.3, p. 482). Guj. ‘a piece cut out or broken from fruit, wood, wall etc.' 16. डोय. PN. 250. Commentary : बृहद्दारुहस्तः, महांश्चटुक: ‘a big wooden laddle'. Guj डोयो With दारुहस्त compare Guj. तवेथो, ताविपो ( Sk. ताप - हस्तक). ' large spoon with flat part at one end and long handle used to stir etc. in frying'. चट्टुक = Guj. चाटवो. CDIAL 4575. 17. पुरोहड ON 624. Commentary : अग्रद्वार. 'Brahatkalpabhāśya' : wrongly गृहपश्चाद्-भाग, confusing पुरोहड with परोहड. From पुरोहड is derived Old Guj. पोहहडउं (c. 1400 A.C.). (1512), Mod. Guj., early dawn (= front part of the day). Turner wrongly connects Guj —— Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ric with Sk. HTA (CDIAL 8707) or Sk. TRIE (CDIAL 8747), and doubtfully connects हड with Pk. घर. परोहड derives from Pk. पडोहर (through metathesis) = गृहपश्चाद्भागः. Pk. The derives from *UTET, through dissimilation : * ET < 92+371 6+ < Sk. +34TE (Bhayani, Laghuvyutpatti-kos', 1994, p. 135, 227 ; also S'abda-prayogo-ni pagdamdi par, 1995, p. 50). the 'cotton' ON 382, 383, 390. The form fia is due to interpolation of a between to and 37. Piel is Sanskritized as Man in the commentaries. From 1627 is derived Guj. 'cotton' CDIAL 10798. Tag-Ter in the commentary means 'cotton-padding'. 18. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Some sporadic notes on the Bșhaddesi H. C. Bhayani 1. Travaņā The fourth chapter of the Bșhaddesi (1) (EBD.) describes Bhāṇhās according to Yāștika. There the first Bhāṣā of the Țakkarāga is called Travaņā (BD.2, 132, v.16; p. 138, v. 39). Similarly the ninth Bhāṣā of the Pancama-rāga is called Trāvaņi (p.134, v.28; p. 164, 100-101) and it is called desa-sambhavā (v-101). In the Notes (virmarśa) the editors have observed that trāvana or travaņa is not known as a geographical name. In Rājasekhara's Kāvyamimāmsā (first half of the tenth century), Travana occurs twice as the name of a country. In the list of the countries in the Western region of India is mentioned Travaņa along with Surāṣtra, Daśeraka, Bhțgukaccha, Kaccha, Anarta, Arbuda etc. (ch. 17, p. 233). Again in the seventh chapter while describing the regional charactersitics of poetry-recitation it is said that the poets of Surāstra, Travana and allied regions recite even Sanskrit poetry with a touch of Apabhraíśa. Accordingly Travana was the name of a country in the west in the vicinity of Surāṣtra, Kaccha, etc. It was possibly in Rajasthan. 2. Harsapūri The third Bhāṣā of the Mālavakaisika Rāga is called Harsapūri (BD. 2, p. 150, v. 65). The editors say that Harsapūra is not known as a geographical name (p. 311, note 25). Harsapura was known as a city and an administrative province in Gujarat during the Cālukya period. It is mentioned in a copperplate grant (dated 910-911 A.C.) of the period of the Rāstrakūta king. Krsna-II. There the province is called harsapura-ardhästama-sata (i.e. Harsapura-750). It is identified with Harsol in the Sabarkantha district of the present-day Gujarat. In the form harsapūra the vowel is lenghtened metri staghfiguitai TEEN. THP?I. Shmi.! Buirr. Por 1992: put 2. 19%). Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 causa, (See 'Gujarāt no Rajkiy ane Sāṁskṛtik Itihăs’, part 1, ed. R. C. Parikh, H.G. Shastri, 1972, p. 374). 