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________________ .58 मेरुगिरि शिखर उपरि जो पंगुअ चढीअ सकंति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो हइ जगगुरु तुम्हतणा ।। गुण गणी न सकंति रे प्र० ॥ ६२।। तरल तरुफल भूमिषु वामणो ग्रही जो सकंति । तो हइ हीरजी तुम्हतणा तो हइ जगगुरु तुम्हतणा ॥ गुण गणी न सकंति रे प्र० ॥६३।। निज खंधई आरोहणं तुम्ह गुण गणना गुरुराज मंदबुद्धि हुं हुंसी गुण गणवा हुओ आज रे । प्रभु० ॥६४॥ गुरुजी तुम्ह गुण मीठडा मइ बोल्या नवि जाय । गुंगइ खाधी खंड जिम रस हृदय जणाय रे । प्रभु० ॥६५॥ राग धन्यासी दूहा समुद्र दोत मेरुलेखनी गगन कागल कराय । लिखई बृहस्पति तुम्ह गुण तो हइ लिख्या नवि जाय ॥६६।। श्री गुरु हीरजी तुम्ह तणी उपम आवि सोइ । भमतां महीमंडलमांहि मइ नवि दीठो कोइ राग-आसाउरी मोहनमूरति पर उपगारी जुगप्रधान अवतार । सकलसुरासुर नरनारीनइ भवजलपार उतारई ॥६८॥ रे हीरजी । अनन्त गुण भंडार ताहरा गुम तणो नहीं पार । तुं तु टालइ सिथलाचार तुं तु पालइ सुद्ध आचारे हीरजी अनन्त गुण भंडार । जग गु० ॥ ६९।। सुगुण गुणमणि रोहण भूधर प्रणमित पद भूपाल । तपगच्छभारधुराधुरंधर षटजीवनगोपाल रे हीरजी० ॥ ७०।। सकलकलाकमला वो प्रभु उपसमरस शृंगार । ॥६७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520510
Book TitleAnusandhan 1997 00 SrNo 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size6 MB
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