3. Sātavāhanikā The second Bhāsā of the Kakubha Rāga is called Sātavāhanikā (BD.2, p. 134, v.23 ; the ms. reading is sālavāhānikā) or Sātavāhini (p.154, v.74 ; to be emended as sātavahani). The name derives from the name of the royal poet Sātavāhana (Pk. salavāhaņa, sālāhaņa), the famous literary figure and author of the Prakrit anthology Gahākosa or Gahāsattasai, who ruled at Prattişthāna (modern Paithan in Maharashtra) during the first or second century of the Christian era. In the Prakrit section of the Siddhahema-sabdānusāsana, Hemacandra, while connecting Pk. sālavāhaņa, sātāhana with Sk. sātavahana, has given salahani bhāsā as an illustration of the occurrence of the form salahaņa. It is quite tempting to connect this with the Sātavāhanikā Bhāṣā of BD. In that case bhāsā in Hemacandra's illustration (which is most probably taken over from some earlier source) does not mean ‘language', but a type of Grāmarāgas. 4. Ambāheri The twelfth Bhāsā of the Țakka Rāga is called Ambāheri (BD.2, p. 132, v.19; the ms. reading here is ambahiri ; p. 144, v.54). The editors have observed (p.310, note 20) that Ambāhera is not known to be a geographical name. They suggest the connection of that term with Ambara, modern Amer near Jaipur in Rajasthan. Now it is obvious that some of the names of the Bhāṣās do not have any connection with a geographical place-name, e.g. Lalita, Kolahali, Madhuri, Vesari etc. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 The word ammahiraya occurs in the sense of 'lullaby' in Apabhramsa poems of 9th and 10th century A.C.(?). For example in the description of a cowherds settlement it is said : कत्थइ डिंभउ परियंदिज्जइह, अम्माहीरउ गेउ झुणिज्जउ । (Svayambhu's Paumacariya, 24, 13,8) 'In some places a lullaby song is being sung while rocking the child (in a craddle)'. In the same poet's Harivamsapurāņa, Yaśodā is described in the following lines as rocking the child Krsna in the craddle (hallaru, Guj. hālardū) and sing a lullaby: Heft 37TTUI, TRIGE F85 I (5,1,9) In Puspadanta's Mahāpurāņa child Rsabha is described in the followng line as being rocked in a craddle while a sweet lullaby is being sung : ufeigs 3 HERCUT, HCA $-fa HEERGUTI (4,4,13) There, some initial lines of the lullaby are also given. Accordingly, it is suggested that Ambāhiri as the name of Bhāṣā (which as a class being related to the Grāmarāgas) may be the same as Ap. ammāhiraya 'lullaby'. ambaheri is called desyakhyā in BD. That qualifier can be also interpreted as 'the name of which is based on / derives from a regional dialect'. Incidentally, Ap. ammāhiraya can be derived from ammā mummy' + hiraya 'diamond'. In the lullabies that were sung the child would have been addressed or referred to as 'O you mine - your mummy's diamond'. Hence a lullaby came to be called ammahiraya. See my paper in Gujarati. Nalurdi. pärnù in Apabhramsa literature published in 1970 and later included in my collection Sabdaparišilan (!073). pp. 101-106. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 103 5. Vesara BD. states that according to Durgaśakti, Rāgas themselves According to the editors are known as Vesara. (BD.2, p. 108). Rāga is another name of Vesarā Gīti. Again BD. has cited Durgaśakti to explain the term Vesara. According to the latter Vesara is an alternative form of Vegasara. Vegasara is so called because svaras move with speed (vegasara) (p. 108). But a little further on p. 116, it is said that Vesaras are so called because the speed of svaras is seen in them (i.e. it is an alternative form of vega-svara). Editors have noted that the usual meaning of Sk. vesara is 'mule', and that Monier Williams' Sanskrit-English dictionary has given vegasara also with the same meaning. Now vegasara is attested considerably later than vesara (from the Kathasaritsagara and from Hemcandra's Abhidhana-cintamani (which gives vesara, vegasara and asvatara as synonyms). Most probably vegasara is a later creation to explain vesara etymologically. Sk. vegasara 'moving speedily' would become veasara in Prakrit and later vesara. So working backwardly vegasara was formed. This attempt to provide vesara with artificial etymology to match with its meaning is evident from the BD. passages referred to above which once equate vesara with vegasara and second time with vegasvara. vesara 'mule' is a hybrid animal. Whether it implies that Vesarā Giti was called so because of a mixture of two types in its structure is for the musicologists to tell. 6. desi In BD. 1, 2 the word desi qualifies dhvani (m.). In 1,16 it qualifies marga (m.). In 5,346 it qualifies rāga (m.). Elsewhere it qualifies nṛtta (n.), sabda (m.), naman (n.) etc. Formally desi is feminine. At BD. 1,14 it is said: गीयते याऽनुरागेण स्वदेशे देशिरुच्यते । (Here desi is modified as desi to suit the metre). Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 The title bṛhaddesi means 'the great work on desi rāgas'. How to account for the feminine form desi in all these usages? It is of course derived from desa ‘region'. Adjectives formed from desa are desya, desiya: The form desi functioning as an adjective is evidently a changed form of desya. In several Sanskrit words in later usage we find that their final -ya changes to -7, under the influence of Prakrit. Note the following instances (noted in MW.): औचिती < औचित्य, चातुरी - चातुर्य, माधुरी - माधुर्य, वैचित्री < वैचित्र्य, वैदग्धी - वैदग्ध्य, वैदुषी - वैदुष्य. < < (See H. C. Bhayani, 'Etymalogical Notes', Berlines Indologische Studies, 8, 1995, p.9) These forms are attested from comparatively late Sanskrit texts. So also the word desi. The explanation of the term vesara as vegasara or vegasvara, the place-name base of the bhāṣas travaṇā and harṣapuriya, the use of the form desi indicate linguistically rather a late date for BD. So also the term ambaheri in the section taken over from Yaṣṭika's work. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Notes on same Prakrit words HC Bayani Pk In 'besmeared, 'ghae, greasy 1. Under “Dešinamālā' 5.22 Hemacandra has noted Pk. grua for which he has given, besides others, two meaning - equivalents in Sk.: f&'besmeared' and FATET 'greasy'. In Hāla's Gāhākosa 909 occurs thrice. In verse no. 22 in the compound expression वण्ण-घिअ-तुप्प-मुहिएँ for which there is a variant reading quo-f8137-FT- EG. In verse no. 520 also we have वण्ण-घिअ-तुप्प-मुहि. In verse no. 289 occurs तुप्पाणणा which is rendered by a commentator as qafmana. In Bhuvanapāla's recension we have तुप्पालया for तुप्पाणणा, rendered as afihistant in the commentary. In the Jain Agama ‘Daśāśrutaskandha’ (8122) occurs qum ‘whose ends are bemeared with oil.' In Hemacandra's Siddhahema grammar अंकोल्ल-तेल्ल-तुप्पं 'bemeared with the oil of Ankostha'is cited in the commentary on 8-1-200. In the 'Desi Sabda Kosa' तुप्पित = म्रक्षित from ‘Anuyogadvāra-cūrņi' and gruqy = fire from ‘Vipākas'ruta’ are noted. In the 'Gāhākosa' occurs the denominative (9954 (with variants तुप्पविअ, तुप्पलिअ) 'besmeared with ghee' in verse 529. In ‘Setubandha' (15,38) 909 is used in the sense of 'ghee'. Past passive participle 3gfu 'besmeared of the verb formed from 709 occurs in Jain Āgamika texts. For example : #G3f74a-UETfuq-fonfetal-TT ('Praśnavyaāņkaraña”, chapter 3, in the description of thieves) having limbs drenched and besmeared with oil emitted from perspiration'. With gyfoe we Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 can compare उद्धूलिय (from धूली), उद्धृविय (from धूव) etc. See Bhayani, Some Aspects of Deśya Prakrit, 1992, pp. 72, 77. For NIA derivatives from you see CDIAL 5864.. 2. Under ‘Deśināmamālā’3,15 9 is noted with the meaning Fire 'greasy'. At 'Siddhahema’ 8,1 the verb 211045 is noted as synonymous with Sk.p . arusa etc. occur frequently in Prakrit literature in the sense of besmeared with grease'. For NIA derivatives see CDIAL 4865 (gue / 71104). 9145 occurs in the sense of 'a greasy substance like oil, ghee etc.’ in NIA languages. 3. From Sk. 94, Pk. Hore to besmear' is derived H. HURCH, G. HICU 'butter' etc. See CDIAL 10378. 4. If like चोप्पड् and म्रक्ष् we take तुप्प् as primarily meaning 'to besmear’, then you and fucy 'besmeared' can be regarded as formed like फुट्ट and फुट्टिय, तुट्ट and तुट्टिय etc. and तुप्पव् from तुप्प as a denominative with तुप्पविअ as past passive participle. Later semantic development as 'besmearing', 'grease', ‘ghee' can account for 509/94 ghee'. Turner indicates that que and qu9 are related. In a few Prakrit words we find palatal consonants (c, j) taking the place of dentals (t, d) or conversely 1 for c and d forj. See Pischel's Comparative Grammar of Prakrit Languages, 215, 216. We can compare चिट्ठइ and तिष्ठति, चुच्छ and तुच्छ with चुप्प and तुप्प. Or alternatively regard चुप्प as prior. * The present discussion of you is a considerably expanded version of a short note on उत्तुप्पिय that was included in my paper 'तीन अर्धमागधी yogi on settin Muni Sri Hajarimal Smrti-Grantha': 1965. pp. 771772 ; reprinted in my collection Studies in Des'ya Prakrit. 1988. pp. 192-194. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 107 In veiw of the variant घिअ-लित्त for घिअ-तुप्प and the citation 310 -8-909 in the ‘Siddhahema', I find untenable Tieken's view that in verse 20 तुप्प means धृत (i.e. घिअ-तुप्प is a compound of two synonyms) and that the meaning afera is based on a misunderstanding (Herman Tieken, 'Hāla's Sattasai as a source of pseudo-Deśi words’, Bulletin D'etudes Indiennes, 10, 1992. p. 235). Pk. Yfichefore In PSM. this word is noted from Pindanirsyukti 239 with the sense 'एकत्र पिण्डीकृत'. But Bollée has referred to परिकद्रुलिय (should it be originally fastset ?) from Ratnacandra's dictionary and has pointed to the occurrence of affufuse in the same sense (p. 466, 495). So faciety is a wrong from. It derives from Sk. uri , Pk. Trong Reference Works Materials for an edition and study of the Pimda and Ohanijjuttis of the Svetambarā Jain Tradition. Vol II text and glossary. Willem B. Bollée. 1994. Comparative Dictionary of the Indo-Aryan Languages. R. L. Turner. Pāiasaddamahannavo. H. Sheth. Desi Sabdakośa. Dulaharaja. Abbreviations CDIAL - Comparative Dictionary of the Indo-Aryan Languages. DS. Desi Sabdakosa ON. Oghanijjutti PM. Pimdanijjutti PSM. Pāiasaddamahannavo. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संशोधन-समाचार : मेरुतुंग-बालावबोध-व्याकरण नारायण म. कंसारा वि.सं. १४०३ थी १४७१ दरमियान हयाति धरावी गयेल अंचलगच्छीय आचार्यश्रीमेरुतुंगसूरि एक बहुश्रुत विद्वान अने ग्रंथकार हता. एमणे कामदेवचरित्र, संभवनाथचरित्र, जैनमेघदूत, षड्दर्शननिर्णय, जेसाजीप्रबंध, नाभिवंशमहाकाव्य वगेरे त्रीसेक ग्रंथो रच्या छे. एमांनो एक ग्रंथ 'मेरुतुंगबालावबोध-व्याकरण' छे. आ ग्रंथना संपादननी कामगिरी बे एक वर्ष पूर्वे अंचलगच्छीय आचार्य श्री कलाप्रभसूरिजी द्वारा मने सोंपवामां आवी हती. 'बुद्धिसागरव्याकरण'ना कार्यमां वच्चे थोडोक अवकाश मळ्यो त्यारे तेनी साथे साथे आ कार्य आरंभीने ए १९९६ना डीसेम्बरमा पूर्ण थयेटु. अत्यारे ए ग्रंथ, छपाइकाम चालु छे अने छ एक मासमां प्रसिद्ध थशे. आ बधी कामगिरीनु संचालन आचार्यश्री द्वारा थइ रह्यं छे. 'मेरुतुंगव्याकरण' विषे 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र'ना इतिहासोमां खास कोई माहिती मळती नथी. एनुं कारण.ए छे के आ व्याकरण मूळे 'कातंत्रवृत्ति'ना स्वरूपनुं छे, तेथी ए कोई स्वतंत्र व्याकरण होवानुं प्रसिद्ध नथी. तेनी जे चार हस्तप्रतो मळी छे तेमां 'बालवबोधवृत्ति' , 'कृत्सूत्रवृत्ति-बालावबोध', 'कातंत्र बालबोधवृत्ति' अने 'कातंत्र व्याकरण बालबोधवृत्ति सह' आवां ज ग्रंथ नामो छ. आचार्य मेरुतुंगसूरिए पोते पण कोई स्वतंत्र रचना कर्याना दावो कर्यो नथी. उलटुं एमणे तो ग्रंथना आरंभे बीजा मंगलश्लोकमां ज त्रीजा-चोथा चरणोमां "कातन्त्रस्य प्रवक्ष्यामि व्याख्यानं शार्ववर्मिकम् ॥ २॥" एम कही दीधुं छे. आ उपरथी जणाय छे के आ ग्रंथ रचना पाछळ एमनो उद्देश पोताना शिष्यसमूहने सरळताथी संस्कृतना जाणकार बनाववानो अने - 'बालावबोध'नो ज हतो. छतां 'मेरुतुंग बालवबोध-व्याकरण' ए स्वतंत्र ग्रंथ गणाववानी पात्रता Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 धरावे छे कारण के आचार्य श्रीए पोताना जमानामां पोताना विहारक्षेत्र मारवाडमां प्रचलित कातंत्र व्याकरण तथा तेना उपरनी दुर्गवृत्ति तथा सिद्धहैमशब्दानुशासनना पांचमा अध्यायनां अमुक चूंटेलां सूत्रो तथा तेमना उपरनी बृहद्वृत्तिनो उपयोग करीने पोतानी शार्ववर्मिक कातंत्रनी 'बालावबोधवृत्ति' तथा आचार्य हेमचंद्रसूरिना अमुक पसंद करेलां सूत्रोमां अनुवृत्तिनी आवश्यकता मुजब जरूरी फेरफार करीने नवेसरथी पोतानां कृत्सूत्रो मठारी तथा तेना उपर पण बालावबोध स्वरूपनी वृत्तिनी रचना करीने पोताना आ 'मेरुतुंग- बालावबोध-व्याकरण' तरीके ओळखावा लायक व्याकरणग्रंथनी रचना करी छे. आ ग्रंथमां कुल मळीने १०७१ सूत्रो छे अने तेना उपर आचार्यनी 'बालवबोधवृत्ति' छे. आ सूत्रो चार अध्यायमां वहेंचायेलां छे अने दरेक अध्याय अमुक संख्याना पादोमां वहेंचायेलो छे. पाद संख्या चार ज होय तेवो नियम अहीं नथी. प्रथम अध्यायमां पांच पाद, बीजामा छ पाद, त्रीजामां आठ पाद अने चोथामां छ पाद छे. ए रीते आ 'मेरुतुंग- बालावबोध- व्याकरण' चतुरध्यायी के पच्चीसपादी व्याकरण ग्रंथ छे. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षानुं आगमन वर्षाना आगमने मेघो उपर चडी आव्या छे गर्जता, क्वचित मंद्र ध्वनि करता, विजळीना झळकारावाळा जळबिंदु - टपकावता ; केटलाक केश, चंपो, शण, कुरंटक (पीळो कांटासेरिओ), सर्षप, पद्मपरागनो वान धरता (नील) ; ह. भायाणी केटलाक लाखनो रस, किंशुक, जासुद, बंधुजीवक (बपोरियो ) . ऊंची जातो हींगळोक, चंदननो रस, घेटा अने ससलानुं रुधिर, इंद्रगोप - एनो वान धरता (रक्त) ; मयूर, गळी, पोपट अने चास पक्षीनां पीछां, भ्रमरनी पांख, प्रियंगु, नीलोत्पल, तरत खीलेलुं शिरीषपुष्प-एनो वान धरता (हरित - नील) ; केटलाक आंजण, भृंग, अरिष्टरत्न, महिष एनो फन धरता (श्याम); पवनवे विशाळ गगनमां चपळताथी गति करता ; उपराउपर त्वरित निर्मळ जळधारा वरसावता - जे प्रचंड पवनवेगे चोतरफ फेलाती हती ; - धारापाते धरातळने शीतळ करता, अने धराने हरियाळीनी कांचळी पहेरावता. वृक्षराजि नवपल्लवित बनी छे ; ; वल्ली - वितान प्रसर्यां छे; ऊंचाणवाळा प्रदेशो रमणीय दीसे छे; पहाडना शिखरो अने ढोळावो परथी झरणां दडी रह्यां छे गिरिनदीओमां डहोळं जळवेगे वही रह्यं छे अने तेमां फीणना गोटा दोडे छे; उपवनो सर्ज, अर्जुन, कदंब, कुटज, शिलींनी सुगंधे मभ्रमण छे Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेघगर्जनाथी हृष्टतुष्ट मयूरो मुक्त कंठे केकारव करता, ऋतुबळे मत्त थईने ढेलोनी साथे नृत्य करे छे ; 111 ; कोकिलोनो टहुकार प्रसरे छे इंद्रगोप सरकी रह्यछे ; देडका डणके छे पुष्पमधुना पाने मत्त, लोल भ्रमर भ्रमरीओ टोळे वळी उद्यानोमां गुंजन करे छे ; चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारानुं तेज श्याम मेघोने लीधे ढंकाई गयुं छे; गगने मेघधनुष्यनो पट्ट पहेर्यो छे ; ऊडी बगलीओनी हारोथी मेघो शोभी रह्या छे; कारंड, चक्रवाक, कलहंस उत्कंठित बन्या छे. (जैन आगम 'ज्ञाताधर्मकथा', प्रथम श्रुतस्कंधमांनुं वर्षावर्णन) अनुवाद - ह. भायाणी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्ण नवां प्रकाशनोनी माहिती, वगेरे A Study of Jayanta Bhatta's Nyāyamañjari : A Mature Sanskrit Work on Indian Logic : Part III. Nagin J. Shah. pp. 10 + 214. Sanskrit Sanskriti Granthamālā. Ahmedabad. 1997. (अनुसंधान, ५मां आना बीजा भागनो परिचय आपेलो छ ।). Uttarajjhāyā. Word Index and Reverse Word Index. M. Yamazaki, Y. Ousaka. Philologica Asiatica. Monograph Series 11. 30" x 20". pp. 302. Tokyo. 1997. (जपाननी सरकारना शिक्षण, विज्ञान, रमतगमत अने संस्कृति खातानी आर्थिक सहायथी उपर्युक्त बे विद्वानोए कम्प्युटरनी सहायथी श्वेताम्बर जैन आगमग्रंथोनी संपूर्ण पाद-सूचि, शब्द-सूचि अने अन्त्य पदना अंत्य वर्णने आधारे ऊलट-सूचि तैयार करवानी जे योजना करी छे, ते अनुसार प्रस्तुत ग्रंथमां 'उत्तरज्झाया'नी शब्द-सूचि अने ऊलट शब्द-सूचि (रोमन लिपिमां) आपी छ। आ पहेला 'दसवेयालिय', 'इसिभासियाई', 'आयरंग', 'सूयगड', ए आगमग्रंथोनी पादसूचिओ अने शब्दसूचिओ उपर्युक्त पद्धतिए तैयार करी प्रकाशित करेल छे. आमांथी केटलाकनो परिचय ‘अनुसंधान' ३ तथा ९मां अमे आप्यो छे।) When did the Buddha Live ? : The Controversy on the Dating of the Historical Buddha. Ed. Heinz Berchert. 28" x 20. pp.388. Delhi 1995. (गटिंगेन (जर्मनी)नी एकेडेमी ऑव सायंसीझ तरफथी १९८८थी गौतम बुद्धना समयनिर्णयने लगता विवादने अनुलक्षीने जे परिचर्चाओ योजाई हती ते बे ग्रंथोमां १९९१ अने १९९२मां प्रकाशित थई छ। ए परिचर्चामां रजू थयेली निबंधोना निष्कर्षोने तथा ते पछी जे केटलीक चर्चा थई तेने गणतरीमां लईने आ ग्रंथ तैयार करायो छे । तेमां आ विषयने लगती बधी पूर्ववर्ती चर्चानो Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 इतिहास अने सर्वेक्षण तथा विविध परंपरागत सामग्रीना पुनर्मूल्यांकनने लगता बने पक्षोनां दृष्टिबिन्दु अने तेनुं तारण प्रस्तुत करेलां छे । भगवान वर्धमान महावीरना समयनिर्णयनी साधे पण आ चर्चाने निस्बत छे । * पार्श्वचंद्रसूरि - विरचित जिन - स्तवन- चतुर्विंशतिका. सं. मुनि भुवनचंद्रजी पार्श्वचंद्रसूरि साहित्य प्रकाशन समिति, मुंबई. १९९७. * यशोग्रन्थ मंगलप्रशस्ति संग्रह. संपा. यशोदेवसूरि, जयंत कोठारी, जशवंती दवे, पारुल मांकड. यशोभारती जैन प्रकाशन समिति, पालिताणा. १९९७. (उपाध्याय यशोविजयजीना प्रकाशित तेम ज अप्रकाशित समग्र संस्कृतप्राकृत ग्रंथो तथा गुजराती - हिन्दी ग्रन्थोना आदि - अंत गुजराती अने हिन्दी अनुवाद साधे आपेल छे।) * महोपाध्याय शान्तिचन्द्रगणि- विरचित कृपारसकोश. संपादकअनुवादक मुनि जिनविजयजी परिशिष्टो सहित पुन: संपादन, पुनर्मुद्रण विजयशीलचन्द्रसूरि द्वारा. जैन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, खंभात. १९९६. * हेमचन्द्राचार्य - विरचित वीतरागस्तवः हिन्दी पद्यानुवाद साथे. अनुवादक विजयशीलचन्द्रसूरि कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार - शिक्षण निधि, अमदावाद १९९६. * Doha-giti-kośa of Saraha-pada and Carya - giti- kosa of various Siddhas. Restored Text. Sanskrit Chāyā and Translation. H. C. Bhayani. pp 16 + 140 Prakrit Text Society, Ahmedabad. 1997. * Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 महाचन्द्र-मुनि-कृत बारहवरवर-कक्क. मातृका-प्रकार का अनुअपभ्रंश-कालीन उपदेशात्मक जैन काव्य. संपा. हरिवल्लभ भायाणी. सहायक (श्रीमती) प्रीतम सिंघवी. पृ. १२८. पार्श्व शैक्षणिक और शोधनिष्ठ प्रतिष्ठान, अहमदाबाद, १९९७. Some topics in the Development of OIA, MIA, NIA. H. C. Bhayani. pp. 150. L. D. Institute of Indology, Ahmedabad, 1997. जैन धर्मना विश्वकोश / ज्ञानकोशनी योजना अमेरिकाना जैन एकेडेमिक फाउन्डेशन तरफथी Encyclopedia of Jainism तैयार करवानी एक महत्त्वकांक्षी योजना हाथ धराई छ । (१) इतिहास, (२) दर्श अने मनोविज्ञान, (३) धर्म, आचारनीति, समाज, (४) न्याय अने प्रमाणविचार, (५) भाषा अने साहित्य (६) कला अने स्थापत्य, (७) विज्ञान, (८) समकालीन धर्म, दर्शन, संस्कृति । आ माटे जैन धर्म, परंपरा, भाषा-साहित्य आदिना विज्ञानोनी एक विस्तृत परामर्श-समितिनी अने डॉ. कमल चन्द सोमाणीनी प्रधान संपादक तरीके नियुक्त कराई छ । जैन-आगम-भाषा-विषयक संगोष्ठीना संबंधमां विद्वानोना पत्रो आ संबंधमां "जैन आगमों की मूल भाषा" पर एक विद्वत्-संगोष्ठी हमणांज एप्रिल मासमां अमदावादमां ज योजाई हती अने एनुं परिणाम स्पष्ट हतुं के अर्धमागधी आगमो शौरसेनी आगमो करतां प्राचीन छे अने ए विषे बे मत होई शके ज नहीं। अर्धमागधी भाषनां मूळ स्वरूपनी परिस्थापना विषे अने अर्धमागधी तथा शौरसेनी आगमोनी पूर्वापरता विषे पाश्चात्य विद्वानो | अभिप्राय धरावे छे ते विषे जे पत्रो अमने मळ्या छे ते तेमना मूळ स्वरू अने भाषामां नीचे उद्धृत करवामां आवी रह्या छ । - के. आर. चन्द्र Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 THE AUSTRALIAN NATIONAL UNIVERSITY FACULTY OF ASIAN STUDIES, ASIAN HISTORY CENTRE CANBERRA, AUSTRALIA 14 April, 1997. Dear Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, The exact nature of the original language of the Jaina texts is without doubt an important question for all those who have a scholarly interest in Jaina religion and literature. The plan to hold a seminar on this topic is a very welcome one and it is to be hoped that the important papers presented therein will be published to allow for the dissemination of information to a wide audience. I have no hesitation in wishing the proceedings every success. Sincerely Royce Wiles Scotland, U. K. 16/4/97 Dear Professor Chandra, Thank you for your letter advising me about the forthcoming seminar on the “Original Language of the Jain Canonical Texts”. It is very gratifying to learn that such an academic function has been organised and that so many distinguished scholars are participating in it. As you will know, sixty or so years ago Heinrich Lüders saw the desirability of describing the linguistic stratum underlying the Pali scriptures. The fragmentary results of this research appeared in his Beobachtungen über die Sprache des buddhistischen Urkanons and Buddhist philology has continued to benefit from his insights. Unfortunately, with the ex Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 ception of Alsdorf, no western researcher has attempted to consider the question of the original language of the Jain scriptures, so that it is very much to the credit of Indian scholars that they are beginning to address this subject in a critical and concerted manner. The first valuable results of this line of investigation are familiar to me from your Prācin Ardhamāgadhi ki Khoj Mem and I would hope that the seminar leads to the emergence and dissemination of further knowledge about this fascinating subject. Only by challenging longheld presuppositions will scholarship on ancient texts be advanced. My best wishes for a successful and fruitful seminar. Yours sincerely, Paul Dundas Senior Lecturer in Sanskrit University of Edinburgh, England. SOAS University of London Thornhaugh Street, Russel Square, LONDON WCIH OXG. 16-4-97 Dear Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, Thank you for informing me of the Seminar on the Original Language of the Jain Canonical Texts that is scheduled to take place shortly in Ahmedabad. You are to be congratulated on the selection and range of topics, and on the timing of the conference at this important juncture in Jain Studies. My colleagues and I hope that, by subsequent publication of the proceedings, it will encourage and facilitate more widespread study, publicaiton, and discussion of the primary manu Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 script sources. We would also wish to convey our congratulations to Dr. K. R. Chandra on the appearance of his stimulating re-appraisal of the linguistic form of the text of Acarangu. J. C. Wright Professor of Sanskrit in the Univ. of London School of Oriental and African Studies. From : South Asia Dept., Professior J. C. Wright SOAS, University of London, Thornhaugh St., Russel Sq., Londoan WCIH OXG 28/5/97 Dear Dr. Chandra, Thank you for sending me a copy of your report on the outcome of the Original Language' Seminar. Of cource I remain most interested in the progress of your re-appraisal of the testimony of Acaranga MSS for the language of Amg. texts, and hopeful that you can publish more of the information gleaned. Would that someone might be inspired to produce facsimile reproductions of the principal MSS, in emulation of the Satapitaka Series. That is something that ought to be demanded at every conference, before the MSS disintegrate entirely. Your findings seem to confirm that a return to the method of Jacobi's 1882 edition of Acaranga would be appropriate. In case of variation, he gave in italics the most antique-looking reading that happened to be available (e.g.... nātam bhavati... ovavāiye...), even although, on his own showing, such readings can always be put down to an instinct to clarify the meaning. Thus he rightly could take note of effects like 1.2 mäyä me pitā Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 me and 1.6 mātaram piyaram. But I do not believe that it is safe to refer to this (as he did) as a 'retention of -t-: one is presumably less likely to find a -t- in a purely Prakrit form like bhāyā. With pariņņa, and with the same sort of effect in hiraņņeņam suvanneņam elsewhere (ZDMG 1880), his policy was to archaize with parinnā and suvanneņam. I take the opportunity to congratulate you on your explanation of locative -ammi, which seems to solve one of the most perplexing problems of all. It goes well with the texts' failure to distinguish between 0- and u-, and with Bühler's suggestion that graphic confusion between n and ņ was involved : that would seem to justify Jacobi in his willingness to emend u-, !!-, and in (irrespective of the actual readings, as I understand him). Schubring's identification of two groups within the Ācārārga MSS, and of separate strata of verse and prose material, seems to hint that critical editing is possible (though he did not make the attempt, and it would be a thankless task without access to facsimiles of the MSS). With all good wishes, J. C. Wright 6, Huttles Green, Shepreth, Royston, Herts. 28/5/97 Dear Dr. Chandra, Thank you for your letter of 15/5/97. I am delighted to hear that the Seminar on the subject of The Original Language of the Jain Canonical Texts was so successful. I was interested to hear the outcome of your deliberations. I think that it is very likely that Ardha-māgadhi was the original language of the Jinagama or, since the language of the original Jinagama was presumably earlier than the Ardha-magadhi ile Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 possess now, perhaps we should call it Old Ardha-māgadhi. 1 believe that this language was affected by the Mahārāștri Prakrit after Jainism had spread to Mahārāstra and I would agree that the Sauraseni Agamic works are relatively later. If there are any plans to publish the proceedings of the Seminar I should be very glad to receive a copy. With best wishes, Yours sincerely, K. R. Norman Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________